ओशो- श्रमिक संपत्ति पैदा नहीं कर रहा है, श्रमिक सिर्फ संपत्ति के पैदा करने का बहुत गौण हिस्सा है और आज नहीं कल, श्रमिक व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि मशीन उसे पूरी तरह से सब्स्टीट्यूट कर देगी।
पचास साल के भीतर दुनिया में लेबर, श्रमिक जैसा आदमी नहीं होगा, होने की जरूरत भी नहीं है।
अशोभन है कि किसी आदमी को मशीन का काम करना पड़े जो मशीन कर सकती है। श्रमिक व्यर्थ हो जाएगा। संपत्ति के पैदा करने में श्रमिक धीरे-धीरे व्यर्थ होता गया और पचास साल में बिलकुल बेकार हो जाएगा। श्रमिक की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि श्रम नाॅन-एसेंशियल, गैर-जरूरी हिस्सा है। जरूरी हिस्सा उत्पादक बुद्धि है, प्रोडक्टिव माइंड है।
लेकिन समाजवाद ने एक भ्रम पैदा किया है कि संपत्ति मसल्स से पैदा हुई है। झूठी है यह बात। संपत्ति मस्तिष्क से पैदा हुई है, मसल्स से नहीं। और अगर समाजवाद ने यह जिद्द की और मसल्स को मस्तिष्क के ऊपर बिठा दिया तो मस्तिष्क विदा हो जाएगा और मसल्स वहीं पहुंच जाएंगी जहां हजार साल पहले गरीबी और भुखमरी थी, उससे आगे नहीं।
सारी संपत्ति मस्तिष्क की ईजाद है और ध्यान रहे, सारे लोगों ने संपत्ति के पैदा करने का श्रम भी नहीं उठाया है। एक आइंस्टीन ईजाद करता है, सारे लोग फायदे लेते हैं। एक फोर्ड, एक टाटा, एक बिरला, एक अंबानी… संपत्ति पैदा करता है, सारे लोगों तक संपत्ति बिखर जाती है। लेकिन ऐसा समझाया जा रहा है कि पूंजीपति जो है वह लोगों से संपत्ति शोषित करता है। इससे बड़ी झूठी कोई बात नहीं हो सकती है। जो संपत्ति है ही नहीं, उसका शोषण होगा कैसे? उस संपत्ति का शोषण हो सकता है जो कहीं हो, लेकिन जो संपत्ति कहीं है ही नहीं उस संपत्ति का शोषण कैसे हो सकता है? पूंजीवाद संपत्ति का शोषण नहीं करता है, संपत्ति पैदा करता है।
लेकिन जब संपत्ति पैदा होती है तो दिखाई पड़नी शुरू होती है और हजारों आंखों में ईष्र्या का कारण बनती है।
समाजवाद के प्रभाव का कारण यह नहीं है कि हर आदमी हर दूसरे आदमी को समान समझता है। समाजवाद के बुनियादी प्रभाव का कारण मनुष्य की जन्मजात ईष्र्या है–उनके प्रति जो सफल हैं, उनके प्रति जो समृद्ध हैं, उनके प्रति जिन्होंने कुछ पाया, जिन्होंने कुछ खोजा, जिन्होंने कुछ बनाया।
मनुष्य जाति का बड़ा हिस्सा एकदम तमस में रहा है, उसने कुछ भी पैदा नहीं किया है। मनुष्य जाति के बड़े हिस्से ने न तो ज्ञान पैदा किया है, न संपत्ति पैदा की है, न शक्ति पैदा की है।
लेकिन मनुष्य-जाति का यह बड़ा हिस्सा ईष्र्या से पीड़ित जरूर हो गया है।* उसे दिखाई पड़ रहा है–संपत्ति है, ज्ञान है, बुद्धि है, लोगों के पास कुछ है और निश्चित ही करोड़ोें लोगों की ईष्र्या को जगाया जा सकता है।
रूस में जो क्रांति हुई है वह ईष्र्या से, चीन में जो क्रांति हुई वह ईष्र्या से और इस देश में भी जो समाजवाद की बातें हो रही हैं वे ईष्र्याजन्य हैं।
लेकिन ध्यान रहे, ईष्र्या से कोई समाज निर्मित नहीं होता और यह भी ध्यान रहे, ईष्र्या से समाज का किया गया रूपांतरण फलदाई, सुखदाई, मंगलदायी नहीं होगा। यह भी ध्यान रहे कि ईष्र्या से हम किसी व्यवस्था को तोड़ तो देंगे, लेकिन नई व्यवस्था का सृजन नहीं कर पाएंगे। *ईष्र्या क्रिएटिव नहीं है, डिस्ट्रक्टिव है।* ईष्र्या कभी भी सृजनात्मक शक्ति नहीं है। वह तोड़ सकती है, मिटा सकती है, बना नहीं सकती। बनाने की कल्पना ही ईष्र्या में नहीं होती है।
अब यह जो आदमी है, ईष्र्या में जी रहा है। मकान बड़े हो सकते हैं सृजन से, ईष्र्या से नहीं। हां, ईष्र्या से बड़े मकान छोटे बनाए जा सकते हैं; लेकिन ईष्र्या से छोटे मकान बड़े नहीं बनाए जा सकते। ईष्र्या के पास सृजनात्मक शक्ति नहीं है। ईष्र्या जो है–मृत्यु की साथी है, जीवन की नहीं। लेकिन सारी दुनिया में समाजवाद का जो प्रभाव है उसकी बुनियाद में ईष्र्या आधार है। लेकिन मजा यह है कि जिस गरीब को यह ईष्र्या सता रही है और शायद गरीब को उतनी नहीं सता रही है जितनी अमीर और गरीब के बीच के जो नेता खड़े हैं; उनको सता रही है। यह जो ईष्र्या इनको सता रही है, वह ईष्र्या अमीरों के खिलाफ जितना नुकसान पहुंचाएगी; वह बड़ा नहीं है। इसका अंतिम नुकसान गरीबों को ही पहुंचनेवाला है। क्योंकि अमीर जो संपत्ति पैदा कर रहा है वह संपत्ति अंततः गरीब तक पहुंच रही है, पहुंचती है, पहुंच ही जाती है। उसे रोकने का कोई उपाय नहीं है।
मैं निकल रहा था, एक ट्रेन से। दिल्ली जा रहा था। मेरे कंपार्टमेंट में एक सज्जन थे, रास्ते में एक बड़ा मकान था और उस मकान के आस-पास दस-पांच छोटे झोपड़े थे। उन्होंने मुझे देख कर कहा, देखते हैं आप, यह मकान बड़ा हो गया है, इन मकानों को छोटा करके। मैंने उनसे कहा, आप गलत देख रहे हैं। इस बड़े मकान को बीच से हटा दें तो यह जो आस-पास दस मकान हैं ये बड़े नहीं हो जाएंगे, ये मकान नदारद हो जाएंगे। उस बड़े मकान के बनने की वजह से ये दस मकान भी आस-पास बन जाते हैं, बनने ही पड़ते हैं। कोई मकान अकेला नहीं बनता है। एक बड़ा मकान जब बनता है, दस छोटेे मकान बन ही जाते हैं, क्योंकि उस बड़े मकान को बनाएगा कौन? उस बड़े मकान को बीच से हटा दें तो ये दस मकान विदा हो जाएंगे।
दुनिया में दस बच्चे पैदा होते, नौ मरते थे। पूंजीवाद ने उन नौ बच्चों को भी बचा लिया। आज दस बच्चे होते हैं, सिर्फ एक बच्चा मरता है, नौ बच्चे बच जाते हैं। उन नौ बच्चों की भीड़ इकट्ठी हो गई है। उनके पास छोटे मकान हैं, दुखद है यह बात। उनके पास अच्छे मकान होने चाहिए। लेकिन अच्छे मकान होना का यह सूत्र नहीं है कि बड़े मकान मिटा दिए जाएं। अगर बड़े मकान मिट गए तो मैं आपसे कहता हूं कि ये छोटे मकान विदा हो जाएंगे। ये बड़े मकान के पीछे आए हैं। ये नौ मकान जो बच रहे हैं, दस में से, ये बड़े मकान के बनाने में बच रहे हैं।
मजदूर को काम है, नौकरी है, रहने की जगह है, *वह पूंजी के पैदा होने के कारण हुई है।* इस पूंजी को बिखेर देने से मजदूर बचेगा नहीं। कोशिश हमें यह करनी चाहिए कि मजदूर भी कैसे पूंजीपति हो जाए। कोशिश हमें यह करनी चाहिए कि छोटे मकान कैसे बड़े हों और अगर छोटे मकान बड़े बनाने हैं तो और बहुत बड़े मकान बनाने पड़ेंगे, तभी ये बड़े हो पाएंगे, अन्यथा ये बड़े नहीं हो पाएंगे। लेकिन कई बार बड़े भ्रांत तर्क पैदा हो जाते हैं।
चीन में जो चल रहा है वह यही खयाल है कि हम सब बड़े मकान मिटा कर छोटे मकानों को बड़ा कर देंगे। नहीं, बड़ा मकान मिट जाएगा और छोटा मकान जिसके पास है अगर वह बड़ा मकान बना सकता होता तो उसने बहुत पहले बड़ा मकान बना लिया होता। वह अपनी लिथार्जी में, अपने तामस में वापस लौट जाएगा।
ख्रुश्चेव ने रूस से विदा होने से पहले अपने पद से जो एक महत्वपूर्ण बात कही है, वह सोचने जैसी है। उसने कहा है, आज रूस के सामने जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह है कि रूस में कोई भी काम करने को तैयार नहीं है। रूस के जवान काम करने में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। बड़ी अजीब बात है कि रूस के मजदूर काम करने में उत्सुक न हों; रूस का जवान काम करने में उत्सुक न हो। लिथार्जी में, आलस में, तामस में वापस लौट रहा है वह। स्टैलिन ने जो उससे काम लिया था वह भी जबरदस्ती था, इसलिए स्टैलिन के मरने के बाद जो व्यवहार स्टैलिन के साथ रूस में हुआ वह बिलकुल ही तर्कसंगत मालूम पड़ता है। जिस क्रेमलिन के चैराहे पर, जिस रेडस्क्वायर पर जिंदगी भर सलामी ली स्टैलिन ने, उसी स्क्वायर से उसकी गड़ी हुई लाश को उखाड़ कर हटा दिया गया है,
क्योंकि जितने दिन स्टैलिन जिंदा था–रूस पर प्रेत की भांति छाया रहा और गहरी हत्या करता रहा। गहरी हत्या के भय से काम चला, लेकिन हत्या का भय ढीला हुआ, काम बंद हुआ।
पूंजीवाद ने इंसेंटिव पैदा किया है, एक प्रेरणा पैदा की है व्यक्ति के भीतर कि वह संपत्ति को पैदा करे। संपत्ति को पैदा करने का आकर्षण पैदा किया है। वह आकर्षण पूंजीवाद के विदा होेते ही विदा हो जाएगा। हां, एक ही शर्त पर अगर पूंजीवाद पूरी तरह विकसित हो जाए और पूंजीवाद से समाजवाद सहज आए तो यह घटना नहीं घटेगी। ऐसा हो सकता है। अमरीका में ऐसा संभव हो जाएगा।
यह कितना विरोधाभासी है, पैराडाक्सिकल मालूम पड़ता है, लेकिन यही सत्य है कि आने वाले पचास वर्षों में अमरीका रोज समाजवाद की तरफ कदम उठाएगा और रूस रोज पूंजीवाद की तरफ कदम उठाएगा। अमरीका रोज समाजवादी होता जा रहा है बिना जाने, बिना किसी क्रांति के। क्यों? क्योंकि संपत्ति जब अतिरिक्त हो जाती है तो व्यक्तिगत मालकियत व्यर्थ हो जाती है। व्यक्तिगत मालकियत तभी व्यर्थ होती है, जब संपत्ति अतिरिक्त हो जाए, जरूरत से ज्यादा हो जाए।