अगर व्यक्तित्व की बुनियादी लयबद्धता नहीं है…तो अदभुत परिवर्तन होते हैं! शायद आपको पता नहीं होगा, स्त्री पुरुषों से ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है?

 अगर व्यक्तित्व की बुनियादी लयबद्धता नहीं है…तो अदभुत परिवर्तन होते हैं! शायद आपको पता नहीं होगा, स्त्री पुरुषों से ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है?

ओशो- पहली तो बात यह है कि हमने हजारों साल से प्रेमपूर्ण विवाह बंद कर दिए हैं और विवाह हम बिना प्रेम के कर रहे हैं। जो विवाह प्रेम के बिना होगा उस दंपति के बीच कभी भी वह आध्यात्मिक संबंध उत्पन्न नहीं होता जो प्रेम से संभव था। उन दोनों के बीच कभी भी वह हार्मनी, कभी भी वह एकरूपता और संगीत पैदा नहीं हो सकता जो एक श्रेष्ठ आत्मा के जन्म के लिए जरूरी है। उनका प्रेम केवल था, रहने की वजह से पैदा हो गया, एक साहचर्य होता है। उनके प्रेम में वह आत्मा का आंदोलन नहीं होता जो दो प्राणों को एक कर देता है। प्रेम के बिना जो बच्चे पैदा होते हैं पृथ्वी पर, वे बच्चे प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते, वे देवता जैसे नहीं हो सकते, उनकी स्थिति भूत-प्रेत जैसी होगी, उनका जीवन घृणा भर देगा और हिंसा का ही जीवन होगा। जरा सी बात फर्क पैदा करती है, अगर व्यक्तित्व की बुनियादी हार्मनी, अगर व्यक्तित्व की बुनियादी लयबद्धता नहीं है…तो अदभुत परिवर्तन होते हैं!
शायद आपको पता नहीं होगा, स्त्री पुरुषों से ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है? शायद आपको खयाल न होगा, स्त्री के व्यक्तित्व में एक राउंडनेस, एक सुडौलता क्यों दिखाई पड़ती है? वह पुरुष के व्यक्तित्व में क्यों नहीं दिखाई पड़ती? शायद आपको खयाल में न होगा कि स्त्री के व्यक्तित्व में एक संगीत, एक नृत्य, एक इनर डांस, एक भीतरी नृत्य क्यों दिखाई पड़ता है जो पुरुष में दिखाई नहीं पड़ता है। एक छोटा सा कारण, बहुत बड़ा कारण नहीं है। एक छोटा सा, इतना छोटा है कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इतने छोटे से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो जाता है। मां के पेट में जो बच्चा निर्मित हो जाता है, उस पहले अणु में चौबीस जीवाणु पुरुष के होते हैं और चौबीस जीवाणु स्त्री के होते हैं। अगर चौबीस-चौबीस के दोनों जीवाणु मिलते हैं तो अड़तालीस जीवाणुओं का पहला सेल निर्मित होता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है वह स्त्री का शरीर बन जाता है। उसके दोनों बाजू चौबीस-चौबीस सेल के होते हैं, बैलेंस, संतुलित। पुरुष का जो जीवाणु होता है वह सैंतालीस जीवाणुओं का होता है। एक तरफ चौबीस होते हैं, एक तरफ तेईस। बस यह बैलेंस टूट गया, वहीं से व्यक्तित्व का। संतुलन टूट गया वहीं से व्यक्तित्व का—हार्मनी टूट गई।
स्त्री के दोनों पलड़े व्यक्तित्व के बराबर संतुलन के हैं। उससे सारा स्त्री का सौंदर्य, उसकी सुडौलता, उसकी कला, उसके व्यक्तित्व का रस, उसके व्यक्तित्व का काव्य पैदा होता है। और पुरुष के व्यक्तित्व में जरा सी कमी है, तो उसका एक तराजू चौबीस जीवाणुओं से बना हुआ है। मां से जो जीवाणु मिलता है वह चौबीस का बना हुआ है और पुरुष से जो मिलता है वह तेईस का बना हुआ है।
पुरुष के जीवाणुओं में दो तरह के जीवाणु होते हैं, चौबीस कोष्ठधारी और तेईस कोष्ठधारी। तेईस कोष्ठधारी जीवाणु अगर मां के चौबीस कोष्ठधारी जीवाणु से मिलता है तो पुरुष का जन्म होता है। इसलिए पुरुष में एक बेचैनी जीवन भर बनी रहती है, एक इंटेंस डिसकंटेंट बना रहता है। क्या करूं…क्या करूं, एक चिंता, एक बेचैनी, यह कर लूं, यह कर लूं, वह कर लूं। पुरुष की जो बेचैनी है वह एक छोटी सी घटना से शुरू होती है और वह घटना है कि उसके एक पलड़े पर एक अणु कम है। उसका बैलेंस, व्यक्तित्व कम है। स्त्री का बैलेंस है, स्त्री की हार्मनी पूरी है, उसकी लयबद्धता पूरी है।
इतनी सी घटना इतना फर्क लाती है। हालांकि इससे स्त्री सुंदर तो हो सकी लेकिन स्त्री विकासमान नहीं हो सकी, क्योंकि जिस व्यक्तित्व में समता है वह विकास नहीं करता, वह ठहर जाता है। पुरुष का व्यक्तित्व विषम है। विषम होने के कारण वह दौड़ता है, विकास करता है, एवरेस्ट चढ़ता है, पहाड़ पार करता है, चांद पर जाएगा, तारों पर जाएगा, खोज बीन करेगा, सोचेगा, ग्रंथ लिखेगा, धर्म निर्माण करेगा। स्त्री यह कुछ भी नहीं करेगी। न वह एवरेस्ट जाएगी, न वह चांद-तारों पर जाएगी, न वह धर्मों की खोज करेगी, न ग्रंथ लिखेगी, न विज्ञान की शोध करेगी। वह कुछ भी नहीं करेगी। उसके व्यक्तित्व में एक संतुलन उसे पार होने के लिए तीव्रता से नहीं भरता है। पुरुष ने सारी सभ्यता विकसित की, एक छोटी सी बात के कारण, उसमें एक अणु कम है। और स्त्री ने सारी सभ्यताएं विकसित नहीं की, उसमें एक अणु पूरा है। उतनी सी घटना व्यक्तित्व का भेद ला सकती है। मैं इसीलिए यह कह रहा हूं कि यह तो बायोलॉजिकली है, यह तो जीव शास्त्र कहेगा, इतना सा फर्क, इतने भिन्न व्यक्तित्वों को जन्म दे देता है और गहरे फर्क हैं और इतने डिफरेंस हैं।
तो पुरुष और स्त्री के मिलने पर जिस बच्चे का जन्म होता है वह उन दोनों व्यक्तियों में कितना गहरा प्रेम है, कितनी आध्यात्मिकता, कितनी पवित्रता है, कितने प्रेयरफुल, कितने प्रार्थनापूर्ण हृदय से वे एक दूसरे के पास आए हैं इस पर निर्भर करेगा कि कितनी ऊंची आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है, कितनी विराट आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है, कितनी महान दिव्य चेतना उस घर में अपना आवास बनाती है, यह इस पर निर्भर करेगा।
मनुष्य-जाति क्षीण और दीन, दरिद्र और दुखी होती चली जा रही है। उसके बहुत गहरे में कारण मनुष्य-दांपत्य का विकृत होना है और जब तक हम मनुष्य के दांपत्य जीवन को स्वीकृत नहीं कर लेते, जब तक उसे हम स्प्रिचुअलाइज नहीं कर लेते तब तक हम मनुष्य के भविष्य में सुधार नहीं कर सकते। और इस दुर्भाग्य में उन लोगों का भी हाथ है जिन लोगों ने गृहस्थ जीवन की निंदा की है और संन्यास जीवन का बहुत ज्यादा शोरगुल मचाया है, उनका हाथ है। क्योंकि एक बार जब गृहस्थ जीवन कंडेम्ड हो गया, निंदित हो गया तो उस तरफ हमने विचार करना छोड़ दिया। नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं, संन्यास के रास्ते से बहुत थोड़े लोग ही परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। बहुत थोड़े से लोग, कुछ विशिष्ट तरह के लोग, कुछ अत्यंत भिन्न तरह के लोग संन्यास के रास्ते से परमात्मा तक पहुंचते हैं। अधिकतम लोग गृहस्थ के रास्ते से और दांपत्य के रास्ते से ही परमात्मा तक पहुंचते हैं। और आश्चर्य की बात यह कि गृहस्थ के मार्ग से पहुंच अत्यंत सरल और सुलभ है, लेकिन उस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया।
आज तक सारा धर्म संन्यासियों के अति प्रभाव से पीड़ित है। आज तक का पूरा धर्म गृहस्थ के लिए विकसित नहीं हो सका और अगर गृहस्थ के लिए धर्म विकसित होता तो हमने जन्म के पहले चरण में विचार किया होता कि कैसी आत्मा को आमंत्रित करना है, कैसी आत्मा को पकड़ना है, कैसी आत्मा को प्रवेश देना है जीवन में। अगर धर्म की ठीक-ठीक शिक्षा हो सके और एक-एक व्यक्ति को धर्म का विचार, कल्पना और भावना दी जा सके तो बीस वर्षों में आने वाले मनुष्य की पीढ़ी को बिलकुल नया बनाया जा सकता है।
वह आदमी पापी है जो आने वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण आमंत्रण भेजे बिना भोग में उतरता है। वह आदमी अपराधी है, उसके बच्चे नाजायज हैं, चाहे उसने बच्चे विवाह के द्वारा पैदा किए हों। जिन बच्चों के लिए उसने अत्यंत प्रार्थना और पूजा से और परमात्मा को स्मरण करके नहीं बुलाया है, वह आदमी अपराधी है, वह अपराधी रहेगा। कौन हमारे भीतर प्रविष्ट होता है इस पर निर्भर करता है सारा भविष्य। हम शिक्षा की फिकर करते हैं, हम वस्त्रों की फिकर करते हैं, हम बच्चों के स्वास्थ्य की फिकर करते हैं, लेकिन बच्चे की आत्मा की फिकर हम बिलकुल ही छोड़ दिए हैं। इससे कभी भी कोई अच्छी मनुष्य-जाति पैदा नहीं हो सकती। इसलिए यह बहुत फिकर न करें कि दूसरे के शरीर में कैसे प्रवेश करें। इस बात की फिकर करें कि आप इस शरीर में ही कैसे प्रवेश कर गए।
इस संबंध में भी एक मित्र ने पूछा है कि क्या हम अपने अतीत जन्मों को जान सकते हैं? क्रमशः…….

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३