ओशो- हमने जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लिया है, शरीर और आत्मा के। इसलिए समाज दो हिस्सों में टूट गयाः गृहस्थ और संन्यासी।
संन्यासी वह है, जो आत्मा-आत्मा की बातें कर रहा है; गृहस्थ वह है, जो शरीर-शरीर की बातें कर रहा है। मनुष्य को तोड़ लिया है शरीर और आत्मा में। और समाज को तोड़ लिया, गृहस्थ और संन्यासी में। न तो आत्मा और शरीर टूटे हुए हैं जीवन में और न तो गृहस्थ और संन्यासी टूटा हुआ हो सकता है। ये अतियां हैं, बीमारियां हैं। एक ऐसा मनुष्य चाहिए जो गृहस्थ होते हुए, संन्यासी हो, तो हम दुनिया को धर्म से भर सकेंगे, नहीं तो नहीं भर सकेंगे। एक ऐसा मनुष्य चाहिए, जो घर में, दुकान में, धर्म में हो। हमने दो-दो हिसाब बना लिए हैं। दुकान अलग, मंदिर अलग। यह बेईमानी है। यह वह ही अति का खंडन है। हमने सोच लिया है, एक तरफ दुकान बना ली है और उसी दुकानदार ने एक तरफ मंदिर बना लिया है, जो घंटे भर के लिए मंदिर आता और तेईस घंटे दुकान में रहता है और सोचता है, हम दोनों काम संभाल रहे हैं, धर्म भी सम्हाल रहे हैं और दुकान भी सम्हाल रहे हैं।मैं आपको कहूं, जिस दिन मकान-मकान मंदिर बनेगा, उस दिन दुनिया में धर्म आ सकेगा, उसके पहले धर्म नहीं आ सकता। जब तक रहने का मकान अलग और पूजा का मकान अलग, तब तक दुनिया में धर्म कभी नहीं आ सकता। यह जिंदगी टूटी हुई नहीं है। जिंदगी इकट्ठी है। जिंदगी बिलकुल इकट्ठी है। और अगर आप सोचते हों कि मैं तेईस घंटे दुकान पर बैठूंगा और घर का काम करूंगा और घंटे भर के लिए मंदिर में भी आकर बैठ जाऊंगा, तो आप सोचते हैं, क्या तेईस घंटे का आदमी घंटे भर के लिए बदल जाएगा, दूसरा हो जाएगा? यह कैसे संभव है। जो आप तेईस घंटे थे, चेतना अविछिन्न है, कंटिन्युअस है। जो आप तेईस घंटे थे वही मंदिर में बैठ कर भी, आप घंटे भर में होंगे। आप माला फेरते हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; आप नमोकार पढ़ते हों; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; आप गीता पढ़ते हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; पढ़ने वाला व्यक्ति वही है, जो दुकान पर बैठा था। उसका चित्त वही है, उसके जीवन की दृष्टि और ढंग वही है। वह माला पढ़े, वह मंदिर में आए, वह जप करे, वह कुछ भी करे, इससे कुछ होने वाला नहीं है। नहीं होने वाला इसलिए है कि इन सारी बातों से चेतना परिवर्तित नहीं होती।
लेकिन इससे एक तरकीब, एक आसानी हो जाती है और वह आसानी यह हो जाती है कि बिना धार्मिक हुए धार्मिक होने की सुविधा और मजा आ जाता है और रस आ जाता है। सस्ती तरकीबें हमने निकाल ली हैं धार्मिक होने की। मजा यह है कि जब तक पूरा जीवन धार्मिक न हो, तब तक कोई आदमी कभी धार्मिक नहीं होता। लेकिन हमने सस्ती तरकीबें निकाल ली हैं। हमने कई रास्ते निकाल लिए हैं, सस्ते नुस्खे निकाल लिए हैं। हम बैठ कर थोड़ी देर के लिए कोई तरकीब से आसन लगाके बैठ जाते हैं, कोई मंत्र पढ़ने लगते हैं, किसी प्रतिमा का ध्यान करने लगते हैं, कोई शास्त्र खोल कर बैठ जाते हैं, और सोचते हैं कि हम धार्मिक हो गए।
अगर इस भांति दुनिया धार्मिक होती होती, तो अब तक सारी दुनिया धार्मिक हो जानी चाहिए थी। कितने मंदिर हैं, कितने मस्जिद हैं, कितने शिवालय, कितने गिरजे और सारे लोग उनमें जाने वाले हैं, सारे लोग उनमें आने वाले हैं, लेकिन दुनिया अधार्मिक की अधार्मिक ही है। कहीं कोई भूल है।
और वह भूल, मैं आज की सुबह आपसे निवेदन करना चाहता हूं; इस बात में है कि हम धर्म को और जीवन को तोड़ कर देखते हैं। जब तक हम तोड़ कर देखेंगे, तब तक जीवन कभी धार्मिक नहीं हो सकता। धर्म और जीवन जिस दिन हमें एक ही चीज दिखाई पड़ेंगे, उस दिन जीवन में कोई क्रांति हो सकती है। जिस दिन मेरा उठना-बैठना, मेरा खाना-पीना, मेरा बोलना, मेरा चलना, मेरा सोना, मेरा सपना देखना भी जिस दिन मेरे लिए धर्म होगा, जिस दिन मेरा धर्म और मेरा जीवन ओतप्रोत होंगे, संयुक्त होंगे, इकट्ठे होंगे उस दिन, उस दिन मेरे जीवन में एक रूपांतरण हो सकता है, एक क्रांति हो सकती है, एक परिवर्तन हो सकता है।
लेकिन यह नहीं हो पा रहा है, क्योंकि हमने दो कंपार्टमेंट बना लिए हैं। धर्म का कंपार्टमेंट अलग है और जीवन का अलग। हम कहते हैं कि हम धर्म मंदिर में जा रहे हैं, इसका मतलब क्या हुआ, आप जरूर अधार्मिक आदमी हैं, नहीं तो धर्म मंदिर में जाते कैसे।
हम सारे लोग दो तलों पर जी रहे हैं। मेरा कहना है, जीवन में कोई तल नहीं है और दो तल मनुष्य के मन की तरकीब है, ईजाद है, टेक्नीक है, होशियारी है, कनिंगनेस है, चालाकी है कि जीवन को दो तलों में बांट दिया है।
दो तलों में बांटने से बड़ी सुविधा हो गई है, बहुत सुविधा हो गई है। मन को समझाने के लिए रास्ता मिल गया है कि हम तो संसारी लोग हैं, हम तो गृहस्थ हैं, इसलिए जब हम संन्यासी हो जाएंगे और सब छोड़ देंगे तब धार्मिक भी हो जाएंगे। हम तो गृहस्थ हैं, हम तो संसारी हैं, इसलिए संन्यासी का हम पैर छूते हैं, क्योंकि हम तो संसारी हैं, आप संन्यासी हो, इसलिए आपका पैर छूते हैं, आदर करते हैं, जिस दिन हम भी हो जाएंगे संन्यासी, तो हमको भी आदर मिलेगा। अभी तो हम आदर देते हैं, अभी तो हम गृहस्थ हैं, अभी हमें पापी होने की सुविधा है, अधार्मिक होने की सुविधा हम स्वीकार करते हैं, क्योंकि धार्मिक का हम आदर करते हैं, हम तो कोई आदर मांगते नहीं। हम अपने को अधार्मिक होने के लिए सुविधा मानते हैं। अभी हम अधार्मिक हो सकते हैं। थोड़ा-बहुत मंदिर आ जाते हैं, थोड़ा-बहुत धर्म भी करते रहते हैं, ताकि परलोक भी न बिगड़ जाए, इस लोक को भी संभालते हैं, परलोक को भी संभालते हैं। यहां भी बड़ा मकान बना रहे हैं, थोड़ा दान-पुण्य करते हैं, स्वर्ग में भी मकान की व्यवस्था कर रहे हैं, वहां भी मरेंगे तो एक मकान मिलेगा।
ये हमारी तरकीबें हैं, और जब तक हम इन तरकीबों के प्रति सचेत न हों और उन्हें तोड़ें न और जब तक हम इस होश से न भरें कि कोई आदमी कभी अचानक संन्यासी नहीं हो सकता है। और जो अचानक संन्यासी हो जाएगा, वह धोखे की बातें हैं। वह कपड़े बदल सकता है, संन्यासी नहीं हो सकता। संन्यास जीवन में ग्रोथ है। संन्यास वैसे ही एक विकास है, जैसे कि एक बच्चा जवान होता है, जवान बूढ़ा होता है। एक बच्चा एकदम से सुबह आकर खबर नहीं कर देता कि हम जवान हो गए, एक जवान एकदम से खबर नहीं कर देता कि बूढ़े हो गए। पता भी नहीं चलता कौन कब बूढ़ा हो जाता है। किस दिन, किस क्षण में। नहीं, एक ग्रोथ है। संन्यास भी एक ग्रोथ है। लेकिन हमने जीवन में कंपार्टमेंट बना रखे हैं। तो हमारे हिस्से से एक आदमी कपड़े बदल देता है, दूसरे ढंग के कपड़े पहन लेता है, गेरुआ वस्त्र पहन लेता है, कुछ और पहन लेता है दूसरे कंपार्टमेंट में खड़ा हो जाता है। हम कहते हैं महाराज, तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गए, तुम संन्यासी हो गए।
हुआ क्या है? कपड़े बदल गए हैं। अभी वही संन्यासी कपड़े बदल ले हम कहते हैं, अरे वापस भ्रष्ट हो गए, लौट आओ। अपने इस तरफ लौट आओ। आदर-वादर सब बंद कर देते हैं। सब खत्म, आदर-वादर सब गया।
यह जो सारा हमारा हिसाब है। इस हिसाब में हम चेतना के परिवर्तन पर कोई खयाल भी नहीं कर रहे हैं, कोई जरा सा भी खयाल नहीं कर रहे हैं। मैं आपसे निवेदन करता हूं, कपड़े बदलने से कोई बदलता नहीं और मकान बदल लेने से कोई धार्मिक नहीं होता। घर छोड़ कर भाग जाने से भी कोई धार्मिक नहीं होता है। धार्मिक होता है चेतना में आमूल परिवर्तन से और चेतना में आमूल परिवर्तन वहीं है, जहां जीवन है, जहां पूरा जीवन है। लेकिन चूंकि हमने जीवन को खंड-खंड में किया है।
आप गृहस्थ रहते हैं कि संन्यासी हो जाते हैं, इसका सवाल नहीं है। आप आप आपकी दृष्टि है क्या जीवन को देखने की। आप जीवन को कैसे लेते हैं, आनंद से लेते हैं या दुख से? अगर दुख से लेते हैं? तो आप जीवन के प्रति जो भी करेंगे, वह सुखद नहीं हो सकता। जीवन को आनंद से लें, जीवन को धन्यता से लें, ग्रेटिट्यूड, जीवन को कृतार्थता से लें। और जीवन के प्रति प्रेमपूर्ण, शांतिपूर्ण, जीवन के प्रति अत्यंत निर-अहंकार के भाव से व्यवहार करें, तो आपके भीतर धार्मिक व्यक्ति का जन्म होगा। और हो सकता है कि इस जन्म का परिणाम यह हो कि आप जहां हैं, वहीं आपके जीवन में संन्यास आ जाए। संन्यास आपका आत्मिक परिवर्तन है।
घृणा से भरा हुआ मनुष्य, भेदभाव से भरा हुआ मनुष्य, क्रोध से भरा हुआ मनुष्य, दुख और चिंता से भरा हुआ मनुष्य गृहस्थ है, चाहे वह कैसे ही कपड़े पहने हो। शांति से भरा हुआ व्यक्तित्व, आनंद जिसके हृदय में वीणा बजाता हो, कृतार्थता और धन्यता की सुगंध जिसके जीवन से निकलती हो, शांति से, प्रेम से जो जीता हो, ऐसा मनुष्य कहीं भी हो, कैसा भी हो, किन्हीं भी कपड़ों में हो, वह संन्यासी है, वह धार्मिक है।
धार्मिक होना चित्त का परिवर्तन है। ट्रांसफाॅर्मेशन आॅफ माइंड है। लेकिन हम अभी धर्म को और जीवन को तोड़ कर देखते हैं, इसलिए यह ट्रांसफाॅर्मेशन नहीं हो पाता। इस सुबह और बहुत बातें आपसे नहीं कह सकूंगा। इतनी ही थोड़ी सी बात आपसे मुझे कहनी है, धर्म को जीवन से अलग करके मत देखना। धर्म और जीवन को एक ही जानना। धर्म को और जीवन को दो हिस्सों में खंडित मत करना। धर्म को वस्त्रों के, मकानों के परिवर्तन का नाम मत जान लेना, चेतना का परिवर्तन। और जो लोग वस्त्रों इत्यादि पर बहुत आग्रह रखते हों बदलाहट का, उन्हें शायद इस बात का पता नहीं है कि क्या बदलना है, किसको बदलना है। परिस्थिति नहीं बदलनी है, मनःस्थिति बदलनी है। परिस्थिति नहीं मनःस्थिति, बाहर नहीं भीतर और जब भीतर कोई बदल जाता है, तो बाहर सब अपने आप बदल जाता है और जब भीतर एक ज्योति जगती है शांति की और प्रेम की, तो बाहर का जीवन दूसरा हो जाता है।
मैं प्रार्थना करूंगा कि धर्म के नाम पर अपने को धोखा मत देना। लोग दे रहे हैं, चारों तरफ चल रहा है यह, इसलिए यह प्रार्थना करता हूं। अगर धर्म के नाम पर अपने को धोखा नहीं दिया, तो हर मनुष्य अपने जीवन में एक क्रांति ला सकता है।
सत्य का दर्शन-(प्रवचन-03)
(परिस्थिति नहीं मनःस्थिति)