ओशो…एक रात एक चर्च में एक नीग्रो ने आकर दरवाजा खटखटाया। पादरी ने दरवाजा खोला और देखा कि कोई काला आदमी है। काले आदमी के लिए तो उस चर्च में प्रवेश का कोई इंतजाम न था। वह सफेद चमड़ी के लोगों का चर्च था। उसमें काली चमड़ी के लोगों के लिए कोई जगह न थी। आज तक एक भी ऐसा मंदिर नहीं बन सका जिसमें सबके लिए जगह हो। किसी के लिए है, किसी के लिए नहीं है। उस चर्च में भी नहीं थी। लेकिन पादरी ने, जमाना बदल गया है, पुराना जमाना होता तो धक्के देकर बाहर करवा देता, कि शूद्र यहां कहां चला आया। लेकिन जमाना बदल गया है, लोकतंत्र की हवाओं ने सारी दुनिया का दिमाग खराब कर दिया है। कहीं भगाए, कहीं उपद्रव खड़ा हो जाए, इसलिए उसने होशियारी की, उसने उस काले आदमी को कहाः मेरे मित्र, मंदिर का द्वार तो खोल दूं, लेकिन किसलिए भीतर आना चाहते हो? उस आदमी ने कहाः इसलिए ताकि मैं परमात्मा को पा सकूं। तो उस पादरी ने कहाः इसके पहले कि तुम परमात्मा को पाने की कोशिश करो, जाओ, अपने मन को शुद्ध करो, चित्त को निर्मल बनाओ, मन से विकार दूर करो तब आना, ऐसे कहीं भगवान मुफ्त में मिलता है। वह नीग्रो वापस लौट गया। सीधा आदमी होगा। अगर सीधा न होता तो चर्च में जाता ही क्यों? अगर सीधा न होता तो परमात्मा की खोज ही उसके मन में क्यों पैदा होती। सीधा था, भोला-भाला होगा, इसकी बात मान लिया और वापस लौट गया। महीने दो महीने बीत गए। वह पादरी सोचता था शायद फिर कभी आए। लेकिन नहीं आया। तो तरकीब काम कर गई, न होगा चित्त शुद्ध, न आएगा वापस।लेकिन एक दिन रास्ते पर उसे देखा तो वह बड़ा शांत चला जा रहा था। उसकी आंखों में भी बड़ी शांति मालूम पड़ती थी, उसके चेहरे पर भी बड़ा प्रकाश दिखता था। तो उस पादरी ने उसे रोका और कहा कि सुनो, आए नहीं दुबारा? उसने कहाः मैं तो आता, लेकिन एक बाधा आ गई। क्या बाधा आ गई? उसने कहा कि मैं निरंतर प्रार्थना में, शांति में, मौन में रहने लगा ताकि चित्त शुद्ध हो जाए। अपने विकारों को विसर्जित करने लगा। कोई दो महीने बीतने पर एक रात मुझे सपने में भगवान ने दर्शन दिए। और उन्होंने मुझसे पूछा कि इतनी तपश्चर्या, इतनी साधना किसलिए कर रहा है? तो मैंने कहा कि वह जो चर्च है हमारे गांव में मैं उसमें प्रवेश करना चाहता हूं ताकि आपके दर्शन कर सकूं। तो भगवान ने मुझसे कहाः तू बिल्कुल पागल है, यह काम छोड़ दे, यह काम बिल्कुल असंभव है, मैं खुद दस साल से कोशिश कर रहा हूं वह पादरी मुझे चर्च में घुसने नहीं देता। तो दस साल से में खुद कोशिश कर-कर के हार गया हूं, तू गरीब नीग्रो तुझे कौन घुसने देगा, मुझे भी वह घुसने नहीं देता बाहर से ही लौटा देता है कि हटो यहां तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है। यह सपने में भगवान ने उस नीग्रो को कहा। भगवान ने अतिशयोक्ति नहीं की। शायद डर के कारण दस वर्ष कहे कहीं नीग्रो घबड़ा न जाए। लेकिन मुझसे भी मेरे सपने में उस भगवान ने कहा, कि दस वर्ष नहीं मैं दस हजार साल से कोशिश कर रहा हूं।
और उस चर्च में नहीं किसी चर्च में और किसी मंदिर में मुझे आज तक नहीं घुसने दिया गया है क्योंकि पादरी-पुरोहित दरवाजे पर रोक देते हैं, अंदर मत आना। आज तक किसी मंदिर में भगवान प्रवेश नहीं पा सका है। नहीं पा सकेगा। क्योंकि भगवान है बड़ा और मंदिर हैं छोटे। भगवान है विराट और मंदिर हैं सीमित। और भगवान कोई सीमा नहीं और मंदिरों में बड़ी सख्त दीवालें हैं, दरवाजे लोहे के हैं और बाहर संतरी खड़ा हुआ है, घुसना बहुत मुश्किल है।
मंदिर हैं आदमी के बनाए हुए, आदमी खुद बहुत छोटा है
उसके मंदिर उससे भी ज्यादा छोटे हैं। लेकिन हम सस्ते धर्म के प्रेमी हैं, सुबह उठ कर मंदिर हो आते हैं और सोचते हैं कि चलो धर्म हो गया। एक आदमी सुबह से उठ कर मंदिर हो आता है और धार्मिक होने का मजा ले लेता है।
धार्मिक होना इतनी आसान बात नहीं है। इतनी सस्ती और इतनी बाजारू बात नहीं है कि आप एक मकान से दूसरे मकान में चले गए और धार्मिक हो गए।
और स्मरण रखिए, अगर बात इतनी आसान होती कि एक मकान में जाने से अगर कोई आदमी धार्मिक हो जाता, तो हम ऐसे बड़े-बड़े मकान बनाते और लोगों को रोज सुबह-शाम उनमें से जबरदस्ती निकलवा देते। लेकिन यह नहीं हो सका। यह हो नहीं सकता।
आप अपने घर में बैठे हुए जैसे आदमी हैं मंदिर में जाकर आप दूसरे आदमी नहीं हो सकते। आप वही आदमी होंगे। मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त आप जैसे आदमी हैं मंदिर में पहुंच कर दूसरे आदमी कैसे हो जाएंगे? आप वही आदमी होंगे।
गंगा बहती है हिमालय से समुद्र तक, तो कोई सोचता हो कि सिर्फ प्रयाग पर आकर पवित्र हो जाती है उसके पहले पवित्र नहीं रहती और पीछे फिर पवित्र नहीं रहती, तो वह पागल है। अविचछिन्न धारा है, कंटिन्युअस धारा है। जीवन की और चित्त की भी अविच्छिन्न धारा है। आपके मंदिर में जाने से आप धार्मिक नहीं हो जाते। आप अगर धार्मिक हों तो जहां आप हैं वहां मंदिर जरूर हो सकता है। लेकिन आप किसी मंदिर में जाकर धार्मिक नहीं हो सकते। आप अगर धार्मिक हों तो जहां आप बैठ जाएं वह जगह जरूर मंदिर हो जाती है। लेकिन कोई जगह मंदिर नहीं है, जहां आप चले जाएं और धार्मिक हो जाएं।
चेतना का परिवर्तन व्यक्ति को धार्मिक बनाता है, मकानों में आना-जाना नहीं। और जिन मूर्तियों के सामने आप हाथ जोड़ कर खड़े हैं बहुत बच्चों जैसा काम कर रहे हैं। वे मूर्तियां आपकी अपनी बनाई हुई हैं और उनको आप भगवान कह रहे हैं।
मनुष्य का अहंकार अदभुत है। वह अपने को तो मिटाता नहीं, हद्द मौज में आ जाता है भगवान तक को गढ़ने लगता है, भगवान तक को बनाता है। हमने कारखाने खोले हुए हैं भगवान को बनाने के जगह-जगह। और इन सब कारखानों में और दुकानों में झगड़ा होता है जो कि स्वाभाविक है। क्योंकि एक दुकान कहती है कि हमारी दुकान के बने हुए भगवान ही सच्चे हैं, तुम्हारी दुकान के बने हुए भगवान झूठे हैं। बाजार में हमारी दुकान के भगवान चलने चाहिए, तुम्हारे को न चलने देंगे। तलवारें चलती हैं, लकड़ियां चलती हैं, हत्याएं होती हैं, क्योंकि हमारे कारखाने में जो भगवान ढालते हैं वही सच्चा भगवान है, तुम्हारे कारखाने में ढला हुआ भगवान झूठा है।
मनुष्य भगवान को ढालता है फिर बाजार में बेचता है। दुकानें खोली हुई हैं। और इन दुकानों का कुल परिणाम इतना हुआ है कि मनुष्य निर्मित भगवान के इर्दगिर्द मनुष्यता को हम घुमा रहे हैं। और परमात्मा से आदमी रोज-रोज दूर होता चला गया है। यह इसको हम कहते हैं पूजा और प्रार्थना और मंदिर। अगर ये मंदिर ही धर्म होते, तो जमीन पर कितने मंदिर हैं, कितनी मस्जिदें हैं; कितने संन्यासी हैं, कितने पुजारी हैं, कितने पादरी हैं, कुछ हिसाब है। इन सबकी निरंतर उपदेश चल रहे हैं, निरंतर पूजा हो रही है, मंदिरों में घंटियां बज रही हैं और जमीन रोज-रोज अधार्मिक होती जा रही है, कुछ समझ में नहीं पड़ता यह क्या हो रहा है।
इतने मंदिर और मस्जिद और जमीन, जमीन नरक से बदतर। धर्म, धर्म का कोई पता नहीं। यह क्या मामला है? अगर कोई मुझसे कहे कि मेरे घर में बहुत गुलाब के फूल लगे हैं, बहुत चमेली के फूल आए हैं, बहुत मेरे घर में सुगंध ही सुगंध फूलों की भर गई है। और वहां जाकर हम पाएं कि दुर्गंध ही दुर्गंध है और एक फूल नजर न आए, तो क्या ख्याल पैदा होगा? ख्याल पैदा होगा कि इस आदमी ने कागज के फूलों को शायद असली फूल समझ लिया है। इसीलिए तो कहता है फूल बहुत हैं मेरे घर में लेकिन न सुगंध आती है, न फूलों की हवाओं में कोई सुगंध के तार उड़ते हैं, और न फूल, जीवंत फूल कहीं दर्शन में आते हैं, तो शायद इसने कुछ नकली फूलों को फूल समझ लिया है।
जमीन पर इतने धर्म-स्थान हैं लेकिन धर्म कहां है। अगर धर्म की सुगंध नहीं है, तो हमने शायद कागज के फूलों को असली फूल समझ लिया है। शायद हमने मकानों को मंदिर समझ लिया है। और अपने हाथ की बनाई हुई मूर्तियों को परमात्मा समझ लिया है। नहीं तो जीवन कुछ से कुछ होता, कुछ और होता, कुछ और बात होती।
तो मैं यह निवेदन करना चाहता हूं, मनुष्य जिस मंदिर को बनाएगा, वह मंदिर परमात्मा का नहीं हो सकता। हां, अगर मनुष्य अपने को मिटा ले, तो उसका हृदय परमात्मा का मंदिर जरूर बन जाता है।
लेकिन कोई मिट्टी की दीवाल, कोई ईंटें परमात्मा के मंदिर को नहीं बनातीं, हृदय जरूर परमात्मा का मंदिर बना सकता है। और वही हृदय परमात्मा का मंदिर बना सकता है जो अपने को मिटा ले।