ओशो– मैं जब किसी को पतन में जाते देखता हूं तो जानता हूं कि उसने पर्वत शिखरों की ओर उठना बंद कर दिया होगा। पतन की प्रक्रिया विधेयात्मक नहीं है। घाटियों में जाना, पर्वतों पर न जाने का ही दूसरा पहलू है। वह उसकी ही निषेध छाया है।
और जब तुम्हारी आंखों में मैं निराशा देखता हूं तो स्वाभाविक ही है कि मेरा हृदय प्रेम, पीड़ा और करुणा से भर जाए, क्योंकि निराशा मृत्यु की घाटियों में उतरने का प्रारंभ है।
आशा सूर्यमुखी के फूलों की भांति सूर्य की ओर देखती है, और निराशा? वह अंधकार से एक हो जाती है। जो निराश हो जाता है, वह अपनी अंतर्निहित विराट शक्ति के प्रति सो जाता है, और उसे विस्मृत कर देता है जो वह है, और जो वह हो सकता है।
बीज जैसे भूल जाए कि उसे क्या होना है और मिट्टी के साथ ही एक होकर पड़ा रह जाए, ऐसा ही वह मनुष्य है जो निराशा में डूब जाता है। और आज तो सभी निराशा में डूबे हुए हैं!नीत्से ने कहा है ‘परमात्मा मर गया है।’ यह समाचार उतना दुखद नहीं है जितना कि आशा का मर जाना, क्योंकि आशा हो तो परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं है और यदि आशा न हो तो परमात्मा के होने से कोई भेद नहीं पड़ता। आशा का आकर्षण ही मनुष्य को अज्ञात की यात्रा पर ले जाता है। आशा ही प्रेरणा है जो उसकी सोई शक्तियों को जगाती है और उसकी निष्क्रिय चेतना को सक्रिय करती है।
क्या मैं कहूं कि आशा की भावदशा ही आस्तिकता है? और यह भी कि आशा ही समस्त जीवनआरोहण का मूल उत्स और प्राण है?
पर आशा कहां है? मैं तुम्हारे प्राणों में खोजता हूं तो वहां निराशा की राख के सिवाय और कुछ भी नहीं मिलता। आशा के अंगारे न हों तो तुम जीओगे कैसे? निश्चय ही तुम्हारा यह जीवन इतना बुझा हुआ है कि मैं इसे जीवन भी कहने में असमर्थ हूं!
मुझे आज्ञा दो कि मैं कहूं कि तुम मर गए हो! असल में तुम कभी जिए ही नहीं, तुम्हारा जन्म तो जरूर हुआ था लेकिन वह जीवन तक नहीं पहुंच सका! जन्म ही जीवन नहीं है। जन्म मिलता है, जीवन पाना होता है। इसलिए जन्म मृत्यु में ही छीन भी लिया जाता है। लेकिन जीवन को कोई भी मृत्यु नहीं छीन पाती है। जीवन जन्म नहीं है और इसलिए जीवन मृत्यु भी नहीं है।
जीवन जन्म के भी पूर्व है और मृत्यु के भी अतीत है। जो उसे जानता है वही केवल भयों और दुखों के ऊपर उठ पाता है। किंतु जो निराशा से घिरे हैं, वे उसे कैसे जानेंगे? वे तो जन्म और मृत्यु के तनाव में ही समाप्त हो जाते हैं!
जीवन एक संभावना है और उसे सत्य में परिणित करने के लिए साधना चाहिए। निराशा में साधना का जन्म नहीं होता क्योंकि निराशा तो बांझ है और उसमें कभी भी किसी का जन्म नहीं होता है। इसीलिए मैंने कहा कि निराशा आत्मघाती है क्योंकि उससे किसी भी भांति की सृजनात्मक शक्ति का आविर्भाव नहीं होता है।
मैं कहता हूं उठो और निराशा को फेंक दो! उसे तुम अपने ही हाथों से ओढ़े बैठे हो। उसे फेंकने के लिए और कुछ भी नहीं करना है सिवाय इसके कि तुम उसे फेंकने को राजी हो जाओ। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई उसके लिए जिम्मेदार नहीं है।
मनुष्य जैसा भाव करता है, वैसा ही हो जाता है। उसके ही भाव उसका सृजन करते हैं। वही अपना भाग्यविधाता है।
विचार विचार विचार और उनका सतत आवर्त्तन ही अंततः वस्तुओं और स्थितियों में घनीभूत हो जाता है।
स्मरण रहे कि तुम जो भी हो तुमने ही अनंत बार चाहा है, विचारा है और उसकी भावना की है।
देखो, स्मृति में खोजो तो निश्चय ही जो मैं कह रहा हूं उस सत्य के तुम्हें दर्शन होंगे। और जब यह सत्य तुम्हें दिखेगा तो तुम स्वयं के आत्मपरिवर्तन की कुंजी को पा जाओगे। अपने ही द्वारा ओढ़े भावों और विचारों को उतारकर अलग कर देना कठिन नहीं होता है। वस्त्रों को उतारने में भी जितनी कठिनता होती है उतनी भी उन्हें उतारने में नहीं होती है, क्योंकि वे तो हैं भी नहीं—सिवाय तुम्हारे खयाल के उनकी कहीं भी कोई सत्ता नहीं है।
हम अपने ही भावों में, अपने ही हाथों से कैद हो जाते हैं, अन्यथा वह जो हमारे भीतर है, सदा, सदैव ही स्वतंत्र है।