मनोविज्ञान स्वीकार करता है कि मैन इज पोलीसाइकिक, मनुष्य के भीतर मन एक नहीं है, अनेक है “ओशो”
ओशो– मन के साथ कभी भी कोई व्यक्ति एक व्यक्ति नहीं होता, बल्कि एक भीड़ होता है। भीतर भी मन एक नहीं है, अनेक है। सदा से आदमी ऐसा समझता रहा है कि उसके भीतर एक मन है। वैसा सत्य नहीं है। आपके भीतर बहुतेरे मन हैं, बहु-मन हैं। अब मनोविज्ञान स्वीकार करता है कि मैन इज पोलीसाइकिक; बहुत मन हैं भीतर, एक मन नहीं है। ये बहुत मन भी इसीलिए हैं कि मन जहां भी चरण रखता है, वहीं खंड हो जाते हैं।
समझें, भीतर मन की इस खंड-खंड हो गई स्थिति को भी समझना जरूरी है।
आपने शायद ही कभी ऐसी कोई मन की दशा पाई हो, जिसके विपरीत स्वर आपके भीतर मौजूद न रहा हो। किसी को आपने किया हो प्रेम और साथ ही उसे घृणा न की हो, ऐसा अर्सभव है। किसी को की हो श्रद्धा, और साथ ही भीतर मन का एक हिस्सा अश्रद्धा से न भरा रहा हो, असंभव है। चाहा हो किसी को, और साथ ही चाह से बचना भी न चाहा हो, ऐसा नहीं होगा।
मन जब भी कुछ तय करता है, तो द्वंद्व में ही तय करता है; उसका विपरीत स्वर भी भीतर मौजूद होता है। जिसको आप मित्र मानते हैं, कहीं किसी मन की गहराई में उसे आप शत्रु भी मानते हैं। इसीलिए तो मित्रता इतनी जल्दी शत्रुता बन जाती है! अन्यथा जिस आदमी को मैं पचास साल तक मित्र समझा हूं एक क्षण में शत्रु कैसे हो जाएगा? कोई उपाय नहीं है; कोई रासायनिक प्रक्रिया नहीं है कि पचास साल की मित्रता एक क्षण में, एक शब्द से शत्रुता बन जाए। बन जाती है लेकिन। गहरे खोजेंगे, तो पाएंगे, ऊपर मित्रता बन रही थी, भीतर शत्रुता भी पल रही थी। इसलिए एक क्षण में मित्रता नीचे चली गई, शत्रुता ऊपर आ गई। यह सिर्फ पलड़ा भारी हो गया। जब हम एक पलड़े पर तराजू के मित्रता रख रहे थे, तभी हम शत्रुता भी दूसरे पलड़े पर रखे जाते थे। यह सिर्फ समय और संयोग की बात है कि जिस दिन भी पलड़ा भारी हो जाएगा शत्रुता का, उसी दिन शत्रुता प्रकट हो जाएगी। लेकिन मन से कोई आदमी किसी को अनन्य भाव से मित्र नहीं बना सकता है।
जब आप सोचते हैं कुछ, तो आपका मन दो हिस्सों में टूट जाता है; एक पक्ष में बोलता है, एक विपक्ष में बोलता है। समस्त विचार, मन का दो हिस्सों में टूटकर वार्तालाप है। एक खेल है, जो आप भीतर खेलते हैं; इस तरफ से भी, उस तरफ से भी।
यह जो मन का भीतर भी दो हिस्सों में टूट जाना है और बाहर भी जगत दो हिस्सों में टूट जाता है, इसके परिणाम क्या होते हैं? पहला परिणाम तो यह होता है कि जगत में हमें उस एक के दर्शन नहीं हो पाते, जो कि सबके भीतर छिपा है। और जब भीतर भी द्वंद्व हो जाता है, तो भीतर भी उस एक के दर्शन नहीं हो पाते हैं, जो मौजूद है।
तो चाहे कोई बाहर उस एक को देख ले, शर्त एक ही होगी कि मन को छोड्कर देखे; और चाहे कोई भीतर उस एक को देख ले, शर्त फिर भी वही होगी कि मन को छोड्कर देखे। और जब भीतर का एक दिखाई पड़ता है, तो बाहर और भीतर का द्वंद्व भी गिर जाता है। क्योंकि वह भी दो की भाषा है। भीतर और बाहर, वह भी दो की भाषा है। जब भीतर का एक दिखाई पड़ता है, तो भीतर और बाहर दोनों खो जाते हैं, एक ही रह जाता है। जब बाहर का एक दिखाई पड़ता है, तब भी एक ही रह जाता है, भीतर और बाहर का द्वंद्व खो जाता है।
इसे अगर हम संक्षिप्त में कहें, तो ऐसे, कि समस्त धर्म की यात्रा मन को खोने की यात्रा है, और समस्त संसार की यात्रा मन को शक्तिशाली करने की यात्रा है। संसार का अर्थ है, मन को शक्तिशाली किए जाना। धर्म का अर्थ है, मन को विसर्जित किए जाना। धर्म का अर्थ है, ऐसी चेतना को पा लेना, जहां मन न हो। और संसार का अर्थ है, ऐसे मन को पा लेना, जहां चेतना न हो, मन ही मन रह जाए, आत्मा बिलकुल पता न चले।
🍁🍁ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३🍁🍁
गीता-दर्शन – भाग 4
वासना और उपासना
अध्याय—9 प्रवचन—नौवां