इस जगत में कोई भी चीज आइसोलेटेड नहीं है, जीवन एक सतत श्रृंखला है, एक प्रवाह है

 इस जगत में कोई भी चीज आइसोलेटेड नहीं है, जीवन एक सतत श्रृंखला है, एक प्रवाह है

ओशो– आप पैदा हुए। तो शायद आपको खयाल होगा, जन्म की एक तिथि है और फिर मृत्यु की एक तिथि है, इन दोनों के बीच आप समाप्त हो जाएंगे। लेकिन इस जगत में कोई भी चीज आइसोलेटेड नहीं है। इस जगत में कोई चीज अलग- थलग नहीं है। जन्म के पहले भी आपको किसी न किसी रूप में होना ही चाहिए, अन्यथा आपका जन्म नहीं हो सकता। जगत एक श्रृंखला है, जगत एक कड़ियों का जोड़ है, जिसमें हर कड़ी पीछे की कड़ी से जुड़ी है, और हर कड़ी आगे की कड़ी से भी जुड़ी है। जिसे आप जन्म कहते हैं, वह सिर्फ एक कड़ी की शुरुआत है; पिछली कड़ी पीछे छिपी है। और जिसे आप मृत्यु कहते हैं, वह फिर एक कड़ी का अंत है; लेकिन अगली कड़ी आगे मौजूद है। इस जगत में कोई चीज विच्छिन्न नहीं है। जीवन एक सतत श्रृंखला है, एक प्रवाह है।

अगर ईश्वर को खोजना है, तो प्रवाह को देखना पड़ेगा; और अगर ईश्वर से बचना है, तो व्यक्ति को देखना पड़ेगा। अगर आप व्यक्ति को देखेंगे, तो ईश्वर को खोजना मुश्किल है।

मैं पैदा हुआ, मैं मर जाऊंगा, अगर यही जीवन है, तो इस जगत में ईश्वर का कोई अनुसंधान नहीं हो सकता। मेरा जन्म भी तब बेबूझ है, क्योंकि कोई कारण नहीं, एक एक्सिडेंट, एक दुर्घटना मालूम होती है कि मैं पैदा हुआ; और मेरी मृत्यु भी एक दुर्घटना होगी। इन दोनों के पार, जगत के अस्तित्व से मेरा क्या संबंध है? जब मैं नहीं था, तब भी जगत था; और जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी जगत रहेगा। तो मैं इस जगत से अलग हो गया, मेरे संबंध टूट गए।

और जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी फूल खिलते रहेंगे। और जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी वसंत आएगा और पक्षी गीत गाते रहेंगे। और जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी झरने बहेंगे और नाचेंगे और सागर की तरफ चलेंगे। तब तो इस जगत से मेरी शत्रुता भी निर्मित हो गई!।, क्योंकि मेरे होने न होने से इस जगत की धारा का कोई भी संबंध नहीं मालूम पड़ता। मैं अलग हो गया। मैं टुकड़ा हो गया।

पश्चिम की दृष्टि ऐसी ही है, व्यक्ति को एक टुकडे की तरह देखने की। और इसलिए पश्चिम में जीवन को देखने का ढंग संघर्ष का हो गया। अगर मैं अलग हूं तो जीवन संघर्ष है; और अगर मैं एक हूं, तो जीवन समर्पण होगा।

अगर मैं इस जगत से अलग हूं और मेरे जन्म से इस जगत को कोई प्रयोजन नहीं है; मैं जब नहीं था, तो जगत में कौन-सी कमी थी? कोई भी तो मेरे न होने से फर्क नहीं पड़ता था। और जब मैं कल नहीं हो जाऊंगा, तो जगत में कौन-सी कमी हो जाएगी? कोई भी तो फर्क नहीं पड़ेगा।

तो मेरा होना और जगत का होना, दोनों संबद्ध नहीं मालूम होते। नहीं तो जब मैं नहीं था, तो जगत में कुछ कमी होनी चाहिए। और जब मैं न रह जाऊं, तब एक खाली जगह, एक रिक्त जगह छूट जानी चाहिए, जो फिर भरी न जा सके।

लेकिन ऐसा नहीं होगा। मेरे होने न होने से इस विराट प्रवाह में कहीं भी कोई भनक भी न पड़ेगी। तो फिर मैं अलग हूं और यह जगत अलग है। और निश्चित ही इस जगत और मेरे बीच जो संबंध है, वह मैत्री और प्रेम का नहीं, संघर्ष का और शत्रुता का है। इस। जगत से मुझे जीतना है, ताकि मैं ज्यादा जी सकूं। इस जगत से मुझे बचना है, ताकि यह जगत मुझे पीस न डाले।

जगत बिलकुल बेरुखा मालूम पड़ता है। वृक्ष के नीचे खड़े हों, वृक्ष ऊपर गिर जाता है! और जरा भी खबर नहीं देता है कि मैं गिर रहा हूं? हट जाओ! .और तूफान आता है, और आप गिर जा सकते हैं। आंधी आपको मिटा दे सकती है। सागर आपको डुबा ले सकता है। पहाड़ आपको दबा दे सकता है। इस जगत में चारों तरफ अस्तित्व को आपकी कोई भी चिंता नहीं है। एक शत्रुता है, जगत आपको मिटाने पर तुला है। तो आप जगत से संघर्ष करने को तत्पर हो जाएं।

इसलिए पश्चिम ने एक भाषा खोजी है, वह भाषा युद्ध की भाषा है, संघर्ष की भाषा है। इसलिए ऐसी किताबें लिखी गई हैं पिछले पचास वर्षों में। बर्ट्रेड रसेल ने भी एक किताब लिखी है, नाम दिया है, कांक्वेस्ट आफ नेचर, प्रकृति की विजय!

विजय की भाषा ही संघर्ष और युद्ध की भाषा है। हम उसे कैसे जीत सकते हैं, जो हमारा प्राण है? हम उसे कैसे जीत सकते हैं, जो हमें धारण किए है? हमारा उससे क्या संघर्ष हो सकता है? मछली का क्या संघर्ष सागर से? वृक्ष की जड़ों का क्या संघर्ष पृथ्वी से? लेकिन दृष्टि पर निर्भर करेगा।

🍁🍁ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३🍁🍁
गीता दर्शन भाग – 4
मैं ओंकार हूं— अध्‍याय—9 (प्रवचन—सातवां)