तीन बार सम स्थिति आती है–जन्म के समय, मरते समय, समाधि के समय “ओशो”
ओशो– अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने में आसानी होगी। अब जैसे कि साधारणतः सौ में से नब्बे स्त्रियां इस सूत्र को मानें, तो कठिनाई में पड़ जाएंगी। स्त्रियों के लिए उचित होगा कि वे भ्रू-मध्य पर कभी ध्यान न करें। हृदय पर ध्यान करें, नाभि पर ध्यान करें। स्त्री का व्यक्तित्व नान-एग्रेसिव है; रिसेप्टिव है; ग्राहक है; आक्रामक नहीं है।
जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही; जैसा कि मैंने कहा, क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा-चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहीं होगा कि आज्ञा-चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहीं है, वह किसी चीज को अपने में समा सकता है, हमला नहीं कर सकता–जैसे कि स्त्रियां। स्त्री का पूरा बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है। उसे गर्भ ग्रहण करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने में समाकर और बड़ी करनी है।
इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा-चक्र पर प्रयोग करे, तो दो में से एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहीं होगी; परेशान होगी। और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान-रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमें पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी। अगर बहुत तीव्रता से उस पर प्रयोग किया जाए, तो यह भी पूरी संभावना है कि उसमें पुरुष के लक्षण आने शुरू हो जाएं।
अगर कोई पुरुष हृदय के चक्र पर बहुत ध्यान करे, तो उसमें स्त्री के लक्षण आने शुरू हो सकते हैं।
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था है ध्यान करने के लिए।
और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती है, न बाहर, न भीतर; बीच में ठहरी होती है। न तो आप ले रहे होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहीं होती, ठहरी होती है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत में होते हैं, जैसी हालत में मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत में जन्म के समय होते हैं।
मां के पेट में बच्चा श्वास नहीं लेता; सम रहता है। मां के पेट में बच्चे को श्वास लेने की जरूरत नहीं पड़ती; सम रहता है। जिस सम की बात कृष्ण कर रहे हैं। नौ महीने सम रहता है; न श्वास बाहर आती है, न भीतर जाती है। श्वास चलती ही नहीं।
इसलिए बच्चा पैदा होते से जो रोता है, चिल्लाता है, वह केवल श्वास का यंत्र काम करने की कोशिश कर रहा है, और कुछ भी नहीं। रो-चिल्लाकर उसके फेफड़े काम शुरू कर रहे हैं तेजी से। अगर वह थोड़ी देर चूक जाए, तो कठिनाई होगी। कठिनाई हो सकती है। इसलिए रोए बच्चा, तो खुशी की बात है। क्योंकि मतलब हुआ कि वह स्वस्थ है, और काम शुरू हो जाएगा।
सम स्थिति में होता है उस समय, जब बच्चा पैदा होता है। ठीक वही स्थिति पुनः हो जाती है, जब श्वास न भीतर जा रही, न बाहर जा रही, बीच का क्षण होता है; तब आपका पुनर्जन्म हो सकता है, रिबॉर्न। आप भीतर की तरफ यात्रा कर सकते हैं। मरते वक्त भी फिर वही सम स्थिति आ जाती है।
तीन बार सम स्थिति आती है–जन्म के समय, मरते समय, समाधि के समय। जितनी बार समाधि आएगी, उतनी बार सम स्थिति आएगी। लेकिन बस, तीन वक्त सम स्थिति होती है, जब कि श्वास न बाहर है, न भीतर।
इस स्थिति में क्यों चेतना भीतर जा सकती है? क्योंकि जैसे ही श्वास बाहर-भीतर नहीं होती, जगत से सारा संबंध थिर हो जाता है, ठहर जाता है। अभी आप रूपांतरण कर सकते हैं।
अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच में न्यूट्रल गियर है, जहां सम है; जहां न भीतर, न बाहर; अस्तित्व है जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण में आपका रूपांतरण होता है।
☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता-दर्शन – भाग दो
काम-क्रोध से मुक्ति
(अध्याय—5) प्रवचन—11