शब्द से ज्यादा गहराई में दूसरे सिंबल्स पहुंचते हैं जैसे, हो सकता है कि मैं आपसे एक बात न कह पाऊं, लेकिन मैं उठूं और आपको गले से लगा लूं क्यों कि स्पर्श जो है वह शब्द से बहुत पुराना है

 शब्द से ज्यादा गहराई में दूसरे सिंबल्स पहुंचते हैं जैसे, हो सकता है कि मैं आपसे एक बात न कह पाऊं, लेकिन मैं उठूं और आपको गले से लगा लूं क्यों कि स्पर्श जो है वह शब्द से बहुत पुराना है

नई कला (माडर्न आर्ट) बिलकुल ही अजूबा हो गई है। इसमें कलाकार क्या अभिव्यक्त करना चाहता है?

ओशो- असल में अगर ठीक से हम देखें तो सारी कलाएं जैसे-जैसे सत्य को बताने की दिशा में आगे बढ़ेंगी, वैसे-वैसे सत्य को बताने में तो समर्थ न होंगी; जो कुछ बता पा रही थीं उसको भी बताने में असमर्थ हो जाएंगी। वैसे हुआ है, हो रहा है। नई मूर्ति है या नई पेंटिंग है या नई कविता या नया संगीत है, चेष्टा है इस बात की कि व जो फार्म बाधा डालता है, वह जो आकार और वह आकृति और वह जो मीडियम बाधा डालता है, उससे हम मुक्त होकर इतना ट्रांसपेरेंट हो सकें कि वह बाधा न डाले, बल्कि मार्ग बन जाए। लेकिन परिणाम क्या होता है?परिणाम यह होता है कि वह बाधा डालता है। अगर उससे हम मुक्त होने की कोशिश करते हैं तो हम मुक्त तो हो जाते हैं, लेकिन तब वह ट्रांसपेरेंसी ही रह जाती है, उससे कुछ आगे आर-पार कुछ दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि वह जो दिखाई पड़ता था वह आकार ही था। मैं इस तरह के शब्दों का उपयोग कर सकता हूं जो बाधा न डालें। मगर वे सब शब्द अर्थहीन होंगे, ‘ओम्’ जैसे शब्द होंगे, उनका कोई मतलब नहीं है। हमने बहुत पहले इसका प्रयोग किया था इसीलिए कि यह अर्थहीन है। इसका उपयोग करो, क्योंकि जितने अर्थहीन शब्द हैं सब उपयोग में आकर झंझट में डाल देते हैं और फिर उनसे झंझट नहीं सुलझती। अब यह ‘ओम्’ है, इसका उच्चारण कर दो, इसका कोई अर्थ नहीं है, इससे कुछ इंगित नहीं होता और इससे हम यह इंगित कर रहे हैं कि कुछ है, जो शब्दों के बाहर है। उसके लिए हमने यह शब्द चुना, लेकिन उससे भी क्या फर्क पड़ता है, कितने ही ‘ओम्’ कहते रहो, उससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता, उसका भी इंगित कहीं नहीं हो पाता।

लेकिन वह मंत्र-शास्त्री कहेंगे कि इसका कोई और कारण है उपयोग का?वह मंत्र-शास्त्री से बात करनी चाहिए। मैं तो यहां यह कह रहा हूं कि नई कलाएं इस तरह के उपयोग कर रही हैं जो एब्सर्ड हैं। इस तरह की मूर्तियां बन रही हैं जिनको आप किसी की मूर्ति नहीं कह सकते। अगर आदमी की मूर्ति बनानी है तो ऐसी ही बनानी पड़ेगी कि उसमें किसी का चेहरा न आए, क्योंकि किसी का भी आ जाएगा तो वह किसी का हो जाएगा। आदमी का नहीं रह जाएगा।

अब आदमी की अगर मूर्ति बनानी है तो उसमें मेरा चेहरा नहीं होना चाहिए, आपका चेहरा नहीं होना चाहिए, उसमें किसी का चेहरा नहीं होना चाहिए। उसमें कोई पर्टीकुलर चेहरा हुआ कि वह किसी आदमी का हो जाएगा, आदमियत का न रह जाएगा। तो हम एक ऐसी मूर्ति बनाएं, जिसमें किसी का चेहरा न हो–बन जाएगी ऐसी मूर्ति, लेकिन हम सोचते थे कि वह आदमियत की बन जाएगी, लेकिन वह एक आदमी की भी न रह जाएगी। जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि आदमियत की तो बनेगी नहीं, वह जो एक आदमी की बन सकती थी, वह भी नहीं बनेगी अब, अब वहां से भी विदा हो जाएगी, वह फेसलेस हो जाएगी। आदमियत की बनाने में सिर्फ चेहरा खो जाएगा और ऐसे ही हुआ है।

इसलिए नई कला के सारे के सारे प्रयोग फेसलेसनेस की तरफ हैं। सब चेहरे खो गए हैं वहां और सब हमारी समझ के बाहर हो गया है। और जो लोग कहते हैं कि हमारी समझ में आ रहा है, वे या तो फैशन की वजह से कहते हैं या इस वजह से कहते हैं कि वे नहीं तो बुद्धिहीन मालूम पड़ेंगे। बाकी नई कला के सारे आयाम, सारे डाइमेन्शंस ऐसे हैं कि वे आपको समझ में नहीं आ रहे हैं, न आना चाहिए। कोशिश यह है कि समझ में आ गए, तो अर्थ पकड़ में आ गया आपके और अर्थ अगर पकड़ में आ गया आपके, तो आकार पकड़ में आ गया, फार्म हो गया, बात खत्म हो गई। नहीं, जो समझ में नहीं आ रहा है, यही तो सारी चेष्टा है कि समझ में आपके न आ जाए, लेकिन समझ में आने वाले शब्द से भी नहीं बता पाते थे, नासमझ में आने वाले शब्द से क्या बता पाएंगे? यानी मैं यह कह रहा हूं कि जब समझ में आने वाला शब्द ही नहीं बता पाता तो समझ में न आने वाला शब्द भी नहीं बता पाएगा। इसका मेरा मतलब क्या है?

मेरा मतलब यह है कि यदि हमें बुद्धि की पूरी की पूरी असमर्थता का बोध हो जाए, उसमें जरा भी आशा नहीं रह जाए! ‘होपिंग अगेंस्ट होप’ चल रही है, बहुत दिनों से वह चलती जाती है। कुछ लोग छिटक जाते हैं रास्ते के किनारे और वे कह देते हैं होपलेस हो गया मामला, उनकी बात अलग है। लेकिन आमतौर से हम आशा बांधे चले जाते हैं कि कोई रास्ता खोज लेंगे। अगर कालिदास नहीं खोज पाए तो इजरा खोज लेंगे। अगर हमारे मूर्तिकार पुराने नहीं खोज पाए, तो पिकासो खोज लेगा। हम कोशिश में लगे हैं कि कोई न कोई रास्ता खोज लेंगे कि जो न कह जाने जैसा वह है, वह हम कह देंगे।मैं यह कह रहा हूं कि जिस दिन किसी व्यक्ति को यह समझ में आ जाता है कि यह मामला ‘ए.ज सच एब्सर्ड है’, यानी यह सवाल नहीं है कि हम और किसी तरकीब से कह देंगे, सवाल यह है कि कहा ही नहीं जा सकता। यह सवाल नहीं है कि हम कोई और अच्छे शब्द खोज लेंगे–अच्छी आकृति, अच्छी कविता, अच्छी पेंटिंग–नहीं, यह सवाल नहीं है। जो है, वह कहा जाने योग्य भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि आज तक नहीं कहा गया, आगे कहा जा सकेगा। नहीं, वह कहा ही नहीं जा सकता। वह जो रियलिटी जिसको आप कह रहे हैं वह कही नहीं जा सकती। तब इसका मतलब यह है कि वह सिर्फ जानी जा सकती है और तब जानने और कहने के फर्क और फासले को समझ लेना उपयोगी होगा। वह जो नहीं कहा जा सकता वह भी माना जा सकता है।

हमारी क्या तकलीफ है कि हम यह कोशिश में लगे हैं कि जो जाना जा सकता है वह कहा भी जाना चाहिए। हमारी जो सारी तकलीफ है वह इसी वजह से है। जैसे बुद्ध कहते हैं, मैंने जाना निर्वाण। तो हम यह पूछते हैं कि कहो, क्या है निर्वाण? एक आदमी कहता है, मैंने ईश्वर को जाना, तो हम यह पूछते हैं कि बोलो, फिर क्या है ईश्वर? अगर वह नहीं बोल पाता तो हम हंसते हैं, हम कहते हैं, फिर जाना ही नहीं होगा, क्योंकि अगर जाना हो तो बोलो और अगर नहीं बोल सकते हो, तो स्वीकार कर लो कि नहीं जाना, क्योंकि जो जाना गया है वह बोला क्यों नहीं जा सकता है!

मैं यह कह रहा हूं, यह बात जरूर सच है। एक मानवीय जरूरत है, एक बुनियादी जरूरत है कि जो हमने जाना है वह हम कहना चाहते हैं, क्योंकि जो हमने जाना है उसमें हम दूसरे को साझीदार बनाना चाहते हैं। अगर मैं घर के पीछे गया और वहां एक फूल खिला देखा है, जिससे मैं नाचने लगा और आनंदित हो गया, तो मैं लौट कर मित्रों से कह देना चाहता हूं कि पीछे एक फूल खिला है, वह बहुत आनंदकर है यानी आनंद का एक हिस्सा बांटना भी है। दुख का एक हिस्सा न बांटना भी है। अगर मैं दुखी हूं तो चाहूंगा कोई न आए। दुख सिकोड़ देता है। और अगर मैं आनंदित हुआ हूूं, तो मैं बांट देना चाहता हूं, फैल जाना चाहता हूं, और दस लोगों को खबर कर देना चाहता हूं। बिलकुल स्वाभाविक है कि जो आदमी जाने वह उसे कहने जाए, वह उसकी एक बेसिक जरूरत है, लेकिन हमारी सब जरूरतें जरूरी नहीं हैं कि पूरी हों। हमारी बुनियादी जरूरतें भी पूरी हों यह भी जरूरी नहीं है।हम जानते हैं और हम कहना भी चाहते हैं और कहने की कोशिश में हम सिंबल्स भी खोजते हैं, क्योंकि बिना उसके तो कोई उपाय नहीं कहने का। हम सिंबल्स खोजते हैं। प्रतीक जो है, वह हमारी चेष्टा है उसको बताने की, जो हमने जाना, लेकिन हमारी चेष्टा सफल नहीं हो पाती। कला असफल है, काव्य असफल है, मूर्ति असफल है, सब असफल है और जितना बड़ा मूर्तिकार होगा उतनी बड़ी असफलता अनुभव करेगा और जितना बड़ा कवि होगा उतनी असफलता अनुभव करेगा और जितना बड़ा संत होगा उतनी असफलता अनुभव करेगा। छोटा होगा तो उतनी असफलता अनुभव नहीं करेगा। अगर उधार अनुभव को दोहराना है तो बराबर शब्द कह सकते हैं; लेकिन आपका ही अगर अनुभव हुआ है तो आप पहली दफा पाएंगे कि कोई शब्द ही नहीं है, क्योंकि वह अनुभव आपका है और आप पहली दफा हुए हैं जमीन पर और कोई शब्द नहीं है, क्योंकि आप जैसा अनुभव किसी को कभी नहीं हुआ है। हां, अगर कोई उधार अनुभव हुआ है कि अगर स्त्री के चेहरे में आपको भी चांद दिखा है, तो कालिदास से लेकर सब उसको कहते रहे हैं चांद देखने को। आप भी एक कविता बना सकते हैं, जिसमें स्त्री के चेहरे में चांद दिख जाए, लेकिन वह अनुभव बहुत अधूरा, बासा और सेकेंड हैंड है। हजार हाथ से गुजरा हुआ अनुभव है। आप कह पाते हैं और दूसरा भी समझ पाता है, क्योंकि वह सबका अनुभव है।लेकिन जितना अनुभव निजी होता जाएगा और जितना गहरा होगा उतना निजी होगा। और परमात्मा का अनुभव चूंकि आत्यंतिक चरम अनुभव है, उससे गहरा कोई अनुभव नहीं है। यह नितांत निजी है, यानी वह पहली दफा आपको ही हो रहा है आपके जैसा, वैसे पहले कभी किसी को नहीं हुआ। उस गहराई में आप कोई शब्द नहीं पाते हैं और कोई सिंबल नहीं पाते हैं, बनाने की कोशिश करते हैं। जब आप बनाने की कोशिश करते हैं तभी उपद्रव शुरू होता है, क्योंकि आप कहते हैं, समझा कुछ और जाता है, आप बताते कुछ हैं और सुना कुछ जाता है और तब एक उपद्रव शुरू हो जाता है जो हजारों साल तक चलता है। जैसे कृष्ण की गीता है। अभी टीका चल रही है। उसका मतलब यह है कि जो उन्होंने कहा था वह अभी तक नहीं समझा गया। टीका की अब कोई जरूरत नहीं है। सैकड़ों-हजारों टीकाएं लिखी गई हैं और अभी टीकाएं लोग लिखे चले जा रहे हैं, यानी मामला यह है कि बेचारे महापुरुष जो बोले थे वह अभी तक उपद्रव में पड़ा है कि वे क्या बोले थे! इस पर टीका चल रही है कि वे यह बोले थे।

गांधी कहते थे, वे यह बोले; तिलक कहते, वे यह बोले; विनोबा यह कहते हैं…! हजारों लोग बता रहे हैं कि वे क्या बोले थे। और मजा यह है कि जब वे बोले और हम नहीं समझ पाए, तो विनोबा या गांधी या तिलक के कहने से हम क्या समझेंगे? और उन पर टीकाएं चलेंगी कि तिलक बोले, उसका क्या मतलब है; और इसका कोई अंत नहीं है। फिर भी शब्द से ज्यादा गहराई में दूसरे सिंबल्स पहुंचते हैं। जैसे, हो सकता है कि मैं आपसे एक बात न कह पाऊं, लेकिन मैं उठूं और आपको गले से लगा लूं। और कोई बात कह नहीं सकता क्योंकि शरीर जो है, स्पर्श जो है वह शब्द से बहुत पुराना है। क्रमशः…..

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३