ओशो- मन में जैसे ही उठती है वासना, वैसे ही अशुचि प्रवेश कर जाती है। मन में जैसे ही उठती है कामना, वैसे ही मन गंदगी से भर जाता है। मन में जैसे ही उठी इच्छा कि ज्वर, फीवर प्रवेश कर जाता है। उत्तप्त हो जाता है सब। अस्वस्थ हो जाता है सब। कंपनशील हो जाता है सब। कामना ही–डिजायरिंग–कामना ही अशुचि है, अस्वच्छता है, अपवित्रता है।देखें; जब भी मन में कुछ चाह उठती है, तब देखें। भीतर से सुगंध खो जाती और दुर्गंध शुरू हो जाती है। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तब भीतर से शांति खो जाती और अशांति के वर्तुल खड़े हो जाते हैं, भंवर खड़े हो जाते हैं। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तभी दीनता पकड़ लेती है। आदमी भिखारी की तरह भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो जाता है, भिक्षु हो जाता है।
जब भी मन में चाह उठती है, तभी दूसरे से तुलना शुरू हो जाती है;र् ईष्या निर्मित होती है, जेलेसी। और जेलेसी से ज्यादा गंदी और कोई चीज नहीं है चित्त में। जेलेसी, जलन से, प्रतिस्पर्धा से, तुलना से भरा हुआ मन ही कुरूप है, अग्ली है।
जैसे ही वासना उठती मन में, हिंसा उठती है। क्योंकि वासना को पूरा हिंसा के बिना किया नहीं जा सकता। फिर जो पाना है, वह किसी भी तरह पाना है। फिर चाहे कुछ भी हो, फिर उसे पा ही लेना है। फिर अंधा होता आदमी। जब वासना घनी होती है, तब ब्लाइंडनेस पैदा होती है। अंधा होता है। फिर आंख बंद करके दौड़ता पागल की तरह! क्योंकि अकेला ही नहीं दौड़ रहा है; और बहुत अंधे भी दौड़ रहे हैं। कोई और न छीन ले! संघर्ष होता। वैमनस्य होता। क्रोध होता। घृणा होती।
और मजा यह है कि सफल हो जाए वासना, तो भी फ्रस्ट्रेशन, तो भी विषाद हाथ में आता है। और असफल हो जाए वासना, तो भी विषाद हाथ में आता है। दोनों ही स्थिति में अंततः दुख के आंसू हाथ में पड़ते हैं।
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३ ☘️☘️ गीता-दर्शन – भाग दो ज्ञान पवित्र करता है— (अध्याय 4) प्रवचन—सोलहवां