“कृष्ण सूत्र” आत्मा अलग है, शरीर अलग है; जानने वाला अलग है, जो जाना जाता है, वह अलग है “ओशो”
ओशो– यह कृष्ण का सूत्र कह रहा है, शरीर क्षेत्र है, जहां घटनाएं घटती हैं। और तुम क्षेत्रज्ञ हो, जो घटनाओं को जानता है।
अगर यह एक सूत्र जीवन में फलित हो जाए, तो धर्म की फिर और कुछ जानकारी करने की जरूरत नहीं है। फिर कोई कुरान, बाइबिल, गीता, सब फेंक दिए जा सकते हैं। एक छोटा-सा सूत्र, कि जो भी शरीर में घट रहा है, वह शरीर में घट रहा है, और मुझमें नहीं घट रहा है, मैं देख रहा हूं मैं जान रहा हूं मैं एक द्रष्टा हूं? यह सूत्र समस्त धर्म का सार है। इसे थोड़ा- थोड़ा प्रयोग करना शुरू करें, तो ही खयाल में आएगा।
एक तो रास्ता यह है कि गीता हम समझते रहते हैं। गीता लोग समझाते रहते हैं। वे कहते रहते हैं, क्षेत्र अलग है और क्षेत्रज्ञ अलग है। और हम सुन लेते हैं, और मान लेते हैं कि होगा। लेकिन जब तक यह अनुभव न बन जाए, तब तक इसका कोई अर्थ नहीं है। यह कोई सिद्धांत नहीं है, यह तो प्रयोगजन्य अनुभूति है। इसे थोड़ा प्रयोग करें।
जब भोजन कर रहे हों, तो समझें कि भोजन शरीर में डाल रहे हैं और आप भोजन करने वाले नहीं हैं, देखने वाले हैं। जब रास्ते पर चल रहे हों, तो समझें कि आप चल नहीं रहे हैं; शरीर चल रहा है। आप तो सिर्फ देखने वाले हैं। जब पैर में काटा गड़ जाए, तो बैठ जाएं, दो क्षण ध्यान करें। बाद में काटा निकालें, जल्दी नहीं है। दो क्षण ध्यान करें और समझें कि कांटा गड़ रहा है, दर्द हो रहा है। यह शरीर में घट रहा है, मैं जान रहा हूं।
जो भी मौका मिले क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को अलग करने का, उसे चूके मत, उसका उपयोग कर लें।
जब शरीर बीमार पड़ा हो, तब भी, जब शरीर स्वस्थ हो, तब भी। जब सफलता हाथ लगे, तब भी, और जब असफलता हाथ लगे, तब भी। जब कोई गले में फूलमालाएं डालने ‘लगे, तब भी स्मरण रखें कि फूलमालाएं शरीर पर डाली जा रही हैं, मैं सिर्फ देख रहा हूं। और जब कोई जूता फेंक दे, अपमान करे, तब भी जानें कि शरीर पर जूता फेंका गया है, और मैं देख रहा हूं। इसके लिए कोई हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं है। आप जहां हैं, जो हैं, जैसे हैं, वहीं ज्ञाता को और ज्ञेय को अलग कर लेने की सुविधा है।
न कोई मंदिर का सवाल है, न कोई मस्जिद का, आपकी जिंदगी ही मंदिर है और मस्जिद है। वह। छोटा-छोटा प्रयोग करते रहें। और ध्यान रखें, एक-एक ईंट रखने से महल खड़े हो जाते हैं; छोटे-छोटे प्रयोग करने से परम अनुभूतिया हाथ आ जाती हैं। एक-एक बूंद इकट्ठा होकर सागर निर्मित हो जाता है। और छोटा-छोटा अनुभव इकट्ठा होता चला जाए, तो परम साक्षात्कार तक आदमी पहुंच जाता है।
एक छोटे-छोटे कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।तो यह मत सोचें कि छोटे-छोटे अनुभव से क्या होगा। सभी अनुभव जुड़ते जाते हैं, उनका सार इकट्ठा हो जाता है। और धीरे- धीरे आपके भीतर वह इंटीग्रेशन, आपके भीतर वह केंद्र पैदा हो जाता है, जहां से आप फिर बिना प्रयास के निरंतर देख पाते हैं कि आप अलग हैं और शरीर अलग है।
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता दर्शन–(भाग–6) प्रवचन–151
दुःख से मुक्ति का मार्ग: तादात्म’य का विसर्जन