तृष्णा की दौड़ में सिर्फ नए-नए नर्क निर्मित होते हैं

 तृष्णा की दौड़ में सिर्फ नए-नए नर्क निर्मित होते हैं

ओशो- जो समझदार है, धीर है, जो बुद्धिमान है, वह इस सत्य को देख लेता है कि तृष्णा की दौड़ में सिर्फ नए-नए नर्क निर्मित होते हैं। जो धीर है, जो बुद्धिमान है, वह इस सत्य को देख लेता है कि मैं जैसा हूं, जहां हूं, उसी में तृप्त हो जाऊं, तो यहीं स्वर्ग बरस जाता है।तुम जरा प्रयोग करके देखो। ये बातें प्रयोग की हैं। तुम जो हो, जैसे हो, जहां हो, एक क्षण को समग्र स्वीकार कर लो कि इससे अन्यथा की मेरी कोई चाह नहीं। अचानक तुम पाओगे: आकाश खुल गया, बादल छंट गए। अचानक तुम पाओगे: दुख नहीं रहा। दुख हो कैसे सकता है फिर! उस संतुष्टि में दुख समाप्त हो जाता है।स्वर्ग तुम बनाते, नर्क तुम बनाते। नर्क तुम बनाते तृष्णा से; तृष्णा से मुक्त होकर स्वर्ग बन जाता है। तुम्हारी मर्जी; तुम अगर नर्क ही चाहते हो, तो बनाते रहो, लेकिन फिर रोओ मत। फिर कहो मत कि मैं दुखी क्यों हूं! फिर तुम्हारा संकल्प है। फिर तुम्हारी स्वतंत्रता है। फिर कहो मत कि दुखी क्यों हूं!

लेकिन मजा यह है कि दुख तुम निर्मित करते हो और फिर रोते-चिल्लाते हो कि मैं दुखी क्यों हूं! जैसे कि कोई और का जिम्मा है तुम्हें सुखी करने का! मंदिर में जाकर भगवान को कहते हो कि मुझे सुखी बनाओ। मैं दुखी क्यों हूं? मुझे दुखी क्यों बनाया? जैसे उसका जिम्मा है!

कोई जिम्मेवार नहीं है। बुद्ध के इस वचन को स्मरण रखना: तुम्हारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है। तुम जो हो, तुम्हीं जिम्मेवार हो। यह सत्य तुम्हारे हृदय में बैठ जाए, तो इसी क्षण क्रांति शुरू हो जाए। तब तुम दुख के जिम्मेवार हो। अगर तुम दुख ही चाहते हो, दुख बनाए चले जाओ। कोई तुम्हें रोकता नहीं। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है।अगर तुम सुख चाहते हो, तो इस सत्य को समझो कि दुख कैसे पैदा होता है! तृष्णा से पैदा होता है। तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं, तो तुम दुखी। क्योंकि तुम कहते हो, जब तक लाख न हो जाएं, कोई कैसे सुखी हो सकता है! लाख हो जाएंगे, तुम सोचते हो, सुखी हो जाओगे! जब लाख हो जाएंगे, तब दस लाख मन मांगेगा, क्योंकि मन का अनुपात वही रहेगा। दस हजार था, तो लाख मांगता था–दस गुना। जब लाख हो जाएंगे, मन दस लाख मांगेगा। फिर तुम दुखी रहोगे।

तुम्हारे और मन की अपेक्षा में कभी तालमेल होने वाला नहीं है। दस लाख हो जाएंगे, तो फिक्र मत करना तुम कि कुछ फर्क पड़ने वाला है। करोड़ मांगेगा मन। मन का अंतर उतना ही रहेगा। मन तुम से आगे छलांग लगाता हुआ चलता है। तुम जहां हो, वहां से दस कदम आगे होगा। वह कहेगा: यहां आ जाओ, तो सुख हो जाएगा।मन तुम्हारे दुख को बनाए चला जाता है। तुमसे दस कदम आगे होता है, तुम हमेशा लक्ष्य से दस कदम पीछे होते हो, इसलिए दुख है। दस कदम पीछे का दुख! अब क्या करें?

एक ही उपाय है कि तुम जहां हो, वहीं उसी अवस्था को स्वीकार कर लो। बुद्ध उसे कहते हैं–तथाता। स्वीकार कर लो। जैसा है, ठीक है। और यह ठीक है–ऐसा किसी जबर्दस्ती से मत कर लेना, नहीं तो कुछ फायदा नहीं। भीतर तो मन जाल बुनता ही रहेगा। इसलिए धीरता से, समझ से, बुद्धि से, प्रज्ञा से, समझकर रुकना।

नहीं तो अक्सर लोग सांत्वना कर लेते हैं कि ठीक है। अब जो नहीं मिलता, जाने दो। अपनी सामर्थ्य भी नहीं है। अब ज्यादा झंझट में कौन पड़े? जितना है, इतने से राजी हो जाओ। मगर यह सांत्वना है, संतोष नहीं। सांत्वना में तुम सुखी न हो जाओगे। तुम असंतोष के नए रास्ते खोज लोगे।

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम सब तरह से संतोष में जीते हैं, फिर भी सुख नहीं है!

अब यह हो ही नहीं सकता। यह असंभव है। जैसे आग गरम है, उसका स्वभाव है। ऐसे संतोष का स्वभाव सुख है। यह हो ही नहीं सकता।

वे कहते हैं: हम संतोष में जीते हैं, लेकिन फिर भी सुख नहीं है। और बेईमान सुखी हैं। और चोर, और तस्कर, और राजनेता, सब तरह के बेईमान मजा कर रहे हैं, और हम संतोषी! और हम भगवान की पूजा भी करते हैं, भजन भी करते हैं। चोरी नहीं करते। झूठ नहीं बोलते। बेईमानी नहीं करते। किसी को धोखा नहीं देते। किसी से झंझट नहीं लेते। अपने रास्ते आते, अपने रास्ते जाते। और हम सुखी नहीं हैं? तो क्या कारण होगा?

सांत्वना को ये संतोष समझ रहे हैं। इनका इरादा यह है कि बेईमान को जो बेईमानी करने से मिल रहा है, वह इनको संतुष्ट होने से मिलना चाहिए! तो फिर बेचारा बेईमान इतना कष्ट मुफ्त ही भोग रहा है! तुम कष्ट भी नहीं भोगना चाहते, उपलब्धि भी वही करना चाहते हो जो बेईमान कर रहा है।तुम चाहते हो कि हम अपने घर में भजन-कीर्तन करते हैं, हम को लोग प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाते! मोरारजी भाई को क्यों बनाते हैं? तो बयासी साल हजार तरह की झंझटें भी झेलनी पड़ती हैं। कितनी धक्का-मुक्की! कहां-कहां से खींचे जाते! कहां-कहां से निकाले जाते! कहीं कामराज योजना; कहीं कुछ; कहीं कुछ!

मगर कुछ लोग जिद्द ही कर लेते हैं। वे कहते हैं: चाहे सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा घुसकर देखेंगे; पर देखेंगे। चाहे कितनी पिटाई हो, मगर जाकर बीच में ही तमाशा देखना है।

तुम चाहते हो कि तुम अपने घर में बैठे रहो और शंकरजी के सामने घंटी बजाते रहो और तुम को लोग प्रधानमंत्री बना दें। नहीं बनाते, तो तुम कहते हो, बड़ा धोखा हो रहा है। मुझ जैसा सीधा-सादा आदमी, विनम्र चित्त, निरअहंकारी और ये मगरूरजी भाई देसाई! ये प्रधानमंत्री? और मैं विनम्र, निरअहंकारी, अपने घर में बैठा हनुमान चालीसा पढ़ता हूं और कुछ करता भी नहीं हूं। मुझे लोग प्रधानमंत्री क्यों नहीं बना रहे हैं?

अब तुम परेशान हो। तुम्हारी परेशानी…तुम ने सांत्वना को संतोष समझा। इरादे तुम्हारे भी अच्छे नहीं हैं। हनुमान चालीसा भी तुम गलत इरादे से पढ़ रहे हो। तुम सोचते हो कि शायद हनुमानजी कंधे पर बिठाकर तुम को दिल्ली ले जाएं!

संतोष बड़ी और बात है। संतोषी दुख जानता ही नहीं। क्योंकि संतोषी की अपेक्षा नहीं है। अपेक्षा की छाया है दुख। अपेक्षा गयी, तो दुख गया।

संतोषी केवल सुख ही जानता है। और जैसे-जैसे संतोष बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे सुख महासुख होने लगता है।

ओशाे आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ 

” एस धम्माे सनंतनाे- १०५”