जहां भय है, वहां प्रभु का स्मरण नहीं, जहां मृत्यु से बचने की आकांक्षा है, वहां प्रभु का कोई स्वाद नहीं “ओशो”
ओशो– मौत इस जीवन की बड़ी से बड़ी घटना है। उससे बड़ी कोई घटना नहीं है। उस घटना के क्षण में आप स्मरण न कर सकेंगे। और अगर घबड़ाकर स्मरण किया, डरकर स्मरण किया, तो ध्यान रखना, वह स्मरण परमात्मा का नहीं, भय का होगा।
मेरे एक मित्र हैं। बहुत ज्ञानी हैं। वे सदा कहते थे कि ईश्वर के स्मरण से क्या होगा? सच्चरित्रता चाहिए, सदाचार चाहिए। ईश्वर के स्मरण से क्या होगा! अच्छा आचरण चाहिए। मैंने उनसे कहा कि जो ईश्वर का स्मरण भी नहीं कर सकता, वह सदाचारी हो सकेगा, इसकी जरा असंभावना है। और जो सदाचारी हो सकता है, वह ईश्वर के स्मरण से बच सकेगा, इसकी भी बहुत मुश्किल संभावना है; यह भी नहीं हो सकता। आप कहीं किसी धोखे में हैं। उन्होंने कहा, नहीं, मुझे कोई ईश्वर-स्मरण का सवाल नहीं है। मैं तो जो ठीक है, वह करने की कोशिश करता हूं। न रिश्वत लेता हूं, न चोरी करता हूं, न मांसाहार करता हूं। ठीक नियम से रात को सोता हूं, नियम से उठता हूं। कोई दुराचरण मेरे जीवन में नहीं है। मैंने उनसे कहा, यह सब तो ठीक है, लेकिन इस सबसे सिर्फ आपका अहंकार भर अकड़ा जा रहा है, और कुछ भी नहीं हो रहा है।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि सदाचरण भी सिर्फ अहंकार की ही परिपूर्ति करता है। और ईश्वर-स्मरण के बिना सदाचार अहंकार की ही परिपूर्ति करता है। क्योंकि फिर समर्पण का तो कोई स्थान नहीं रह जाता; अकड़ की ही जगह रह जाती है कि मैं चरित्रवान हूं, मैं नियम से रहता हूं, सत्य का पालन करता हूं, अहिंसा का पालन करता हूं, इतने व्रत लिए हुए हैं, इतना त्याग किया हुआ है। अहंकार तो मजबूत होता जाता है। लेकिन ऐसे कोई चरण नहीं मिलते, जहां इस अहंकार को रख दें।
मैंने उनसे कहा कि ठीक है। जैसा आपको ठीक लगता है, किए चले जाएं। एक ही बात याद रखें कि जिस ठीक से अहंकार मजबूत होता है, वह ठीक हो नहीं सकता।
फिर अचानक एक दिन मुझे खबर मिली कि उन्हें हृदय का दौरा हो गया, हार्ट-अटैक हो गया। मैं गया। करीब-करीब अर्ध-मूर्च्छा में पड़े थे, लेकिन जोर-जोर से कहते थे, राम-राम, राम-राम। मैंने उन्हें हिलाया कि यह क्या कर रहे हो! मरते समय गलती कर रहे हो! सदाचार काफी है; यह क्या कर रहे हो?
उन्होंने आंखें खोलीं। मुझे देखा तो कुछ होश आया। कहने लगे कि यह भी मैं भय के कारण ले रहा हूं कि पता नहीं। पता नहीं, तो हर्जा क्या है ले लेने में! ले लो। मौत सामने खड़ी है, पता नहीं, कहीं ऐसा न हो कि आखिरी क्षण में सिर्फ राम-नाम नहीं लिया, इसीलिए चूक जाएं। तो ले रहे हैं।
अब यह बिलकुल व्यवसायी की बुद्धि है; धार्मिक की बुद्धि नहीं है। और भयभीत आदमी का लक्षण है यह। स्मरण भय से नहीं होता है, स्मरण तो परम आनंद की स्फुरणा है।
तो मृत्यु के क्षण में जो आनंद से स्मरण कर सके, तो ही स्मरण है, अन्यथा स्मरण नहीं है।
भयभीत, डर रहे हैं, और कंप रहे हैं कि बचाओ, हे भगवान! अगर तुम हो, तो बचाओ। इससे कुछ अर्थ न होगा। जहां भय है, वहां प्रभु का स्मरण नहीं। जहां मृत्यु से बचने की आकांक्षा है, वहां प्रभु का कोई स्वाद नहीं।
तो कृष्ण कहते हैं, अंत समय में जो मेरे स्मरण को उपलब्ध रहता है, वह मुझे ही उपलब्ध हो जाता है। इसमें कोई भी संशय नहीं।
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता-दर्शन – भाग 4
मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण
अध्याय—8 (प्रवचन—दूसरा)