हिन्दुस्तान की संस्कृति सिखाती है, सादा जीवन, उच्च विचार (सिम्पल लिविंग और हाई थिंकिंग) एकदम बकवास है। जो समाज धन की निंदा करेगा, वह धन का लोलुप हो जाएगा। जो समाज धन का विरोध करेगा, वह बेईमान हो जाएगा “ओशो”
ओशो- भारत का व्यवसायी समाज हजारों वर्षाें से उत्पादक काम नहीं कर रहा है। भारत का व्यवसायी समाज केवल, बीच के दलाल का काम कर रहा है। उत्पादक, प्रोडेक्टिव भारत का व्यवसायी समाज नहीं है। आज भी, आज भी भारत का बड़ा व्यवसायी समाज उत्पादक और ग्राहक के बीच में कड़ियों का काम कर रहा है। अगर बम्बई में कोई चीज पैदा होती है और बक्सर के गांव तक पहुंचानी है, तो बीच में पच्चीस दलालों की लंबी श्रृंख्ला है। वे बीच के पच्चीस दलाल ही, भारत के बड़े व्यवसायी समाज का हिस्सा हैं। और ध्यान रहे, धन अगर उत्पादन न किया जाए, और धन पर केवल दलाली की जाए, और बीच के मध्यस्थ का काम किया जाए, तो हजार तरह की बेईमानियां शुरू हो जाएंगी। जिस देश में व्यवसायी वर्ग मूलतः दलाल है, उस देश का व्यवसायी वर्ग कभी भी ठीक अर्थाें में ईमानदार नहीं हो सकता।
रवीन्द्रनाथ ने अपने बचपन की एक कहानी लिखी है। उन्होंने लिखा है कि मेरे घर में करीब सौ लोग थे, बड़ा परिवार था, और पिता ऐसे आदमी थे, जो मेहमान घर में आ गया, वह धीरे-धीरे घर का निवासी ही हो गया, वह कभी घर से गया ही नहीं। अनेक मेहमान, मेहमान की तरह आए थे फिर वह घर के ही आदमी होकर रह गए। सौ आदमी थे घर मे कई मन दूध खरीदा जाता था। रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई ने यह पाया कि दूध में पानी मिलाया जा रहा है। तो एक इंस्पैक्टर नियुक्त किया, दूध खरीदने वाले के ऊपर कि वह देखे कि दूध में पानी न मिल जाए। दूसरे दिन पाया गया कि पानी दूध में और ज्यादा बढ़ गया है। क्योंकि इंस्पैक्टर का हिस्सा भी उसमें बढ़ गया। लेकिन भाई जिद्दी थे, और उन्होंने एक और आदमी को ऊपर नियुक्त किया। तो वह इंस्पैक्टर के ऊपर भी और और चीफ सुपरवाइ.जर था। लेकिन तीसरे दिन पाया गया कि पानी और भी बढ़ गया और दूध और कम हो गया। रवीन्द्रनाथ के पिता ने रवीन्द्रनाथ के भाई को बुलाकर कहा कि यह तुम क्या पागलपन कर रहे हो? तुम जितने दलाल बढ़ाते जाओगे, उतना ही पानी बढ़ता चला जाएगा। लेकिन भाई जिद्दी थे। उन्होंने कहा, कि मैं रूकावट लगा के रखूंगा। अब मैं घर के ही एक आदमी को सबसे ऊपर नियुक्त करता हूं। लेकिन जिस दिन घर का आदमी नियुक्त किया गया, उस दिन एक और अजीब घटना घटी, दूध में पानी तो आया ही, एक मछली भी आ गई। दिखता है, सीधे तालाब से, पोखर से पानी भर दिया गया, उसमें एक मछली भी चली आई। वह घर के आदमी का भी हिस्सा उसमें जुड़ गया था।
भारत का व्यवसायी वर्ग, हजारों वर्षों से अनुत्पादक है, उत्पादक नहीं। भारत के व्यवसायी की जो जान है, वह दलाली है, और जिस देश में दलाली जान होगी, दलाल बढ़ते चले जाएंगे। बेईमानी बढ़ती चली जाएगी। और ग्राहक के ऊपर, उपभोक्ता के ऊपर, कंज्यूमर के ऊपर, बोझ बढ़ता चला जाएगा। भारत का व्यवसायी उत्पादक क्यों नहीं है? प्रोडक्टिव क्यों नहीं है? यह थोड़ा सोचना जरूरी है। भारत तीन-चार हजार वर्षों से धन की निंदा कर रहा है। वह कह रहा है, धन फिजूल है। धन व्यर्थ है। धन कचरा है। और जो समाज धन की निंदा करेगा, धन की निंदा से, धन की आकांक्षा समाप्त नहीं होती, धन की आकांक्षा के कुछ स्वाभाविक कारण हैं। धन न तो व्यर्थ है, न असार है। धन की बड़ी सार्थकता है, बड़ी उपयोगिता है।
भारत तीन हजार वर्षों से धन का विरोध करता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि धन का विरोध धन की आकांक्षा को नष्ट नहीं करता, धन का विरोध सिर्फ धन के उत्पादक स्वरूप को नष्ट कर देता है। और एक इस तरह की एक लम्बी जमात पैदा करता है, जो धन का उत्पादन भी नहीं करती, और धन की आकांक्षी भी है। और मजे की बात है कि धन के ही जो विरोध करने वाले लोग हैं, हिन्दुस्तान के साधु-संतों की लम्बी परंपरा है, जो धन का विरोध कर रहे हैं, इन साधु-संतों को हिन्दुस्तान का व्यापारी वर्ग ही पालता-पोसता है। और उन साधु-संतों की बात भी हिन्दुस्तान का व्यापारी वर्ग ही बैठके सुनता है। धन के विरोध को निरन्तर साधु-संयासी समझाएगा। और व्यापारी सुनेगा। इससे धन की आकांक्षा नहीं मिटती। लेकिन धन के उत्पादक दिशा में जाने का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। तब दूध में पानी मिला कर अगर धन आ सकता हो, शक्कर में रेत मिला कर धन आ सकता हो, और दवा की जगह पानी भी भरा जा सकता हो, तो इतने सरल रास्तों से फिर धन इकट्ठा करने की कोशिश की जाती है। उत्पादक होना, क्रियेटिव होना, सृजनात्मक होना श्रम मांगता है, लंबा चिंतन मांगता है, प्रतिभा मांगता है, जीवन भर की साधना मांगता है। तब अंत में धन पैदा होगा। और धन के हम विरोधी हैं, तो कोई सरल तरकीब निकालनी चाहिए। जुआ खेल लेना चाहिए, सट्टा खेल लेना चाहिए। और अब पूरे मुल्क की प्रांतीय सरकारें, सारे मुल्क को जुआ खिलवा रही हैं, तो लाॅटरी निकाल देनी चाहिए, एक रूपया लगा के लाख रूपया मिल जाएं। जो कौम बिना कुछ किये, रूपये पाना चाहती हो, वह कौम खतरनाक है। एक रूपया लगा कर कोई आदमी एक लाख रूपया पाना चाहता हो, यह आदमी अपराधी है। और यह आदमी खतरनाक है, और इस आदमी को समाज में पालना सब तरह की बीमारियों को पैदा करना है। क्योंकि यह आदमी कुछ करना नहीं चाहता और लाख रूपये चाहता है। धन चाहा जाए, जरूर चाहा जाए, लेकिन धन चाहने का अर्थ है, सृजनात्मक होना, धन को पैदा करने का, कैसे हम, हाउ टू क्रियेट कैपिटल? कैसे हम पैदा करें धन? हम इस मुल्क में पूछते हैं, कैसे हम धन इकट्ठा करें? पैदा करने की बात कोई भी नहीं पूछता। क्योंकि पैदा करने के लम्बे श्रम में कौन लगे? फिर धन कोई इतनी अच्छी चीज भी नहीं कि पैदा किया जाए। कोई सस्ती तरकीब से मिल जाए, तो पा लिया जाए। साधु समझा रहा है, धन व्यर्थ है, व्यापारी समझ रहा है। और व्यापारी सिर्फ साधु की बात इसलिए समझ रहा है, कि उसके मन में धन का लोभ है, और साधु धन का विरोध कर रहा है। अगर साधु कहे कि धन पैदा करो, व्यापारी साधु का पीछा फौरन छोड़ देगा। कहेगा यह भी व्यापारी है।
दूसरी बात हिन्दुस्तान की संस्कृति सिखाती है, सादगी। सादा जीना, ऊंचा विचार। सिम्पल लिविंग और हाई थिंकिंग। एकदम बकवास है। सादी जिंदगी और ऊंचा विचार। सच बात ये है ऊंची जिंदगी और ऊंचा विचार। हंा, ऊंची जिंदगी के बाद एक वक्त ऐसा आता है, कि सादी जिंदगी, सारी ऊंची जिंदगियों से ऊंची जिंदगी मालूम होने लगती है। लेकिन अगर कोई ऊंची जिंदगी को जानता नहीं, तो सादी जिंदगी सिर्फ झूठा संतोष है। हिन्दुस्तान को झूठे संतोष की बातें सिखाई जा रही हैं। इसका दोहरा परिणाम हुआ है। गरीब-गरीब रह गया है, क्योंकि वह कहता है, क्या करना है? और अमीर धन भी इकट्ठा कर लेता है, लेकिन रहता गरीब की तरह से है। भारत का व्यवसायी धनी, भारत में जिनके पास पैसा है, वह भी रहते गरीब की भांति हैं। धन इकट्ठा करते हैं। धन को भोगते नहीं हैं, और ध्यान रहे, जिस समाज में, धन को इकट्ठा करने वाले लोग पैदा हो जाते हैं, उस समाज की पूरी जिंदगी सड़ जाती है। धन को भोगने वाले लोग चाहिएं। जो धन को खर्च करते हों, जो धन को फैलाते हों, जो धन को रोकते न हों। लेकिन हिन्दुस्तान में धन को रोका जा रहा है। हिंदुस्तान में आदमी धन इसलिए कमाता है कि तिजोरी में बंद करे। क्योंकि सादी जिंदगी पर जोर है। धनी एक काम करता है, तिजोरी को बड़ा करते चले जाओ। और धनी आदमी ठेठ गरीब की तरह जीता है, बल्कि लोग तारीफ करते हैं कि फलां आदमी बहुत ऊंचा है। इतना बड़ा आदमी है, लेकिन रहता गरीब की भांति है। हिन्दुस्तान में एक पागलपन है। और वह यह है कि धन कमाओ तो जरूर, लेकिन उसे खत्म मत करना, रहना गरीब की तरह। सादे विचार रखना, सादे मकान में रहना, सादे कपड़े पहनना। लेकिन फिर इस धन का दिखावा कहां करोगे? इस धन का फायदा क्या होगा? फिर इस धन को गलत जगह दिखाना। लड़की की शादी हो, तो पांच लाख रूपये आग में फूंक देना। जो कि बिल्कुल पागलपन है। फुलझड़ी-पटाखे छोड़ देना हजारों रूपये के।
साधु समझा रहे हैं, चादर जितनी हो, उससे ज्यादा पैर कभी नहीं पसारने चाहिए। और ध्यान रहे व्यवसाय का सूत्र यह है, कि चादर जितनी हो उससे हमें ज्यादा पैर पसारने चाहिएं। कोई आदमी अगर चादर के भीतर पैर पसारेगा, तो चादर कभी बड़ी नहीं हो सकती, बड़ी होने की जरूरत नहीं, चैलेंज नहीं, चुनौती नहीं। जब कोई आदमी चादर के बाहर पैर फैलाता है, पैर पर ठंड लगती है, तब वह चादर को बड़ा करने का विचार करता है।
अमेरिका में या पश्चिम में जो धन का आकाश से जो एकदम अम्बार टूट पड़ा है, वह आकस्मिक नहींे है, वह आकस्मिक बिल्कुल नहीं है, उसके पीछे कारण है, उन्होंने यह बात समझ ली है, कि हम जितनी आवश्यकता को बढ़ाएंगे, उतनी आवश्यकता मांग करती है कि पैदा करो। आवश्यकता बढ़ती है, तो उत्पादन बढ़ता है, आवश्यकता बढ़ती है चादर, छोटी पड़ जाती है, पैर आगे निकल जाते हैं, तो बड़ी चादर करने का विचार करना पड़ता है।
हिन्दुस्तान हजारों साल से इस तरह की नासमझी की बातें सुन रहा है कि जितनी चादर हो उससे कम पैर सिकोड़ो। अगर तुम बड़े हो जाओ तो और पैर अपने पेट से लगा कर सो जाओ। लेकिन चादर के बाहर पैर मत निकालना। यह बातें हमें सुनने में अच्छी लगती हैं। क्यों? क्योंकि, यह बातें आलस्य को प्रोत्साहन देती हैं। यह बातें हमें सुनने में अच्छी लगती हैं। क्योंकि यह बातें, हमें खतरनाक रास्तों पर जाने से बचा लेती हैं। यह बातें सुनने में अच्छी लगती हैं, क्योंकि यह संघर्ष और तनाव से हमें बचा लेती हैं। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं , बिना तनाव के, बिना संघर्ष के, बिना असंतुष्ट हुए, इस जगत में कुछ भी पैदा नहीं होता है। और यह भी मैं आपसे कहना चाहता हूं , कि जो आदमी कभी असंतुष्ट नहीं हुआ हो, वो आदमी संतोष के राज को भी कभी नहीं समझ पाएगा। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी, लेकिन मैं आपसे कहता हूं जो आदमी दिन में ठीक से जागा है, वही आदमी रात में ठीक से सोता है। और जिस आदमी ने दिनभर मजदूरी और मेहनत की है, वो आदमी जितना विश्राम करता है, उतना आदमी वह कभी विश्राम नहीं करता जिसने दिन भर कोई श्रम नहीं किया। श्रम करने वाला विश्राम करने की क्षमता जुटा लेता है, और मैं आपसे कहता हूं असंतुष्ट होने वाला, संतुष्ट होने की क्षमता जुटाता है। और जो आदमी जितने तनाव में जीता है, वह उतना शान्त होने की ताकत इकट्ठी करता है। और जो आदमी तनाव से भागता है, असंतोष से भागता है, सब तरह के संघर्ष से भागता है, वह आदमी शांति को कभी उपलब्ध नहीं होता।
भारत का समाज पुराने से पीड़ित, पुराना हमारी छाती पर बैठा हुआ है। उससे हमारा कोई छुटकारा नहीं हो रहा है। एक, उसे पुराने को पूरा का पूरा एक साथ, गिरा देना जरूरी हो गया है। उसे आग लगा देने की जरूरत, उस पूरे को गिरा देने की आवश्यकता है। और उस पुराने ने जो सूत्र हमें दिये हैं, उन सूत्रों को भी गिरा देने की जरूरत है।
जैसे मैंने कुछ सूत्र कहे, वह मैं दोहरा दूं। एक तो धन की निंदा खतरनाक है। जो समाज धन की निंदा करेगा, वह धन का लोलुप हो जाएगा। जो समाज धन का विरोध करेगा, वह बेईमान हो जाएगा। धन सीधा स्वीकृत हो, तो लोलुपता नष्ट होती है। और दूसरी बात, धन के उत्पादक, धन के उत्पादन पर सम्मान दिया जाना चाहिए। जो धन को इकट्ठा करे, वह नहीं है सम्मानी।