ओशो- रामकृष्ण को पहली दफा जब दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी की तरह रखा गया तो दो—चार—आठ दिन में ही बड़ी—बड़ी चर्चाएं कलकत्ते में फैलनी शुरू हो गईं। कमेटी के पास लोग गए, ट्रस्टियों के पास लोग गए और कहा कि इस आदमी को अलग कर दो। क्योंकि हमने बड़ी गलत बातें सुनी है। हमने सुना है कि वह फूल को पहले सूंघ लेता है, फिर मूर्ति को चढ़ाता है। और हमने यह भी सुना है कि प्रसाद को पहले चख लेता है, और फिर प्रसाद को चढ़ाता है। यह तो पूजा भ्रष्ट हो गई!रामकृष्ण को कमेटी ने बुलाया और कहा कि यह क्या कर रहे हैं आप? हमने सुना है कि फूल आप पहले सूंघ लेते हैं,फिर परमात्मा को चढ़ाते हैं, और भोग आप पहले खुद लगा लेते हैं, फिर परमात्मा को चढाते है? रामकृष्ण ने कहा, हाँ,क्योंकि मैंने मेरी मां को देखा है, वह खाना बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी फिर मुझे देती थी। क्योंकि वह कहती थी कि पता नहीं, तुझे देने योग्य बना भी कि नहीं! तो मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकूंगा, और फूल जब तक मैं न सूंघ लूं तो मैं कैसे चढ़ाऊं? पता नहीं, सुगंधित है भी या नहीं।
पर उन्होंने कहा, तब तो सारी पूजा का विधान टूट जाएगा? रामकृष्ण ने कहा, कैसी बात करते हैं, पूजा का कोई विधान होता है, प्रेम का कोई विधान होता है? कोई कांस्टीट्यूशन होता है? कोई विधि होती है? जहां विधि होती है पूजा मर जाती है। जहां विधान हो जाता है, वहीं प्रेम मर जाता है। यह तो आंतरिक उदभाव है, अत्यंत निजी, अत्यंत वैयक्तिक! और फिर भी उसमें एक यूनिवर्सल, एक सार्वभौम तथ्य है जो पहचाना जा सकता है।
जब एक प्रेमी प्रेम करता है और जब दूसरा प्रेमी प्रेम करता है तो दोनों ही प्रेम करते हैं, फिर भी दो ढंग से करते हैं। उनमें बड़े गहरे फर्क होते हैं और फिर भी गहराई में एक समानता होती है। उन दोनों के प्रेम की अपनी निजता,इंडीवीजुएलिटी होती है, और फिर भी दोनों के प्रेम के भीतर कहीं एक ही आत्मा का वास होता
पर पूजा तो दिखाई नही पड़ेगी, मूर्ति दिखाई पड़ेगी। और हम एक शब्द बनाए है, मूर्ति—पूजा, जो बिलकुल ही गलत है। पूजा है मूर्ति को मिटाने का! अब यह बात बडी अजीब लगती है। क्योंकि भक्त पहले मूर्ति बनाता है, फिर भक्त मूर्ति मिटाता है। मिटाता है बड़े चिन्मय अर्थों से, बनाता है बडे मृण्मय अर्थों में। बनाता है मिट्टी में और मिटाता है परम सत्ता में। इसलिए एक और आपको खयाल दिला दूं।
इस देश में हजारों साल तक हमने मूर्तियां बनायीं और विसर्जित कीं। अब भी हम मूर्तियां बनाते और विसर्जित करते है। कई दफा तो मन को बडी हैरानी होती है। न मालूम कितने लोगो ने मुझे आकर कहा होगा इतनी सुंदर काली की प्रतिमा बनाते हैं और फिर इसको पानी में डाल आते हैं। गणेश को बिठाते है, बनाते हैं सजाते हैं, इतना प्रेम प्रगट करते है और एक दिन उठाकर तालाब में डुबा देते हैं। पागलपन ही हुआ न निपट? पर इस विसर्जन के पीछे एक बड़ा खयाल है।
असल में पूजा का रहस्य ही यह है कि बनाओ और विसर्जित करो। इधर बनाओ मूर्ति आकार में, और मिटाओ निराकार में। यह तो प्रतीक है सिर्फ। काली को बनाया है, पूजा है, फिर नदी में डाल आते हैं, आज हमें तकलीफ होती है डाल आने में। क्योंकि हमें पता ही नहीं है इस बात का कि बनाकर अगर हमने पूजा की होती, तो हमने एक और गहरे अर्थों में पहले ही विसर्जन कर दिया होता। लेकिन वह तो हमने किया नहीं। मूर्ति बनाकर रखी, सजायी, बहुत सुंदर बनाई, फिर जब पीडा होती है उसको डुबाने जब जाते हैं; क्योंकि बीच में जो असली काम था वह तो हुआ नहीं।
नहीं, अगर बीच में पूजा की घटना घट जाती तो मूर्ति बनी रहती और हमारे हृदय ने उसे विसर्जित कर दिया होता—परमात्मा में! और तब, जब हम उसे डुबाने जाते नदी में तो वह चली हुई कारतूस की तरह होती उसके भीतर कुछ न होता। काम तो उसका हो चुका होता। लेकिन आज जब आप मूर्ति को डुबाने जाते हैं तो वह चली हुई कारतूस नहीं होती है, भरी हुई कारतूस होती है। कुछ नहीं चला। सिर्फ भरकर रख ली थी कारतूस, और डुबाने जा रहे हैं, तो पीड़ा होनी स्वाभाविक है।
जो लोग उसको डुबा आए थे इक्कीस दिन के बाद उन्होंने इक्कीस दिन में कारतूस चला ली थी। वह इक्कीस दिन में उसको विसर्जित कर चुके थे। पूजा है विसर्जन। मूर्ति का छोर तो हमारी तरफ है, जहां से हम यात्रा शुरू करेंगे और पूजा वह विधि है, जहां से हम आगे बढ़ेंगे। मूर्ति पीछे छूट जाएगी फिर शेष पूजा ही रह जाएगी। मूर्ति पर जो रुक गया उसने पूजा नहीं जानी; पूजा पर जो चला गया, उसने मूर्ति को पहचाना। इस मूर्ति के पीछे, इस मूर्ति के प्रयोग में, इस पूजा में क्या मूल आधार सूत्र है?
एक, जिस परम सत्य की आप खोज में चले हैं, या परम शक्ति की खोज में चले हैं, उसमें छलांग लगाने के लिए कोई जंपिंग बोर्ड, कोई जगह जहां से आप छलांग लगाएंगे! उस परम के लिए कोई जगह की जरूरत नहीं है, पर आपको तो खड़े होने के लिए जगह की जरूरत पड़ेगी, जहां से आप छलांग लगाएंगे। माना कि सागर में कूदने चले है, सागर है अनंत, पर आप तो तट के किसी किनारे पर खड़े होकर ही छलांग लेंगे न? छलांग लेने तक तो तट पर ही होंगे न! छलांग लेते ही तट के बाहर हो जाएंगे। लेकिन पीछे लौटकर तट को इतना धन्यवाद तो देंगे न, कि तुझसे ही हमने अनंत में छलांग ली थी। उल्टा दीखता है।…क्रमशः…