परंपरा से कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता,केवल शब्द उपलब्ध होते हैं “ओशो”

 परंपरा से कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता,केवल शब्द उपलब्ध होते हैं “ओशो”

ओशो– दूसरे महायुद्ध में, किसी देश में सैनिकों की भर्ती हो रही थी। जल्दी-जल्दी सैनिक चाहिए थे। हर कोई भर्ती हो रहा था। एक आदमी सैनिक भर्ती के दफ्तर में गया, एक जवान आदमी। उसने फार्म भरा। जो अफसर उसे भर्ती करने को था,उसने पूछा, वह नौ-सेना का, जल-सेना का अधिकारी था और जल-सेना की भर्ती कर रहा था। उसने पूछा कि मित्र, तुम अब तक कौन सा काम करते रहे हो? उस आदमी ने कहा, मैं?उसने कहा, आई एम एन ऊगल-गूगल मेकर,कि मैं ऊगल-गूगल बनाने वाला आदमी हूं।

अब यह ऊगल-गूगल कभी उस अफसर ने जीवन में सुना भी नहीं था कि क्या चीज है?यह ईश्वर, आत्मा जैसा शब्द मालूम पड़ा। लेकिन अगर वह यह कहे कि मैं नहीं जानता,ऊगल-गूगल क्या है, तो यह आदमी क्या सोचेगा? इतना बड़ा आफिसर, और जानता नहीं कि ऊगल-गूगल क्या है? उसने कहा,अच्छा-अच्छा, तो तुम ऊगल-गूगल बनाते हो?जल-सेना में तो जरूरत भी होती है ऐसे आदमियों की। उसने जल्दी से उसको फार्म दिया कि कहीं इसे पता न चल जाए कि मैं नहीं जानता हूं कि ऊगल-गूगल क्या होता है। उसने सोचा जरूर जल-सेना में कोई चीज होती होगी–ऊगल-गूगल!

उस आदमी को उसने, जल-सेना का जो इंजीनियर था, उस स्टाफ में, उसके पास भेजा। उसने भी पूछा, आप क्या करते हैं? उसने कहा,मैं ऊगल-गूगल बनाता हूं। उस आदमी ने कहा,जब बड़े आफिसर ने इसे भर्ती किया है, तो ऊगल-गूगल जरूर कोई चीज होती होगी। और मैं क्यों फंसूं, कहूं कि मैं नहीं जानता। मैं हूं इंजीनियर, मुफ्त फंस जाऊंगा कि तुम इंजीनियर हो, तुम्हें यह भी पता नहीं कि ऊगल-गूगल क्या होता है? उसने कहा, अच्छा तो आप ऊगल-गूगल बनाते हैं। यह काम तो सीधे कैप्टेन के अंतर्गत आता है, आप कैप्टेन के पास चले जाइए।

वह आदमी कैप्टेन के पास पहुंच गया। उसने भी पूछा, आप क्या बनाते हैं? उसने कहा, मैं ऊगल-गूगल बनाता हूं। कैप्टेन ने कहा, दो आदमियों ने इसे भेज दिया है, उन्होंने इस बात को स्वीकार नहीं किया कि हम नहीं जानते हैं। मैं क्यों फंसूं? उसने कहा, अच्छा तो आप ऊगल-गूगल बनाते हैं। तो बाजार में जैसे ऊगल-गूगल बिकते हैं, वैसे ही बनाते हैं कि कोई स्पेशल क्वालिटी बनाते हैं? उस आदमी ने कहा कि मैं तो जरा अलग ही ढंग की चीज बनाता हूं। कैप्टेन ने कहा, अच्छी बात है, तो आपके लिए क्या सामान की जरूरत होगी बनाने के लिए? क्योंकि जहाज में बड़ी जरूरत होती है ऊगल-गूगल की।

उसने कहा, मुझे छोटी सी वर्कशाप चाहिए। कुछ नहीं, एक छोटा कमरा चाहिए और ताला चाहिए, ताकि मैं भीतर बैठ कर काम कर सकूं। और मेरा सीक्रेट किसी को पता न चल जाए इसलिए यह दरवाजा बंद रहना चाहिए। एक ऊगल-गूगल कितने दिन में बन जाता है, उस कैप्टेन ने पूछा? उसने कहा, तीन दिन लगते हैं। सामान क्या चाहिए? उसने कहा, औजार मेरे पास हैं, सिर्फ टीन के कुछ चद्दर-पत्तर मुझे चाहिए। वह आप पहुंचा दें।

आप शुरू करिए। ऊगल-गूगल हमने बहुत देखे हैं, लेकिन विशेष आप बनाते हैं, तो हम देखना चाहते हैं। अब वह मन में प्राण चिंतित हो रहा कि यह ऊगल-गूगल बला क्या है? लेकिन कोई इस बात को मानने को राजी नहीं होना चाहता है कि मैं नहीं जानता हूं।

उस आदमी को एक केबिन दे दी गई, ताला डाल दिया गया। वह भीतर तीन दिन तक ठोंक-पीट करता रहा। बड़ी आवाजें आती रहीं। पूरे जहाज पर खबर फैल गई, ऊगल-गूगल! लेकिन सब अपने मन में सोचते थे कि ऊगल-गूगल क्या है? यह ईश्वर क्या है? आत्मा क्या है? मोक्ष क्या है? लेकिन कौन कहे कि ऊगल-गूगल क्या है? क्योंकि जो पूछेगा, वही समझा जाएगा अज्ञानी। बाकी लोग हंसेंगे। बाकी लोग सब ऐसा मालूम पड़ रहे हैं कि जानते हैं। कौन फंसे? सब कहते थे भई, ऊगल-गूगल बन रहा है, तीन दिन के भीतर बन जाएगा।

कोई पूछता नहीं था, यह ऊगल-गूगल है क्या?तीन दिन में तो सारे जहाज में एक ही हवा हो गई। हर आदमी उत्सुक हो गया। लोगों की नींद खो गई कि बला क्या है यह ऊगल-गूगल?

तीसरा दिन आ गया। सारे लोग केबिन के आस-पास इकट्ठे हो गए। अंदर ठोंक-पीठ चल रही है। फिर कैप्टेन की भी हिम्मत टूट गई,उसने जाकर दरवाजा ठोंका और कहा, भई,तीन दिन हो गए, अगर बन गया हो तो बाहर आओ। उसने कहा, पांच मिनट और। चीज तैयार हुई जा रही है। फिर आखिरी चोटें हुईं। सारी भीड़ इकट्ठी हो गई है। कोई किसी से नहीं कह रहा है कि ऊगल-गूगल क्या है? सब जानना चाहते हैं, क्या है? किसी को पता नहीं है।

फिर दरवाजा खुला, वह आदमी बाहर निकला। सब उसकी तरफ देखने लगे। कैप्टेन ने पूछा,कहां है ऊगल-गूगल? उसने अपने पीठ के पीछे से एक चीज निकाली, जैसे कोई टीन के डिब्बे को सब तरफ से पीटा गया हो, इस तरह की शक्ल थी उसकी। उसने कहा, यह ऊगल-गूगल है। अब सब बड़े हैरान हुए! उन्होंने कहा, इसका उपयोग क्या है? यह किस काम में आता है?उसने कहा, आइए मेरे साथ। वह जाकर जहाज के किनारे ले गया और उसने अपने ऊगल-गूगल को पानी में फेंका। जब वह डब्बा पानी में डूबने लगा, तो उससे आवाज निकली–ऊगल-गूगल! यह ऊगल-गूगल था!

लेकिन एक भी आदमी उस जहाज पर यह नहीं कह सका, यह क्या बेवकूफी है? किस चीज का नाम है? क्योंकि हमारे भीतर यह अहंकार बड़ा प्रबल है कि हम जानते हैं।

एक आदमी ईश्वर के बाबत बातें करता रहता है,आत्मा के बाबत, पुनर्जन्म के बाबत। मृत्यु के बाद–मोक्ष, नरक और स्वर्ग। और लोग बैठे सुनते रहते हैं, जैसे कि वह आदमी किन्हीं चीजों की बात कर रहा हो, जिनको जानता है। सुनने वाले भी ऐसे सुनते हैं कि हम भी जानते हैं। बोलने वाला भी शब्द जानता है, सुनने वाले भी शब्द जानते हैं। उनके शब्द मेल खाते हैं,परिचित मालूम होते हैं। वे दोनों राजी मालूम होते हैं किक बिलकुल ठीक है, बिलकुल ठीक है। बिलकुल ठीक है, यह बात बिलकुल सही कही जा रही है।

दुनिया में एक गहरा डिसेप्शन, एक प्रवंचना,एक धोखा चल रहा है शब्दों के नाम पर–ज्ञान का। परंपरा से कोई ज्ञान उपलब्ध नहीं होता,केवल शब्द उपलब्ध होते हैं। और शब्दों को हम ज्ञान समझ कर बैठ जाते हैं।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
माटी कहे कुम्‍हार सूं-(ध्‍यान-साधना)-प्रवचन-07