वस्तुओं में जितना ज्यादा रस होगा, आप उतना ही कम उपयोग कर पाएंगे

 वस्तुओं में जितना ज्यादा रस होगा, आप उतना ही कम उपयोग कर पाएंगे

ओशो- अपरिग्रही चित्त वह है, जो वस्तुओं की मालकियत में किसी तरह का रस नहीं लेता। उपयोगिता अलग बात है, रस अलग बात है। वस्तुओं में जो रस नहीं लेता, वस्तुओं के साथ जो किसी तरह की गुलामी के संबंध निर्मित नहीं करता, वस्तुओं के साथ जिसका कोई इनफैचुएशन, वस्तुओं के साथ जिसका कोई रोमांस नहीं चलता।

रोमांस चलता है वस्तुओं के साथ। जब आप कभी नई कार खरीदने का सोचते हैं, तो बहुत फर्क नहीं पड़ता। स्थिति करीब-करीब वैसे हो जाती है, जैसे कोई नया व्यक्ति किसी नई लड़की के प्रेम में पड़ जाता है और रात सपने देखता है। कार उसी तरह सपनों में आने लगती है! वस्तुओं का भी इनफैचुएशन है। उनके साथ भी रोमांस चल पड़ता है। यह वस्तुओं में रस न हो, वस्तुओं का उपयोग हो।

और ध्यान रहे, वस्तुओं में जितना ज्यादा रस होगा, आप उतना ही कम उपयोग कर पाएंगे। जितना कम रस होगा वस्तु का, उतना पूरा उपयोग कर पाएंगे। क्योंकि उपयोग के लिए एक डिटैचमेंट, एक अनासक्त दूरी जरूरी है।

पुरुषों के जगत में तो बहुत तरह के संबंध हो पाते हैं–दल है, क्लब है, पार्टी है, संघ है, मित्र है, फलां हैं, ढिकां हैं, हजार उपाय हैं। और पुरुष बाहर की दुनिया में घूमकर बहुत तरह के संबंध निर्मित करता रहता है। लेकिन स्त्री को हमने घर में बंद कर दिया। तो उसके हम किसी तरह के बाहर जगत से संबंध निर्मित नहीं होने देते। तो उसकी जो संबंध बनाने की जो प्यास है, अतृप्ति है, वह वस्तुओं पर निकलती है। इसलिए स्त्रियां वस्तुओं के लिए बिलकुल इनफैचुएटेड हो जाती हैं।

अपरिग्रह का अर्थ है, वस्तुओं में रस नहीं है, इनफैचुएशन नहीं है। वस्तुएं हैं, उनका उपयोग ठीक है। हीरे की अंगूठी है, तो पहन लें; और नहीं है, तो नहीं। हीरे की अंगूठी है, तो ठीक; नहीं है, तो न होना ठीक। जिस दिन ये दोनों बातें एक-सी हो जाएं और खिलवाड़ हो जाए कि हीरे की अंगूठी हो, तो खेल है; और न हो, तो घास की अंगूठी भी बनाकर पहनी जा सकती है; और बिलकुल न हो, तो नंगी अंगुली का अपना सौंदर्य है। इतनी सरलता से चित्त चलता हो वस्तुओं के बीच में, तो अपरिग्रही चित्त है। भागा हुआ नहीं, वस्तुओं के बीच जीता हुआ। लेकिन रसमुक्त। उपयोग करता है, लेकिन आसक्त नहीं, विक्षिप्त नहीं, पागल नहीं है।

और वही व्यक्ति उपयोग कर पाता है, जो विक्षिप्त नहीं है। जो विक्षिप्त है, वह तो उपयोग कर ही नहीं पाता। उसका उपयोग तो वस्तु कर लेती है। वस्तु को सम्हालकर रखता है, सेवा करता है, झाड़ता-पोंछता है। और सपने देखता रहता है कि कभी पहनूंगा, कभी पहनूंगा। वह कभी कभी नहीं आता। और वह वस्तु हंसती होगी, अगर हंस सकती होगी

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता-दर्शन – भाग 3
अपरिग्रही चित्त—(अध्याय—6)
प्रवचन—सातवां