अखबार में अगर गलत खबरें न हों, तो पढ़ने में रस ही नहीं आता, दुनिया में बहुत बेईमानी हो रही हो, चोरी हो रही हो, हत्याएं हो रही हो, तो हमारी छाती फूल जाती है क्यों कि श्रेष्ठ को स्वीकार करना बड़ा कठिन है “ओशो”

 अखबार में अगर गलत खबरें न हों, तो पढ़ने में रस ही नहीं आता, दुनिया में बहुत बेईमानी हो रही हो, चोरी हो रही हो, हत्याएं हो रही हो, तो हमारी छाती फूल जाती है क्यों कि श्रेष्ठ को स्वीकार करना बड़ा कठिन है “ओशो”

ओशो- हम ऊपर देखने के आदी ही नहीं हैं। हमारी आंखें जमीन में गड़ गई हैं। हमारी आंखें जमीन की कशिश से बंध गई हैं। ऊपर उठाने में हमें आंखों को बड़ी पीड़ा होती है। क्षुद्र को देखकर हम बड़े प्रसन्न होते हैं। उससे हमारी बड़ी सजातीयता है। श्रेष्ठ को देखकर हम बड़े बेचैन होते हैं। उससे हम अपना कोई समझौता नहीं कर पाते, उसके साथ हमें बड़ी अड़चन होने लगती है।

नीत्शे ने कहा है कि अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो मैं उसे तभी बर्दाश्त कर सकता हूं, जब उसी के बराबर के सिंहासन पर मैं भी विराजमान होऊं। और अगर कहीं कोई ईश्वर है, तो मैं इनकार करता ही रहूंगा तब तक, जब तक कि मैं भी उसी ऊंचाई पर न बैठ जाऊं।

इसलिए श्रेष्ठ को स्वीकार करना बड़ा कठिन हो जाता है।यही तो कठिनाई है। अगर कोई आदमी आपसे आकर कहे कि फलां आदमी असाधु है, बेईमान है, चोर है, तो हम बड़ी प्रफुल्लता से स्वीकार कर लेते हैं। कोई आकर कहे कि फलां आदमी साधु है, सज्जन है, संत है, तो कभी आपने खयाल किया है कि आपके भीतर स्वीकार का भाव बिलकुल नहीं उठता। आप कहते हैं कि तुम्हें पता नहीं होगा अभी, पीछे के दरवाजों से भी पता लगाओ कि वह आदमी साधु है? क्योंकि हमने बहुत साधु देखे हैं। तुमने सुन लिया होगा किसी से। कोई दलाल, कोई एजेंट तुम्हें मिल गया होगा साधु का, उसने तुमसे प्रशंसा कर दी। जरा सावधान रहना। इस तरह के जाल में मत फंस जाना।

अगर हम यह न भी कहें, तो यह भाव हमारे भीतर होता है। अगर यह भाव हमें पता भी न चले, तो भी हमारे भीतर होता है। कोई श्रेष्ठ है, इसे स्वीकार करने में बड़ी बेचैनी है। कोई निकृष्ट है, इसे स्वीकार करने में बड़ी राहत है।

जब हमें पता चलता है कि दुनिया में बहुत बेईमानी हो रही है, चोरी हो रही है, हत्याएं हो रही हैं, तो हमारी छाती फूल जाती है। तब हमें लगता है, कोई हर्ज नहीं, कोई मैं ही बुरा नहीं हूं सारी दुनिया बुरी है। और इतने बुरे लोगों से तो मैं फिर भी बेहतर हूं। रोज लोग अखबार पढ़ते हैं, उसमें पहले वे देखते हैं, कहां हत्या हो गई, कहां चोरी हो गई, कौन किस की स्त्री को लेकर भाग गया है। तब वे छाती फुलाकर बैठते हैं कि मैं बेहतर हूं इन सबसे। किसी की स्त्री को भगाने की योजना तो मैं भी करता हूं लेकिन कार्यरूप में कभी नहीं लाता! हत्या करने का मेरे मन में भी कई बार विचार उठता है, लेकिन सिर्फ विचार है। ऐसे तो मैंने किसी को कभी कंकड़ भी नहीं मारा। ऐसे चोरी तो मेरे .मन में भी आती है, लेकिन सपनों में ही आती है; बस्‍तुत: मैं चौर हूं।

अखबार में अगर गलत खबरें न हों, तो पढ़ने में रस ही नहीं आता। इसलिए अखबार साधुओं की कोई खबर नहीं दे सकते, क्योंकि उनको पढ़ने में किसी की कोई उत्सुकता नहीं है। अखबारों को चोरों को खोजना पड़ता है, बेईमानों को खोजना पड़ता है, हत्यारों को, बीमारों को, रूण—विक्षिप्तो को खोजना पड़ता है। इसलिए अखबार अगर निन्यानबे प्रतिशत राजनीतिज्ञों की खबरों से भरा रहता है, तो उसका कारण है, क्योंकि राजनीति में निन्यानबे प्रतिशत चोर और बेईमान और सब हत्यारे इकट्ठे हैं।

लेकिन हमें क्यों रस आता है इतना?

आप भागे चले जा रहे हैं दफ्तर। और रास्ते पर दो आदमी छुरा लेकर लड़ने खड़े हो जाएं, तो आप भूल गए दफ्तर! साइकिल टिकाकर आप भीड़ में खड़े हो जाएंगे। और अगर झगड़ा ऐसे ही निपट जाए; कोई बीच में आकर छुड़ा दे, तो आप बड़े उदास लौटेंगे कि कुछ भी नहीं हुआ। कुछ होने की घड़ी थी, एक्साइटमेंट था, उत्तेजना थी, रस आने के करीब था। कुछ होता; लेकिन कुछ भी नहीं हुआ! कोई नासमझ बीच में आ गया और सब खराब कर दिया। इतना बुराई को देखने का इतना रस क्यों है? बुराई में इतनी उत्सुकता क्यों है?

उसका कारण है। जब भी हमें कोई बुरा दिखाई पड़ता है, हम बड़े हो जाते हैं। जब भी हमें कोई भला दिखाई पड़ता है, हम छोटे हो जाते हैं।

लेकिन जो बड़े को देखने में असमर्थ है, वह परमात्मा को समझने में असमर्थ हो जाएगा। इसलिए जहां भी कुछ बड़ा दिखाई पड़ता हो, श्रेष्ठ दिखाई पड़ता हो, कोई फूल जो दूर आकाश में खिलता है बहुत कठिनाई से, जब दिखाई पड़ता हो, तो अपने इस मन की बीमारी से सावधान रहना। परम ऐश्वर्य को कोई समझ पाए, तो ही आगे गति हो सकती है।

ओशो
गीता दर्शन–भाग–5