जो भीतर दुखी है, वह बाहर सुख को खोजता है, लेकिन जो भीतर दुखी है वह बाहर सुख को कैसे पा सकेगा? “ओशो”
ओशो– अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि जीवन में सत्य को पाने की क्या जरूरत है? जीवन इतना छोटा है उसमें सत्य को पाने का श्रम क्यों उठाया जाए? जब सिनेमा देख कर और संगीत सुन कर ही आनंद उपलब्ध हो सकता है, तो जीवन को ऐसे ही बिता देने में क्या भूल है?
यह प्रश्न इसलिए उठता है, क्योंकि हमें शायद लगता है कि सत्य और आनंद अलग अलग हैं। लेकिन नहीं, सत्य और आनंद दो बातें नहीं हैं। जीवन में सत्य उपलब्ध हो तो ही आनंद उपलब्ध होता है। परमात्मा उपलब्ध हो तो ही आनंद उपलब्ध होता है। आनंद, सत्य या परमात्मा एक ही बात को व्यक्त करने के अलग अलग तरीके हैं। तब इस भांति न सोचें कि सत्य की क्या जरूरत है?
सोचें इस भांति कि आनंद की क्या जरूरत है? और आनंद की जरूरत तो सभी को मालूम पड़ती है, उन्हें भी जिनके मन में इस तरह के प्रश्न उठते हैं। संगीत और सिनेमा में जिन्हें आनंद दिखाई पड़ता है उन्हें यह बात समझ लेना जरूरी है कि मात्र दुख को भूल जाना ही आनंद नहीं है। सिनेमा, संगीत या इस तरह की और सारी व्यवस्थाएं केवल दुख को भुलाती हैं, आनंद को देती नहीं। शराब भी दुख को भूला देती है, संगीत भी, सिनेमा भी, सेक्स भी। इस तरह दुख को भूल जाना एक बात है और आनंद को उपलब्ध कर लेना बिल्कुल ही दूसरी बात है।
मनुष्य के जीवन में बेहोशी के बहुत रास्ते हैं। जितनी इंद्रियां हैं उतने ही बेहोश होने के रास्ते भी हैं। प्रत्येक इंद्रिय का बेहोश होने का अपना रास्ता है।
एक आदमी दरिद्र है और वह अपनी दरिद्रता को भूल जाए यह एक बात है, और वह समृद्ध हो जाए यह बिल्कुल ही दूसरी बात है। दुख को भूल जाने से सुख का भान पैदा होता है। सुख केवल दुख का विस्मरण मात्र है। और आनंद? आनंद बात ही अलग है, वह किसी चीज का विस्मरण नहीं, स्मरण है। वह किसी बीज की उपलब्धि है, विधायक उपलब्धि। आनंद विधायक है, सुख नकारात्मक है।
एक बात तय कि हम जो हैं, जैसे हैं, जैसे होने से तृप्त नहीं हैं। इसीलिए खोज की जरूरत है। जो तृप्त है उसे खोज की कोई भी जरूरत नहीं है। हम जो हैं उससे तृप्त नहीं हैं। हम जहां वहां से तृप्त नहीं हैं। भीतर एक बेचैनी है, एक पीड़ा है, जो निरंतर कहे जा रही है कि कुछ गलत है, कुछ गड़बड़ है। वही बेचैनी कहती है..खोजो! उसे फिर सत्य नाम दो, चाहे और कोई नाम दो उससे भेद नहीं पड़ता। संगीत में और सिनेमा में भी उसकी ही खोज चल रही है। लेकिन वह दिशा गलत और भ्रांत है। जब कोई आत्मा की दिशा में खोज करता है, तब ठीक और सम्यक दिशा में उसकी खोज शुरू होती है। क्योंकि दुख को भूलने से आज तक कोई आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है, लेकिन आत्मा को जान लेने से व्यक्ति जरूर आनंद को उपलब्ध हो जाता है। जिन्होंने उस सत्य की थोड़ी सी झलक पा ली है उनके पूरे जीवन में एक क्रांति हो जाती है। उनका सारा जीवन आनंद और मंगल की वर्षा बन जाता है। फिर वे बाहर संगीत में भूलने नहीं जाते क्योंकि उनके हृदय की वीणा पर स्वयं एक संगीत बजने लगता है। फिर वे बाहर सुख की खोज में नहीं भटकते हैं, क्योंकि उनके भीतर एक आनंद का झरना फूट जाता है।
जो भीतर दुखी है, वह बाहर सुख को खोजता है, लेकिन जो भीतर दुखी है वह बाहर सुख को कैसे पा सकेगा? जो भीतर आनंद से भर जाता है, उसकी बाहर सुख की खोज जरूर बंद हो जाती है, क्योंकि जिसे वह खोजता था वह तो उसे स्वयं के भीतर ही उपलब्ध हो गया है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-03)
आनंद खोज की सम्यक दिशा