तुमने कभी सुना है कि कोई नपुंसक आदमी ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हुआ हो? योग एक बड़ी गहन प्रक्रिया है, कला है
ओशो- मनुष्य जाति का इतिहास लंबा है। कम से कम हजार साल का तो बिलकुल सुनिश्चित ज्ञात है। इन पांच हजारों सालों में एक भी इंपोटेंट, नपुंसक आदमी परमात्मा को उपलब्ध नहीं हुआ। इसका क्या अर्थ है, काम और वीर्य ऊर्जा परमात्मा की उपलब्धि में अनिवार्य है। उसके बिना नहीं हो सकेगा?
ऊर्जा ही नहीं है जिसके सहारे यात्रा हो सके। कीचड़ ही नहीं है, कमल कैसे पैदा हो? दीया ही नहीं है, ज्योति कहां टिके, कहां ठहरे, कहां आवास करे, कहां घर बनाएं?
और मैं तुमसे कहता हूं कि जिन लोगों ने ब्रह्मचर्य को एक तरह की नपुंसकता मान लिया है, वे भी परमात्मा को उपलब्ध नहीं होते। ऊर्जा का गहन प्रवाह चाहिए, उद्दाम वेग चाहिए, नदी जैसे बाढ़ में हो ऐसे वीर्य की संपदा चाहिए–तभी तुम ऊपर उठ सकोगे। जो नीचे तक नहीं जा सकता, वह ऊपर तक कैसे जाएगा, थोड़ा सोचो।
इसलिए अगर तुम मेरी बात समझ सको तो ब्रह्मचर्य बड़ी विपरीत बात है नपुंसकता से। परम वीर्य की उपलब्धि से ब्रह्मचर्य फलित होती है। काटने-दबाने से शरीर को मिटाने से कोई कहीं नहीं पहुंचता। शरीर को जितना तुम स्वस्थ, सम्यक, संतुलित शांत, ओजपूर्ण, ऊर्जा से भरा हुआ, परिपूर्ण बना सको, उतनी ही सुगमता होगी। उतने ही तुम ऊपर जा सकोगे।
जैसे मैंने कल तुमसे कहा कि जब भी कामवासना उठे, तब जोर से श्वास को बाहर फेंकना, पेट को भीतर जाने देना–मूलबंध लग जाएगा, मूलाधार सिकुड़ जाएगा। मूलाधार के ऊपर शून्य होने से ऊर्जा शून्य में उठ जाएगी। इसे अगर निरंतर करते रहे, अगर इसे तुमने एक सतत साधना बना ली–और इसका कोई पता किसी को नहीं चलता; तुम इसे बाजार में खड़े हुए कर सकते हो, किसी को पता भी नहीं चलेगा; तुम दुकान पर बैठे हुए कर सकते हो, किसी को पता भी न चलेगा।
अगर एक व्यक्ति दिन में कम से कम तीन सौ बार, क्षण भर को भी मूलबंध लगा ले, कुछ ही महीनों के बाद पाएगा, कामवासना हो गई। कामऊर्जा रह गई, वासना तिरोहित हो गई। और तीन सौ बार करना बहुत कठिन नहीं है। यह मैं सुगमतम मार्ग कह रहा हूं, ब्रह्मचर्य की उपलब्धि का हो सकता है।
योग कोई आत्महत्या नहीं है; योग एक बड़ी गहन प्रक्रिया है, कला है और कदम-कदम अगर तुम चलते रहो तो तुम्हारे भीतर सब छिपा है। तुम सब लेकर ही आए हो; प्रकट करने की बात है। तुम अप्रकट परमात्मा हो; बस जरा प्रकट करने की बात है। सब साज मौजूद है; सिर्फ उंगलियां थोड़ी साधनी हैं और वीणा से स्वर उठने शुरू हो जाएंगे। जैसे-जैसे उंगलियां सधेंगी वैसे-वैसे गहनतम संगीत पैदा होगा।
और एक ऐसी घड़ी आती है कि वीणा की जरूरत भी नहीं रह जाती; उंगलियों की भी जरूरत नहीं रह जाती–तब परम संगीत सुनाई पड़ने लगता है जो चारों तरफ मौजूद है। सिर्फ तुम्हारे पास सुनने की क्षमता नहीं है। पुरा अस्तित्व उसकी गूंज से भरा है। उस गूंज को ही हमने ओंकार कहा है।
ओम अस्तित्व की गूंज है। वह कोई शब्द नहीं है, न कोई ध्वनि है; वह अनाहत नाद है। उसको कोई पैदा नहीं कर रहा है; वह अस्तित्व के होने का ढंग है। जैसे पहाड़ से नदी बहती है तो कलकल का नाद होता है; जैसे पक्षी गीत गा रहे हैं; हवाएं निकलती हैं वृक्षों से, सराहट पैदा होती है–अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। उसको कोई पैदा नहीं कर रहा है। उसके पैदा होने के लिए दो चीजों के आघात की जरूरत नहीं है, इसलिए अनाहत! वह आहत नाद नहीं है। ताली बजाओ–आहत नाद है। दो चीजें टकराती हैं–ध्वनि पैदा हो जाती है। ओंकार कोई टकराहट से नहीं पैदा हो रहा है। इसलिए ओंकार अद्वैत है। जो टकराहट से पैदा होगा उसमें तो दो की जरूरत है; एक हाथ से ताली नहीं बजती। ओंकार एक हाथ की ताली है।
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कहै कबीर दीवाना-(प्रवचन–06)
ओशो आश्रम, पूना