स्त्रियों का ज्यादा बोलना क्यों उनका अवगुण है ?
ओशो– श्रीकृष्ण कहते हैं, स्त्रियों में श्री मैं हूं। लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है मुश्किल से खिलता है लेकिन जब कभी वह फूल खिलता है, तो स्त्री स्त्री नहीं होती। पुरुष के प्रति पुरुष होने का जो खयाल है, वह भी खो जाता है।
और जिन मुल्कों ने इस श्री को उपलब्ध करने की क्षमता पा ली थी, उन मुल्कों ने अपने ईश्वर की धारणा स्त्री के रूप में की, मां के रूप में की। जिन मुल्कों में स्त्रियों की साधना इस जगह तक पहुंची कि इस आंतरिक, आत्मिक श्री को उपलब्ध हो गई, उन मुल्कों ने अपने परमात्मा की जो धारणा है, वह पुरुष के रूप में नहीं की है। इसे हम समझें थोड़ा। जर्मनी अपने मुल्क को फादरलैंड कहता है, पितृभूमि! हम अपने मुल्क को मातृभुमि कहते हैं, मदरलैंड कहते हैं। जर्मनी ने कभी भी श्री जैसी घटना नहीं देखी। उसने पुरुषों का बड़ा विकास देखा है। पुरुष के जो गुण हैं, जर्मनी में अपने चरम शिखर को पहुंचे हैं। इसलिए जर्मनी का अपने मुल्क को फादरलैंड कहना ठीक है। पितृभूमि! स्त्री गौण है, उसने कभी वैसी चरम स्थिति नहीं पाई। पश्चिम में पुरुष के गुणों ने बड़ी गहनता से विकास किया। लेकिन पूरब ने स्त्री के गुणों को बड़ी गहनता से विकसित किया। और मजे की बात यह है कि पुरुष के गुण विकसित हो जाएं, तो अंतिम परिणाम युद्ध होगा, क्योंकि पुरुष के सारे गुण योद्धा के गुण हैं। और पुरुष का जो परम ऐश्वर्य है, वह उसके योद्धा होने में प्रकट होता है। फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है कि जब मैं रास्ते पर सैनिकों को चलते देखता हूं पंक्तिबद्ध, उनके जूतों की एक स्वर से गिरती आवाज, एक लय में बंधी, उनकी संगीनों पर चमकती हुई सूरज की किरणें, उनकी पंक्तिबद्ध संगीनों पर पड़ती सूरज की झलक, तब जैसे सौंदर्य का मैं अनुभव करता हूं ऐसा सौंदर्य मैंने कोई और दूसरा नहीं देखा।
पुरूष के गुण अगर विकसित होंगे, तो वे ऐसे ही होंगे। अभी पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने कहना शुरू किया है कि हमें पुरुष के गुणों के साथ स्त्री के गुणों को भी विकसित करना जरूरी है। नहीं तो संतुलन टूट गया है।
पूरब ने स्त्री के गुणों को बड़ी गहराई से परखा और विकसित किया। और मैं मानता हूं कि अगर दोनों में चुनाव करना हो, तो स्त्री के गुण ही विकसित करने चाहिए, क्योंकि सब पुरुषों को स्त्री से ही पैदा होना पड़ता है।
और अगर स्त्री अविकसित हो, तो पुरुष कभी विकसित नहीं हो पाते। और सब पुरुषों को स्त्री के पास ही बड़ा होना पड़ता है। पुरुष की जिंदगी स्त्री के आस—पास ही व्यतीत होती है—चाहे वह मां हो, चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह बहन हो, चाहे बेटी हो—स्त्री के इर्द—गिर्द घूमती है।
स्त्री केंद्र है, पुरुष परिधि है; वह आस-पास वर्तुलाकार घूमता है। अगर स्त्री के गुण विकसित न हों, तो समाज बहुत दीन हो जाता है।
श्री जो है, स्त्री का चरम उत्कर्ष है। वह उसकी आत्मा है।
उसमें स्त्रैणता का भाव भी चला जाता है, तब वह दिव्य हो जाती है। कृष्ण कहते हैं, वह मैं हूं। वाक्, वाणी! स्त्रियों को हम बहुत बातचीत करते देखते ही हैं। शायद बातचीत ही उनका धंधा है। लेकिन वाक् से इस बातचीत का मतलब नहीं है। यह विकृति है स्त्री के गुण की, जो दिखाई पड़ती है। स्त्रियां चुप बैठी दिखाई पड़े, यह मिरेकल है, चमत्कार है।
मैंने सुना है कि लंदन में एक बार एक प्रतियोगिता हुई कि कोई सबसे बड़ी झूठ बोले। उस आदमी को प्रथम पुरस्कार मिला, जिसने कहा, मैंने एक बगीचे की बेंच पर दो स्त्रियों को घंटेभर तक चुप। बैठे देखा! कहते हैं, उसे पहला पुरस्कार मिल गया झूठ बोलने का। यह हो ही नहीं सकता। इसके होने का कोई उपाय ही नहीं है। स्त्रियां बातचीत में लगी हैं!
लेकिन वाक् बातचीत नहीं है।
वाक् तो तब प्रकट होता है, जब स्त्री अपने अस्तित्व में परम मौन को उपलब्ध होती है। जब वह बिलकुल मौन हो जाती है, तब उसकी जो वाणी है, वह बहुमूल्य हो जाती है। तब उसकी वाणी ऋचाएं बन जाती हैं। लेकिन जो स्त्री मौन नहीं हो सकती, वह कभी वाक् को उपलब्ध नहीं होगी। इसलिए स्त्री का गुण उसका चुप होना, उसका मौन होना है। उसका इतना मौन होना है कि पता चले कि जैसे उसके पास वाणी ही नहीं है। स्त्री में सब अच्छा लगता है, लेकिन उसकी बातचीत बिलकुल बकवास और उबाने वाली होती है। सुंदर से सुंदर स्त्री थोड़ी देर में बहुत घबड़ाने वाली हो जाती है, अगर वह बातचीत करती चली जाए। मौन की एक गरिमा है। असल में शब्द भी आक्रमण है। शब्द भी दूसरे पर हमला है। मौन अनाक्रमण है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई
गीता दर्शन – भाग–5,
अध्याय—10
(प्रवचन—तेरहवां)