गीतों से पटा है मार्ग नानक का, इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है “ओशो”

 गीतों से पटा है मार्ग नानक का, इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है “ओशो”

ओशो– नानक ने परमात्मा को गा गा कर पाया, गीतों से पटा है मार्ग नानक का, इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है, पहली बात समझ लेनी जरूरी है, नानक ने योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान नहीं किया, नानक ने सिर्फ गाया और गाकर ही पा लिया, लेकिन गाया उन्होंने इतने पूरे प्राण से कि गीत ही ध्यान हो गया, गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया, जब भी कोई समग्र प्राण से किसी भी कृत्य को करता है, वही कृत्य मार्ग बन जाता है, तुम ध्यान भी करो, अधूरा अधूरा तो भी ना पहुंच पाओगे, तुम पूरा पूरा, पूरे हृदय से तुम्हारी सारी समग्रता से एक गीत भी गा दो, एक नृत्य भी कर लो तो भी तुम पहुंच जाओगे, क्या तुम करते हो यह सवाल नहीं, पूरी समग्रता से करते हो या अधूरे अधूरे, यही सवाल है, परमात्मा के रास्ते पर नामक के लिए गीत और फूल ही बिछे, इसलिए उन्होंने जो भी कहा है, गाकर कहा है, बहुत मधुर है उनका मार्ग, रस सिक्त, कल हम कबीर की बात कर रहे थे, सूरत कलारी, भय मतवारी, मधुवा, पी गई, बिंतौले, नानक वही है, जो मधुवा को बिना तौले पी गए, फिर जीवन भर गाते रहे. ये गीत साधारण गायक के नहीं, यह गीत उसके है जिसने जाना है, इन गीतों में सत्य की भनक इन गीतों में परमात्मा का प्रतिबिंब है, परमात्मा के सामने प्रकट होना, प्यारे को पा लेना, इन्हें तुम बिल्कुल प्रतीक को भाषागत रूप से सचमत समझ लेना, क्योंकि कहीं कोई परमात्मा बैठा हुआ नहीं, जिसके सामने तुम प्रकट हो जाओगे, लेकिन कहना हो बात तो और कुछ कहने का उपाय भी नहीं, जब तुम मिटते हो तो जो भी आंख के सामने होता है वही परमात्मा है, परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, परमात्मा निराकार शक्ति है, तुम उसके सामने कैसे हो सकोगे? जहां तुम देखोगे वहीं वो है जो तुम देखोगे वही वह है, जिस दिन आंख खुलेगी, सभी वह है, बस तुम मिट जाओ, आंख खुल जाए, अहंकार, तुम्हारी आंख में पड़ी हुई कंकड़ी है उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, परमात्मा प्रकट ही था, तुम मौजूद ना थे, नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया, जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, तुम भी परमात्मा हो गए, क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं, नानक लौटे, परमात्मा होकर लौटे, फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक एक शब्द बहुमूल्य है फिर उस एक-एक शब्द को हम कोई भी कीमत दे तो भी कीमत छोटी पड़ेगी, फिर एक-एक शब्द वेद वचन है एक ओंकार सतनाम. कर्ता पुरुक निर्भय निर्वेर, अकाल मूर्ति, अजुनी सैभम गुरु प्रसाधी वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सतनाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैर से रहित है, कालातीत मूर्ति है, अयोनि है स्वयंभू है गुरु की कृपा से प्राप्त होता है, एक है, एक ओंकार सतनाम, जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह अनेक है जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है, जहां तुम्हारी आंख पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है सागर के किनारे जाते हो, लहरे दिखाई पड़ती हैं, सागर दिखाई नहीं पड़ता, हालांकि सागर ही है, लहरे तो ऊपर ऊपर है, पर जो ऊपर ऊपर है वही दिखाई पड़ता है, क्योंकि ऊपर की ही आंख हमारे पास है, भीतर को देखने के लिए तो भीतर की आंख चाहिए, अनेक लहरे हैं, एक सागर है, हमें अनेक दिखाई पड़ता है और जब तक एक ना दिखाई पड़ जाए, तब तक हम भटकते रहेंगे, क्योंकि एक ही सच है, एक ओंकार सतनाम और नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है, और सब नाम तो आदमी के दिए है राम कहो, कृष्ण कहो, अल्लाह कहो, यह नाम आदमी के दिए है ये हमने बनाए है सांकेतिक, लेकिन एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया, वो ओंकार है, वो ओम है, क्यों ओंकार उसका नाम है, क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं और चित्त शून्य हो जाता है और जब लहरें पीछे छूट जाती हैं और सागर में आदमी लीन हो जाता है, तब भी ओंकार की धुन सुनाई. पड़ती रहती है, वो हमारी की हुई धुन नहीं है, वो अस्तित्व की धुन है, वो अस्तित्व की ही लय है, अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है।