पश्चिम ने मृत्यु को जीवन की समाप्ति समझा है, इसलिए बूढ़ा अनादृत हो गया
ओशो– अगर हम मन का हिसाब छोड़ दें और जरा अस्तित्व को देखें, तो पता चलेगा, सूर्य ही तो खींचता है सागर से पानी को, सूर्य ही तो बनाता है बादलों को, सूर्य ही तो बरसाता है। तो आग और पानी में जो वैमनस्य हमें दिखाई पड़ता है, वह कहीं न कहीं हमारे मन के कारण ही होगा! वह वैमनस्य राम और रावण जैसा ही है। सूर्य के बिना पानी नहीं हो सकेगा। पानी के बिना सूर्य नहीं हौ सकेगा। वे कहीं बहुत गहरे में संयुक्त और इकट्ठे हैं।
उनके संयुक्त होने की खबर वे देते हैं और कहते हैं, हे अर्जुन, मैं ही अमृत हूं और मैं ही मृत्यु।
दुनिया में ईश्वर के संबंध में जिन लोगों ने भी सोचा है, उनमें सिर्फ हिंदू दृष्टि ईश्वर के साथ मृत्यु को भी जोड़ती है, बाकी कोई भी नहीं जोड़ता है। पृथ्वी पर जितनी चिंतनाए हैं, वे सभी कहती हैं कि ईश्वर जीवन है, लेकिन कोई भी यह कहने की हिम्मत नहीं करता कि ईश्वर मृत्यु भी है। उसका कारण है। वह जो हमारे मन का विभाजन है, उसमें हम कैसे दोनों कहें? कैसे? ईश्वर दोनों कैसे हो सकता है?
लेकिन ईश्वर दोनों है; क्योंकि जीवन दोनों है। हमारे तर्क में न आए, तो हमें तर्क छोड्कर देखना चाहिए। लेकिन हमारे तर्क के पीछे जीवन चलने को आबद्ध नहीं है। अगर हम पूछें किसी और से, तो वह कहेगा, ईश्वर जीवन है। लेकिन ईश्वर मृत्यु है, यह कहने में घबड़ाहट होगी उसे। क्योंकि मृत्यु को हम सोचते हैं, वह जीवन के विपरीत है। और जीवन को हम अच्छा और मृत्यु को बुरा समझते हैं।
इसलिए मित्र के लिए हम जीवन की प्रार्थना करते हैं, और शत्रु के लिए मृत्यु की प्रार्थना करते हैं। चाहते हैं मित्र जीए, और चाहते हैं शत्रु मर जाए। लेकिन हमें पता नहीं; मर तो वही सकता है, जो जीएगा। और हमें यह भी पता नहीं कि जो जीएगा, उसे मरना ही पड़ेगा। तो जब हम किसी की मृत्यु की प्रार्थना करते हैं, तब हम उसके जीवन की भी प्रार्थना कर रहे हैं। और जब हम किसी के जीवन के लिए शुभकामना करते हैं, तब हम मृत्यु की भी शुभकामना कर रहे हैं। क्योंकि जीवन बिना मृत्यु के हो नहीं सकता है, वे एक ही चीज के दो छोर हैं।
जीवन और मृत्यु बड़े विपरीत छोर हैं। हम सबको ऐसा अब तक लगता रहा होगा कि जीवन को जो समाप्त करती है, वह मृत्यु है। लेकिन वह दृष्टि गलत है। जीवन को जो पूर्ण करती है, वह मृत्यु है। जीवन मृत्यु में जाकर अपने चरम शिखर को छूता है।
इसलिए भारत ने जवानी को बहुत मूल्य नहीं दिया, वार्धक्य को मूल्य दिया। पश्चिम जवानी को मूल्य देता है, वृद्ध को कोई मूल्य नहीं देता। वृद्ध होना अवमूल्यित हो जाना है, डिवेल्युएशन हो जाता है। आदमी का हुआ पश्चिम में कि डिवेल्युएशन हुआ, उसका अवमूल्यन हो गया। उसका जो भी मूल्य था जगत से, वह खो गया।
क्यों? क्योंकि अगर जीवन और मृत्यु विपरीत हैं, तो फिर जवान ही जीवन के शिखर को छूता है; का तो मौत की तरफ जाने लगा। इसे ऐसा समझें, अगर मृत्यु बुरी है, तो का अच्छा कैसे हो सकता है? क्योंकि के का मतलब है, जो मृत्यु में जाने लगा। वह मृत्यु का पथिक है; मृत्यु उसके करीब आने लगी। के का मतलब है, जिससे मृत्यु प्रकट होने लगी। तो फिर जवान शिखर है जीवन का। अगर मृत्यु जीवन के विपरीत है, तो जवानी जीवन होगी। फिर जवानी का मूल्य होगा, बूढ़े का अवमूल्यन हो जाएगा
पश्चिम ने मृत्यु को जीवन की समाप्ति समझा है, इसलिए बूढ़ा अनादृत हो गया। इस भाव के साथ बूढ़े का कोई आदर नहीं हो सकता। पूरब ने मृत्यु को जीवन की पूर्णता समझा है, इसलिए बूढ़ा आदृत हुआ। क्योंकि वही चरम शिखर है जीवन का, जवान नहीं, वृद्ध ही चरम शिखर है जीवन का। और मृत्यु का क्षण सिर्फ अज्ञान के कारण अवसाद का क्षण है, अगर समझ हो, तो उत्सव का क्षण भी हो सकता है।
प्रयोजन इतना ही है कि जिसे हम विपरीत कहते हैं, वह विपरीत नहीं है। विपरीत हमारी भ्रांति है। और जहां-जहां विरोध दिखे, वहा-वहा खोजेंगे, तो नीचे एकता की धारा मिल जाएगी।
🍁🍁ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३🍁🍁
गीता-दर्शन – भाग 4
अध्याय—9 (प्रवचन—आठवां)