जहाँ तुम मन से हो, वहीं तुम हो, मंदिर तो वहीं है, जहाँ मन हो, अगर मन ही वहाँ नहीं है तो लाश पड़ी है “ओशो”

 जहाँ तुम मन से हो, वहीं तुम हो, मंदिर तो वहीं है, जहाँ मन हो, अगर मन ही वहाँ नहीं है तो लाश पड़ी है “ओशो”

ओशो- मैने सुना है कि एक वेश्या और संन्यासी आमने-सामने रहते थे। एक ही दिन मरे। देव-दूत इकट्ठे हुए और संन्यासी को नरक ले जाने लगे और वेश्या को स्वर्ग। फिर किसी को संदेह पैदा हुआ, क्योंकि संन्यासी चिल्लाया, ‘यह क्या कर रहे हो? कुछ गलती हो गयी! मुझे स्वर्ग ले जाओ, मैं संन्यासी हूँ ;इस वेश्या को ले जा रहे हो! इससे ज्यादा पापिनी, व्यभिचारणी कोई स्त्री न थी। जरूर साथ हम मरे हैं, साथ ही ऑर्डर निकले हैं ;कहीं भूल – चूक हो गयी है, दफ्तरों में अक्सर हो जाती है। तुम गलत जगह ले जा रहे हो। ‘
यात्रा रोक दी गयी। देवदूत भागे। उनको भी शक हुआ कि हो सकता है ;गलती तो दिखती है। लौट कर आये, कहा कि’कोई गलती नहीं है। हमने पूछा तो पता चला कि संन्यासी ऊपर-ऊपर ही संन्यासी था और भीतर उसके मन में ऐसा ही होता था। निरंतर जब वह परमात्मा की पूजा भी करता था – सुबह अपने मंदिर में, तो घंटी तो परमात्मा की प्रार्थना में बजती थी ;उसके हृदय की घंटी वेश्या के घर ही बजती रहती थी। पूजा करता था, प्रार्थना करता था, लेकिन मन में यही भाव होता था कि वेश्या के घर जो लोग इकट्ठे हैं, आनंद ले रहे होंगे! वहां गीत होता है, नाच होता है, वे जरूर आनंदित हो रहे हैं। मैं यहाँ दुख में मरा व्यर्थ ही राम-राम जप रहा हूँ। मैंने अपने हाथ से रेगिस्तान चुन लिया। राम-राम जपो और रेगिस्तान में रहो। कोई मरूद्यान भी पता नहीं चलता ;न कहीं राम मिलते हैं। वेश्या मजा लूट रही है। वेश्या के घर से उठते हुए आनंद के, हंसी के झोके, और ईर्ष्या भर जाती।
‘और वेश्या थी जो कि निरंतर – जब भी मंदिर की घंटी बजती, संन्यासी की पूजा प्रार्थना का शोर उठता, उसके राम-राम का नाद गूँजता, तो रोती, कि मैंने जीवन ऐसे ही गँवा दिया। काश, मैं भी किसी मंदिर में प्रविष्ट हो जाती! मैं शरीर में ही रही ;मैंने कभी आत्मा की खोज न की। धन्‍यभागी है, वह संन्यासी। ‘
ऐसे जो संन्यासी था, वह वेश्या के घर रहा – मन से। ऐसे जो वेश्या थी, वह संन्यासी के मंदिर में रही मन से।’ इसलिए ‘, उन्होंने कहा,’ भूल-चूक नहीं हुई है। हम पता लगाकर आ गए। ठीक ही है। वेश्या को स्वर्ग जाना है, क्योंकि जहाँ तुम मन से हो, वहीं तुम हो। ‘
शरीर से होना भी कोई होना है! शरीर मंदिर में हो सकता है ;अगर मन वहाँ नहीं, तो उसको क्या मंदिर कहते हो। मंदिर तो वहीं है, जहाँ मन हो, इसलिये तो हमने उसे मंदिर कहा है। अगर मन ही वहाँ नहीं है, तो लाश पड़ी है। उस लाश के होने से कुछ भी न होगा।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३