जो शिक्षा प्रलोभन सिखाती है, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा सिखाती है, महत्वाकांक्षा के ज्वर में दीक्षा देती है, ऐसी शिक्षा ज्ञान की प्रसारक कैसे होगी? ऐसी शिक्षा मुक्तिदायी कैसे होगी? ऐसे मनुष्य स्वस्थ कैसे होगा? “ओशो”

 जो शिक्षा प्रलोभन सिखाती है, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा सिखाती है, महत्वाकांक्षा के ज्वर में दीक्षा देती है, ऐसी शिक्षा ज्ञान की प्रसारक कैसे होगी? ऐसी शिक्षा मुक्तिदायी कैसे होगी? ऐसे मनुष्य स्वस्थ कैसे होगा? “ओशो”

ओशो– प्रत्येक पीढ़ी को, हर नई पीढ़ी को इस भांति तैयार करना चाहिए कि वह उसे सब भांति पीछे छोड़ दे। वह उससे ही बंधी रहे और उसके दायरे में ही घूमती रहे यह इच्छा रुग्ण है और उससे स्वस्थ मन की सूचना नहीं मिलती है। यह विचार करना जरूरी है कि क्या शिक्षा इन रुग्ण लक्ष्मण-रेखाओं को खींचने में सहयोगी नहीं रही है?
मैं तो इस पागलपन को समझ ही नहीं पाता हूं। मेरा प्रेम तो यही कहता है कि जो मेरे पीछे जगत में आ रहे हैं, वे सब भांति मेरे आगे बढ़ें। वे एक ऐसी दुनिया बनाएं जिसकी कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उनकी आत्मा हम से उज्जवल हो, उनके विचार हमसे निर्मल हों। उनकी आंखें उन सत्यों का साक्षात्कार करें जो हम नहीं कर सके, और उनके चरण उन अज्ञात पथों का स्पर्श करें जो कि हमें स्वप्न में भी ज्ञात नहीं थे। प्रेम तो ऐसी ही प्रार्थनाएं कर सकता है। मैं न तो बच्चों को अपने ज्ञान से बांधना चाहूंगा और न अपने अनुभवों से ही। मैं तो उन्हें मुक्त करना चाहूंगा। प्रेम तो सदा मुक्त करता है। जो बांधता है, वह प्रेम ही नहीं है—वह तो हिंसा ही है।
शिक्षा भविष्योन्मुख होनी चाहिए, अतीतोन्मुख नहीं, तभी विकास हो सकता है। कोई भी सृजनात्मक प्रक्रिया भविष्योन्मुख ही हो सकती है। क्या यह उचित नहीं है कि हम भविष्य के लिए प्रेम और आदर सिखाएं? अतीत की अर्थहीन पूजा बहुत हो चुकी। क्या अब यह उचित नहीं है कि हम भविष्य के सूर्योदयों के लिए हमारे हृदयों में प्रार्थनाएं हों? लेकिन हम तो अतीत से बंधे हैं। अतीत यानी जो बीत गया है और अब सिवाय स्मृति के और कहीं भी नहीं है। हमारे सारे सिद्धांत, सारी धारणाएं, सारे आदर्श अतीत से ही लिए हुए हैं। इस भांति मृत का जीवित पर शासन है। मृत के प्रति सम्मान एक बात है, उसका शासन बिलकुल ही दूसरी बात है। बल्कि शासन के कारण ही स्वस्थ सम्मान भी संभव नहीं हो पाता है। शासन के प्रति तो भीतर ही भीतर प्रतिरोध भी संग्रहीत होता रहता है। अतीत के प्रति हार्दिक सम्मान तो तभी होगा जब कि अतीत का कोई भी शासन न हो; वह सम्मान अत्यंत आत्मिक होगा। और उस सम्मान में अनुग्रह होगा और कृतज्ञता होगी। वह कृतज्ञता हमें बांधेगी नहीं बल्कि और निर्भार और हल्का करेगी। हृदय उनके प्रति सहज ही कृतज्ञता से भर उठता है जो मुक्त करते हैं।
जो बांधते हैं, उनके प्रति कृतज्ञता अस्वाभाविक है और असंभव है।
शिक्षा को ज्ञान का प्रसार कहा जाता है। निश्चय ही उसे ज्ञान का प्रसारक होना चाहिए। लेकिन जो बंधनों को भी प्रसारित करती हो वह ज्ञान की प्रसारक नहीं हो सकती है। ज्ञान तो वहां है, जहां मन मुक्त है। मन जहां बंधनों में है, वहां ज्ञान कहां? ज्ञान तो स्वयं ही मुक्ति है।
शिक्षा भय सिखाती है। शिक्षा प्रलोभन सिखाती है। शिक्षा ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा सिखाती है। शिक्षा महत्वाकांक्षा के ज्वर में दीक्षा देती है। ऐसी शिक्षा ज्ञान की प्रसारक कैसे होगी? ऐसी शिक्षा मुक्तिदायी कैसे होगी? ऐसे मनुष्य स्वस्थ कैसे होगा? यह तो घातक रोगों का प्रसार है। मित्र, यह ज्ञान प्रसार तो नहीं है, यह तो अज्ञान का ही प्रसार है।
मैं देखता हूं तो पाता हूं कि भय से अधिक भयानक और कोई बीमारी नहीं है। जीवन में भय से अधिक भयभीत होने को और क्या है? भय तो प्राणों को लकवा ही मार देता है। भय तो विद्रोह की समस्त क्षमता को ही नष्ट कर देता है। भय तो परिवर्तन को असंभव ही बना देता है। भय ज्ञात से बांध देता है और अज्ञात की सब यात्रा बंद हो जाती है। जब कि जीवन में जो भी जानने और पाने योग्य है वह सब अज्ञात है।
परमात्मा अज्ञात है। सत्य अज्ञात है। सौंदर्य अज्ञात है। प्रेम अज्ञात है। किंतु भयभीत चित्त तो भय के कारण ज्ञात से ही चिपटा रहता है। वह तो लीक को कभी छोड़ता ही नहीं। वह तो परिचित पटरियों पर ही दौड़ता रहता है। वह तो यंत्रवत हो जाता है और उसकी गति कोल्हू के बैल से भिन्न नहीं होती है। धर्म भय सिखाते हैं—नरकों का भय, पापों का भय, दंडों का भय। समाज भय सिखाता है—असम्मान का भय। शिक्षा भी भय सिखाती है—असफलता का भय।
और साथ ही प्रलोभन हैं—स्वर्ग का प्रलोभन, पुण्य फलों का प्रलोभन, सम्मान, पद का प्रलोभन, प्रतिष्ठा का प्रलोभन, सफलताओं, पुरस्कारों का प्रलोभन। प्रलोभन भी भय के सिक्के के ही दूसरे पहलू हैं। इस भांति व्यक्ति-चेतना, भय से और लोभ से भर-भर जाती है। ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की अग्नि जलाई जाती है, महत्वाकांक्षा का ज्वर जगाया जाता है। फिर इन सब विवर्तों में जीवन नष्ट हो जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है!
ऐसी शिक्षा खतरनाक है। ऐसे धर्म खतरनाक हैं। शिक्षा तो वह है जो अभय सिखाए, अलोभ में प्रतिष्ठा दे, साहस दे और विद्रोह की शक्ति दे—अज्ञात की चुनौती को मानने की हिम्मत दे। ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा नहीं, प्रेम सिखाए। महत्वाकांक्षा की ज्वरग्रस्त गति नहीं, वरन सहज, स्वस्फूर्त विकास दे।
लेकिन यह तो तभी होगा जब हम प्रत्येक व्यक्ति की निजता की अद्वितीयता को स्वीकार करेंगे। किसी की किसी से तुलना आधारभूत भूल है। तुलना से स्पर्धा होती है। न कोई किसी से आगे है, न पीछे; न कोई किसी से ऊपर है, न नीचे। प्रत्येक वही है जो वह है और प्रत्येक को वही होना है। आदर्शों की सिखावन यह नहीं होने देती है। बच्चों को कहा जाता है, राम जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, गांधी जैसे बनो। इससे भूल भरी बात और क्या होगी? क्या कोई किसी और जैसा बन सकता है या कि कभी बन सका है?
राम तो बनना असंभव है। हां, रामलीला के राम जरूर बन सकते हैं। इसी कारण तो संसार में इतना पाखंड है। पाखंड आदर्श की छाया है। जब तक आदर्श थोपे जाएंगे तब तक पाखंड भी रहेंगे। पाखंड को मिटाना है तो आदर्शों को छोड़ना आवश्यक है।
वस्तुतः कोई भी मनुष्य किसी दूसरे जैसा होने को पैदा नहीं हुआ है। प्रत्येक को स्वयं जैसा ही होना है। प्रत्येक को, उस बीज को ही वृक्ष तक पहुंचाना है जो कि उसमें ही छिपा है, और मौजूद है।
शिक्षा जिस दिन भी व्यक्ति की अद्वितीय और बेजोड़ निजता के सत्य को स्वीकार करेगी, उस दिन ही एक बड़ी क्रांति का सूत्रपात हो जाएगा। फिर हम किसी के ऊपर किसी और के ढांचे को नहीं थोपेंगे। वरन उस व्यक्ति के बीज में ही जो प्रसुप्त है उसके जागरण के लिए ही चेष्टारत होंगे। आदर्शों के कारण बहुत हिंसा होती रही है और व्यक्ति को वही होने का अवसर नहीं दिया जा सका है जो कि वह हो सकता है। और अन्य होने के प्रयास में अन्य तो कोई हो ही नहीं पाता है। हां, वह होने से जरूर वंचित रह जाता है जो कि वह हो सकता था।
मैं अत्यंत विनम्रता से यह निवेदन करना चाहता हूं कि मनुष्य को वही होने दें जो कि होने को वह पैदा हुआ है। गुलाब गुलाब है, और चमेली चमेली, और जुही जुही। और कोई किसी से न छोटा है, न बड़ा है। गुलाब को चमेली नहीं होना है और चमेली को जुही नहीं होना है। यह छोटे-बड़े और ऊंचे-नीचे का मूल्यांकन एकदम झूठा और बेहूदा है। इस मूल्यांकन को नष्ट करें। कवि चमार से बड़ा नहीं है और न राजनेता ही किसी से बड़ा है। क्रमशः……..

 

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३