धर्म तो सिर्फ धर्म होता है. जैसे विज्ञान सिर्फ विज्ञान होता है-ये हिंदू, मुसलमान, ईसाई नहीं होता “ओशो”

 धर्म तो सिर्फ धर्म होता है. जैसे विज्ञान सिर्फ विज्ञान होता है-ये हिंदू, मुसलमान, ईसाई नहीं होता “ओशो”

ओशो– सभ्यता बांटी जा सकती है भूगोल में, क्योंकि सभ्यता बाह्य आचरण की व्यवस्था है। लोगों के कपड़े पहनने का ढंग, लोगों के भोजन का ढंग, लोगों के उठने-बैठने का सलीका, शिष्टाचार–यह “सभ्यता’ शब्द को ख्याल में रखना, उसका अर्थ होता है: सभा में बैठने की योग्यता। दूसरों के साथ बैठने की योग्यता। इसलिए हम किसी संस्था के सदस्य को सभ्य कहते हैं। सभ्य का अर्थ है: वह इस योग्य है कि चार लोगों के बीच बैठ सके।…सभ्यता बाहरी नाता है। संस्कृति आत्मिक परिष्कार है।

संस्कृत व्यक्ति तो थोड़े-से ही हुए हैं दुनिया में। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मुहम्मद, नानक, कबीर, जीसस, जरथुस्त्र, लाओत्सू–थोड़े-से ही लोग सुसंस्कृत हुए हैं। अभी पृथ्वी इतनी धन्यभागी कहां हुई! हो सकती है, मगर मोरारजी देसाई जैसे लोग बाधा हैं।

इस भेद को स्पष्ट समझ लो!

सभ्यता भौगोलिक होती है–होगी ही!–लेकिन संस्कृति आध्यात्मिक होती है। और अध्यात्म के लिए कोई नक्शे पर बंधी हुई रेखाएं काम नहीं आती। अध्यात्म का कोई नक्शा नहीं। अध्यात्म की कोई राजनीति नहीं। भारत में नमस्कार करते हैं, दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार करते हैं। पश्चिम में लोग नमस्कार करते हैं, हाथ को एक-दूसरे के पकड़ कर नमस्कार करते हैं। अफ्रीका का एक कबीला जब नमस्कार करता है तो एक-दूसरे की जीभ मिला कर नमस्कार करते हैं। यह सभ्यता है। यह, इसका कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं है कि तुम हाथ मिलाते हो, कि हाथ हिलाते हो, कि जीभ मिलाते हो, कि नाक रगड़ते हो–नाक रगड़ने वाले लोग भी हैं। बर्मा में एक कबीला जब मिलता है तो एक-दूसरे के नाक रगड़ते है। इतना तय है कि जब दूसरे से हम मिलते हैं तो कहीं से बात शुरू करनी पड़ेगी। फिर कहां से तुम तय करते हो, यह भूगोल से तय होता है, मौसम से तय होता है, वातावरण से तय होता है, परंपरा से तय होता है।

लेकिन संस्कृति बात और है! बुद्ध को नानक के साथ बिठाओ, कि कबीर के साथ, कि बहाऊद्दीन के साथ, कि संत फ्रांसिस के साथ, कि इकहॉर्ट के साथ, वे सभी एक तरह के लोग होंगे। उन सबके भीतर का कमल खिला है। उन सब के भीतर सुगंध उड़ रही है–एक ही परमात्मा की सुगंध। उस सुगंध का नाम संस्कृति है। वह संस्कृति भारतीय और अभारतीय नहीं होती। और उस संस्कृति को पाने की प्रक्रिया और विज्ञान का नाम धर्म है। इसलिए धर्म न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, न ईसाई होता है। धर्म तो सिर्फ धर्म होता है। जैसे विज्ञान सिर्फ विज्ञान होता है।

तुम सौ डिग्री पर पानी गरम करो तो पानी भाप बनता है; यह वैज्ञानिक नियम है। इसमें कोई अपवाद नहीं है। फिर सिक्ख करे गरम, कि जैन करे गरम, कि बौद्ध करे गरम, इससे कुछ फर्क न पड़ेगा, पानी सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। ब्राह्मण करे कि शूद्र करे, कि क्षत्रिय करे कि वैश्य करे, कुछ पानी अपना नियम नहीं बदलेगा। पानी का नियम प्राकृतिक है। वह तुम्हारी इन मूढ़ताओं में न फंसेगा, कि तुम ब्राह्मण हो तो जरा जल्दी गरम हो जाऊं। कि ब्राह्मण देवता गरम कर रहे हैं, कि जल्दी भाप बन जाऊं! कि शूद्र गरम कर रहा है, क्या जल्दी पड़ी है, दो सौ डिग्री पर भाप बनूंगा, शूद्र है, इसकी क्या फिक्र करनी! न वेद जानता है, न उपनिषद जानता है, छूने योग्य भी नहीं है यह, इसकी मुझे क्या पड़ी! नहीं, प्रकृति का नियम किसी के लिए अपवाद नहीं है; सबके लिए एक जैसा है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
दीपक बारा नाम का-10