स्त्री अपने परम सौंदर्य को उपलब्ध होती है मां बन कर क्योंकि सिर्फ बच्चे का ही थोड़े जन्म होता है, उसी दिन मां का भी जन्म होता है “ओशो”
प्रश्न– जीसस कहते हैंः प्रेम परमात्मा है। फरीद गाते हैंः अकथ कहानी प्रेम की। और आप भी कहते हैंः प्रेम है आनंद, प्रेम है मुक्ति, प्रेम है समाधि की सुवास। फिर क्या कारण है कि मीरा गाती हैः
जो मैं ऐसा जानती, प्रेम किए दुख होय।
जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।।
ओशो- एक पहलू फरीद कह रहे हैं, दूसरा पहलू मीरा कह रही है। और दोनों ही प्रेम की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं।
मीरा कहती हैः जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय। यह विरह की अवस्था है। प्रेम जब होता है तो पहली अवस्था तो विरह है। जिसको प्रेम होता है, उसी को विरह होता है। जिसको प्रेम ही न हो उसको तो विरह नहीं होगा।
तुमने भी अगर कभी प्रेम नहीं किया तो विरह की पीड़ा तुम न जानोगे। विरह की पीड़ा का सौभाग्य तो उसी को मिलता है जिसने प्रेम किया। मैं कहता हूंः सौभाग्य; क्योंकि उसी पीड़ा के पीछे फिर मिलन का आनंद छिपा है। मीरा विरह के क्षण में कह रही हैः जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय। जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।। मगर यह तो पहले पता न था, तो प्रेम कर बैठे। अब लौटने का तो कोई उपाय नहीं।
प्रेम से कोई लौट नहीं सकता। उससे पीछे जाने का उपाय ही नहीं है। अगर बचना हो तो पहले ही बचना। उतरना ही मत उस नदी में, अन्यथा वह बहा ले जाएगी। और बड़ी पीड़ा है; क्योंकि जितना प्रेम बढ़ता है उतना प्यारा दूर मालूम पड़ता है। जितना प्रेम बढ़ता है उतना एक-एक क्षण प्रतीक्षा करना कठिन होता जाता है। जितना प्रेम बढ़ता है उतनी ही अभीप्सा की आग जलती है; उतना ही परमात्मा अब मिले,
अब मिले, अब मिले, चैन खो जाता है।
जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय।
जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।।
यह पहली दशा है विरह की, यात्रा का प्रारंभ। फिर फरीद कहते हैंः अकथ कहानी प्रेम की। फिर नानक, कबीर, दादू, जिन्होंने भी प्रेम जाना है वे सभी यही कहते हैंः ढाई आखर प्रेम के, पढ़ै सो पंडित होय। जिसने पढ़ लिए ढाई अक्षर प्रेम के, वह ज्ञान को उपलब्ध हो गया। पर यह मिलन की बात है। विरह की रात जा चुकी, मिलन की सुबह हो गई।
और मीरा जो कह रही है, ध्यान रखना यह कोई शिकायत नहीं है। यह कोई प्रेम के विरोध में कही गई बात नहीं है। यह तो अत्यंत प्रेम में ही कही गई बात है। यह तो प्रेमी परमात्मा से लड़ रहा है। वह तुमसे नहीं कह रही है यह बात; वह अपने प्रभु से कह रही है कि जो मैं ऐसा जानती कि तुम ऐसे दगेबाज, कि तुम ऐसे धोखेबाज कि इतनी देर लगा दोगे, कि ऐसा तड़पाओगे कि जैसे मछली तड़पती हो पानी के बाहर, और तुम दूर हटते चले जाओगे। और जितना मैं आती हूं पास, उतना ही पाती हूं, तुम दूर!
जो मैं ऐसा जानती..यह एक प्रेमिका की शिकायत है प्रेमी से। यह संसार से नहीं कर रही है वह।
जो मैं ऐसा जानती, प्रेम किए दुख होय।
जगत ढिंढोरा पीटती, प्रेम न कीजै कोय।।
तो मैं सबको समझा आती। मैं सबको कह देती कि बचो, सावधान रहो इस छलिया से। इससे दूर रहना। यह धोखेबाज है। यह बुलाता है पास और दूर हटता चला जाता है। यह तड़पाता है, जैसे कि तड़फाने में इस तरह में इसे कोई सुख आता हो।
यह शिकायत है परमात्मा से प्रेमी की, पर बड़ी प्रेम पूर्ण है। यह झगड़ा है प्रेमी का प्रेमी से। यह कोई खंडन नहीं है प्रेम का, वह प्रेम के ही गीत गा रही है। लेकिन विरह के क्षण हैं। विरह के क्षण में प्रेमी सदा ऐसा पाता है, इससे तो अच्छा होता, प्रेम ही न करते। इससे तो अच्छा होता कि प्रेम का हमें पता ही न होता। इससे तो अच्छा होता कि ये प्रेमी की अंगुलियां कभी हमारे हृदय की वीणा को न छेड़तीं। हम ऐसे ही रेगिस्तान की तरह मर जाते, वह अच्छा था। यह प्रेम का बीज अंकुरित ही न होता तो अच्छा था। यह तो बड़ी पीड़ा हो गई।
लेकिन जितनी बड़ी पीड़ा है उतना ही बड़ा आनंद है पीछे। यह विरह की पीड़ा प्रसव की पीड़ा है। वह तो जब एक बच्चा पैदा होता किसी स्त्री को और कोई स्त्री मां बनती है, तब बहुत बार उसके मन में भी आता है, जब बच्चा पैदा होता है कि यह तो अच्छा हुआ होता अगर मुझे पहले ही पता होता कि इतनी पीड़ा होनी थी, तो यह जन्म देने का उपद्रव हाथ में ही न लेते। नौ महीने तक बच्चे को गर्भ में ढोना, फिर पीड़ा उसके जन्म की..जैसे मौत आती हो, जैसे मरने-मरने को हो जाती हो।
कभी प्रसव-पीड़ा में किसी स्त्री को देखा? जैसे प्राणों की गहराई से रुदन उठता है! पूरा तन-प्राण कंप जाता है! उस वक्त उसके मन में न होता होगा कि अच्छा हुआ होता कि इस उपद्रव में ही न पड़े होते लेकिन फिर बच्चे का जन्म हो गया। फिर स्त्री के चेहरे पर आई हुई आनंद की आभा देखी है! फिर वह जिस शांति और प्रेम और लगन से बच्चे की तरफ देखती है! बच्चे का ही थोड़े जन्म होता है, उसी दिन मां का भी जन्म होता है उसके पहले वह मां न थी; उसके पहले एक साधारण स्त्री थी, अब मां है। मां की बात ही और है। मां का अर्थ है, अब वह सृजनदात्री है; अब उसने जन्म दिया जीवन को। अब वह ऐसी सीप है जिस में मोती पला। अब वह साधारण देह नहीं है; वह परमात्मा का घर बनी है; वह परमात्मा का माध्यम बनी।
स्त्री अपने परम सौंदर्य को उपलब्ध होती है मां बन कर। लेकिन प्रसव की बड़ी पीड़ा है। विरह की भी बड़ी पीड़ा है। उसी विरह की पीड़ा से गुजर कर, निखर कर, आग से छन कर व्यक्ति कुंदन बनता है, स्वर्ण बनता है। फिर मिलन का महासुख है।
मीरा कह रही है प्रारंभ की बात। फरीद कह रहे हैं अंत की बात। उन दोनों में कोई विरोध नहीं है। वे दोनों एक ही मंजिल के दो छोर हैं।
🧘♀️ ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई- ३🧘♀️
अकथ कहानी प्रेम की-(प्रवचन-06)
(धर्मः एकमात्र क्रांति)