हम सड़क पर भीख मांगते आदमी को तो कहते हैं, बुरा है। तेरे पास हाथ-पैर मजबूत हैं, क्यों भीख मांगता है? लेकिन कभी हम अपने संबंध में नहीं सोचते कि मेरी चेतना पूरी ठीक है-फिर मैं क्यों भीख मांग रहा हूं? क्यों कृष्ण के. राम के, बुद्ध के दरवाजे पर खड़ा हूं? “ओशो”
ओशो- जीवन एक अवसर है। जीवन तथ्य नहीं, केवल एक संभावना है–जैसे बीज, बीज में छिपे हैं हजारों फूल, पर प्रकट नहीं–अप्रकट हैं, प्रच्छन्न हैं। बहुत गहरी खोज करोगे तो पा सकोगे। पा लोगे तो जीवन धन्य हो जाएगा। फूलों की सारी सुगंध फिर तुम्हारी है, और उनके सारे रंग भी, और उनकी कोमलता, और उनका सौंदर्य, और उनसे प्रकट होने वाली परमात्मा की अनुभूति।
फूल तो नृत्य हैं अस्तित्व के। फूल तो आकांक्षा हैं पृथ्वी की आकाश के तारों को छू लेने के लिए। लेकिन जो बीज ही रह जाए, वह अभागा है–हुआ भी और न भी हुआ; व्यर्थ ही हुआ। होने और न होने में क्या भेद? अगर बीज ही रह जाना है, तो न भी होते तो भी चल जाता। अंतर तो तब पड़ेगा जब वसंत आएगा। अंतर तो तब पड़ेगा जब फूल हवाओं में और सूरज की किरणों में नाचेंगे। अंतर तो तब पड़ेगा जब मधुमक्खियां और तितलियां उनके पास गीत गाएंगी। उस रास से अंतर पड़ेगा। फूल की बांसुरी पर जब पक्षी अपनी धुन बिठाने लगेंगे, तब बीज को पता चलेगा कि मैं वस्तुतः क्या था। वह नहीं था जो दिखाई पड़ता था; वह था जो कभी दिखाई नहीं पड़ता था। दृश्य नहीं था, अदृश्य था।
लेकिन स्मरण रहे कि बीज को तोड़ कर तुम फूल नहीं पा सकते हो। बीज को खंड-खंड करके फूल पाना तो दूर, फूलों की संभावना भी समाप्त हो जाएगी।
और तर्क यही करता है–बीज को तोड़ता है, टुकड़े-टुकड़े करता है, इस आशा में…आशा पर संदेह नहीं, मंशा पर संदेह नहीं, भावना बुरी नहीं, मगर भ्रांत है, मूढ़ है, अंधी है। तर्क बीज को तोड़ता है; सोचता है छिपे हैं फूल भीतर, जैसे तिजोड़ियों में खजाने छिपे होते हैं। तोड़ो तिजोड़ी, खजाने मिल जाएंगे। लेकिन फूल यूं नहीं छिपे होते।
इसलिए तर्क आदमी में खोजने चलता है, लेकिन परमात्मा को नहीं पाता। आदमी को तोड़ लेता है, हड्डी-मांस-मज्जा पाता है, और कुछ भी नहीं। इससे तो न तोड़ा आदमी ही बेहतर था; कम से कम चमड़ी के भीतर व्यर्थ का कचरा तो छिपा था। तर्क उसको भी उघाड़ देता है। घाव भरते नहीं और मवाद बाहर आ जाती है। फूल तो उगते नहीं; फूल तो दूर, कांटों की संभावना तक असंभव हो जाती है। तर्क इस पृथ्वी पर सबसे अधार्मिक वस्तु है।
इसलिए जो लोग धर्म के पक्ष में तर्क देते हैं, उनसे ज्यादा मूढ़ और कोई भी नहीं। विक्षिप्त हैं वे लोग। धर्म की खोज प्रेम की खोज है। प्रेम का रास्ता बिलकुल ही भिन्न है।
बीज को तोड़ना नहीं है, गहरी जमीन देनी है। जमीन से पत्थर, कंकड़, कूड़ा-करकट अलग करना है। जमीन को इस योग्य बनाना है कि बीज को आत्मसात कर ले। खाद देनी है। पानी देना है। सूरज की किरणें तो आ ही रही हैं, उन्हें बीज तक पहुंचने देना है। सूरज का उत्ताप अत्यंत जरूरी है ताकि बीज में छिपा हुआ जीवन गतिमान हो सके, सूरज की अग्नि जरूरी है ताकि बीज के भीतर छिपी अग्नि को आह्वान मिल सके, चुनौती मिल सके। सूरज बाहर द्वार पर दस्तक देता है और भीतर बीज के क्रांति मचनी शुरू हो जाती है।
मिट्टी पचा लेगी बीज के अहंकार को। क्योंकि बीज के चारों तरफ जो पर्त है, वही अहंकार है। उसी के कारण बीज के और अस्तित्व के बीच में बाधा है, अवरोध है, दीवाल है। बीज जैसे बंदी है। जैसे उसके हाथ और पैरों पर जंजीरें हैं। मिट्टी पचा लेगी बीज की जंजीरों को। मिट्टी से ही बनी हैं, इसलिए पचाना कठिन नहीं। बीज के चारों तरफ खड़ी दीवालों को मिट्टी आत्मसात कर लेगी, आत्मलीन कर लेगी। और बीज में बंद आत्मा को मुक्त कर देगी।
वही आत्मा फूल बनती है। वही आत्मा सुगंध बनती है। वही आत्मा आकाश की तरफ उठने लगती है। फिर उसे पूजा कहो, प्रार्थना कहो, ध्यान कहो या जो मर्जी हो वह कहो। नाम सब गौण हैं।
एक बात स्मरण रखना, कुछ चीजें हैं जो हमेशा जीवन में नीचे की तरफ जाती हैं; और कुछ चीजें हैं जो हमेशा ऊपर की तरफ जाती हैं। जैसे दीये की लौ हमेशा ऊपर की तरफ जाती है; फूल की सुगंध हमेशा आकाश की तरफ पंख फैलाती है। जैसे ही बीज टूटता है–तर्क से नहीं, भूमि में समर्पित होकर–गलता है अपनी मर्जी से, अपनी अभीप्सा से, वैसे ही क्रांति घट जाती है। एक नये जीवन का सूत्रपात होता है। अगर बीज को तुम गिराओ पहाड़ से तो नीचे की तरफ जाएगा और सुगंध ऊपर की तरफ जाएगी। मिट्टी का दीया नीचे की तरफ जाएगा, लेकिन मिट्टी के दीये में जलती हुई ज्योति सूरज की तलाश करेगी; सूरज ही उसका स्रोत है। दीये में दो का मिलन हो रहा है–आकाश का और पृथ्वी का। बीज में भी दो का मिलन हो रहा है–अदृश्य का और दृश्य का। दृश्य पर मत अटक जाना।