ईशावास्य सूत्र- इंद्रियों से आत्मा को कोई जान नहीं सकता, कितनी ही तीव्र हो उनकी दौड़ क्योंकि मन भी इंद्रिय ही है “ओशो”
ओशो– ईशावास्य का यह सूत्र कहता है — इंद्रियां इसे पा न सकेगी, क्योंकि यह इंद्रियों के पहले है स्वभावत:, मैं आंख से आपको देख सकता हूं मेरी आंख से आपको देख सकता हूं आप मेरी आंख के आगे हैं। लेकिन मैं मेरी आंख से अपने को नहीं देख सकता, क्योंकि मैं आंख के पीछे हूं। तो आपको देख लेता हूं क्योंकि आप मेरी आंख के आगे हैं। अपने को नहीं देख पाता अपनी ही आंख से, क्योंकि मैं आंख के पीछे हूं। अगर मेरी आंख चली जाए, मैं अंधा हो जाऊं, तो फिर मैं आपको बिलकुल न देख पाऊंगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं अपने को नहीं देख पाऊंगा। अगर आंख से मैं अंधा हो जाऊं तो उन्हीं चीजों को नहीं देख पाऊंगा, जिनको आंख से देखता था। लेकिन अपने को तो कभी आंख से देखा ही नहीं था। इसलिए अंधा होकर भी मैं अपने को तो देखता ही रहूंगा।
इसमें दो बातें खयाल में लेने की हैं। इंद्रियां उन चीजों को देखने का, जानने का माध्यम बनती हैं, जो इंद्रियों के सामने हैं। इंद्रियां उन चीजों को देखने का माध्यम नहीं बनतीं, जो इंद्रियों के पीछे हैं। पीछे के भी दोहरे अर्थ हैं। पीछे का अर्थ सिर्फ पीछे नहीं, पूर्व भी।
एक बच्चे का गर्भ निर्मित होता है, तो जीवन पहले आ जाता है, फिर इंद्रियां आती हैं। ठीक भी है। क्योंकि अगर जीवन पहले न आ गया हो, तो इंद्रियों का निर्माण कोन करेगा? जीवन तो पहले आ जाता है। आत्मा तो पहले प्रवेश कर जाती है गर्भ के अणु में। पूरी आत्मा प्रवेश कर जाती है। फिर एक—एक इंद्रिय विकसित होनी शुरू होती है। फिर शरीर निर्मित होना शुरू होता है। मां के पेट में सात महीने में इंद्रियां धीरे— धीरे खिलती हैं। नौ महीने में इंद्रियां अपना पूरा रूप ले लेती हैं। लेकिन कुछ चीजें तब भी पूरी नहीं होतीं। जैसे सेक्स इंद्रिय तो पूरी नहीं होती। उसको तो पूरा होने में मां के पेट से निकलने के बाद भी चौदह वर्ष लग जाते हैं। मस्तिष्क के बहुत से हिस्से हैं, धीरे— धीरे विकसित होते हैं, पूरे जीवन विकसित होते रहते हैं। मरता हुआ आदमी भी, मरता हुआ आदमी भी बहुत कुछ अभी विकसित कर रहा होता है।
लेकिन जीवन आ गया होता है पहले, इंद्रियां आती हैं पीछे, उपकरण आते हैं बाद में। मालिक आ जाता है पहले, नौकर बुलाए जाते हैं बाद में। स्वभावत:, नौकरों को बुलाएगा कोन? इकट्ठा कोन करेगा? तो वह मालिक नौकरों को तो जान सकता है, लेकिन ये नौकर लौटकर उस मालिक को नहीं जान सकते हैं। वह आत्मा इन इंद्रियों को तो जान सकती है, लेकिन ये इंद्रियां लौटकर उस आत्मा को नहीं जान सकती हैं। क्योंकि उसका होना इन इंद्रियों के पहले है और इतना गहरे में है, जहां इंद्रियों की कोई पहुंच नहीं है।
इंद्रियां ऊपर हैं। वे भी जीवन का आवरण हैं। इसलिए इंद्रियों से आत्मा को कोई जान नहीं सकता, कितनी ही तीव्र हो उनकी दौड़। मन भी इंद्रिय है। मन कितना तेजी से दौड़ता है! इसलिए एक पैराडाक्स इस वक्तव्य में है और वह यह है कि इतना तेज दौड़ने वाला मन भी उस आत्मा को नहीं पा पाता, जो कि ठहरी ही हुई है। इतना तेज दौड़ने वाला मन भी उसे नहीं उपलब्ध कर पाता, जो कि चलती ही नहीं है। इतना तेजी से चलने वाला मन उसे चूक जाता है। बड़ी अजीब दौड़ है! प्रतियोगिता बहुत हैरानी की है! आत्मा, जो कि ठहरी हुई है, थिर है, इस मन को उसे पा लेना चाहिए।
लेकिन अक्सर ऐसा होता है। जीवन में भी ठहरी हुई चीजों को ठहरकर पाया जा सकता है, दौड़कर नहीं पाया जा सकता। आप रास्ते से चलते हैं। किनारे पर फूल खिले हुए हैं, वे ठहरे हुए हैं। आप जितने धीमे चलते हैं, उतने ही ज्यादा उनको देख पाते हैं। खड़े हो जाते हैं तो पूरा देख पाते हैं। और जब कार से आप नब्बे मील की गति से उनके पास से निकलते हैं, तो कुछ भी पकड़ में नहीं आता। और हवाई जहाज से निकल जाते हैं, तब तो पता ही नहीं चलता है। और कल और बड़े तीव्र गति के साधन हो जाएंगे, तो फूल था भी, इसका भी पता नहीं चलेगा। दस हजार मील प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाला यान रास्ते के किनारे खड़े हुए फूल को चूक जाएगा। गति के कारण ही उसको चूक जाएगा, जो कि खड़ा हुआ था।
मन बड़ी तेजी से दौड़ता है। अभी हमारे पास कोई यान नहीं है जो उतनी तेजी से दौड़ता हो। और भगवान न करे कि किसी दिन ऐसा यान हो जाए, जो हमारे मन की तेजी से दौड़े। नहीं तो मन हमारा पीछे रह जाएगा, हम आगे निकल जाएंगे। बहुत दिक्कत होगी। बहुत कठिनाई हो जाएगी। आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। नहीं, ऐसा कभी होगा भी नहीं कि कोई यान हमारे मन से तेजी से दौड़ सके। यान चांद पर पहुंचेगा, तब तक मन मंगल की यात्रा कर रहा होगा। यान जब मंगल पर पहुंचेगा, मन तब तक और दूसरे सौ जगतों में प्रवेश कर जाएगा। मन सदा आगे दौड़ता रहता है सब यानों के। कितनी ही तेज उनकी गति हो। इतना तेजी से दौड़ने वाला मन उस ठहरी हुई आत्मा को नहीं पा सकेगा, उपनिषद कहते हैं। ठीक कहते हैं। क्योंकि जो बिलकुल ही ठहरा हुआ हो, उसे दौड़कर नहीं पाया जा सकता, उसे तो ठहरकर ही पाना पड़ेगा। अगर मन बिलकुल ठहर जाए तो ही उसको जान सकेगा, जो ठहरा हुआ है
यह भी जान लें आप, जब मन बिलकुल ठहर जाता है तो होता ही नहीं। मन जब तक दौड़ता है तभी तक होता है। सच तो यह है कि दौड़ का नाम मन है। मन दौड़ता है, यह भाषा की गलती है। जब हम कहते हैं, मन दौड़ता है, तो भाषा की गलती हो रही है। यह गलती वैसे ही हो रही है जैसे हम कहते हैं कि बिजली चमकती है। असल में जो चमकती है उसका नाम बिजली है। बिजली चमकती है, ऐसा दो बातें कहने की कोई जरूरत नहीं है। आपने कभी न चमकने वाली बिजली देखी है? तो फिर बेकार है। असल में जो चमकता दूर उसका नाम बिजली है। मगर भाषा में दिक्कत्त होती है। भाषा में हम बिजली को अलग वस्र लेते हें और चमकने को अलग कर लेते हैं। फिर हम कहते हैं, देखो, बिजली चमक रही है। कहना चाहिए कि देखो जो चमक रहा है, इसको हम भाषा में बिजली कहते हैं। चमकना और बिजली एक ही चीज के दो नाम हैं।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
ईशावास्य उपनिषाद–प्रवचन–04