समय का सम्यक उपयोग कर लेना अपने को जन्म देने का आयोजन कर लेना है “ओशो”

 समय का सम्यक उपयोग कर लेना अपने को जन्म देने का आयोजन कर लेना है “ओशो”

ओशो– जीवन तुम्हारा एक पुनरुक्ति है..एक अंधी पुनरुक्ति! उठते हो, चलते हो, काम-धाम करते हो; लेकिन कहां हो, क्या कर रहे हो..इसका कोई भी होश नहीं। कौन हो..इसका भी कोई पता नहीं। क्यों है तुम्हारा होना यहां..इसका कोई उत्तर नहीं। फिर दिन आते हैं, रातें आती हैं, समय बीतता चला जाता है..और जीवन ऐसे ही उजड़ जाता है, बिना किसी फूलों को उपलब्ध हुए। जीवन में हाथ कुछ भी नहीं लग पाता, जिसको तुम संपदा कह सको; जिसको तुम कह सको कि आना व्यर्थ न हुआ।

खाली हाथ आदमी पैदा होता है और खाली हाथ ही मर जाता है। लेकिन कुछ हैं जो खाली हाथ पैदा होते हैं और भरे हाथ मरतेे हैं। कबीर, नानक, फरीद ऐसे कुछ लोग हैं जो आए तो तुम्हारी ही तरह थे; आते समय कोई भेद न था; तुम्हारे हाथ जैसे खाली थे, उनके भी हाथ खाली थे..लेकिन जाते समय तुम भिखारी की तरह जाओगे; वे सम्राट की तरह गए। उन्होंने जीवन का कोई उपयोग कर लिया। जीवन बीत ही न गया; ऐसे ही न बीत गया; ऐसे ही न चला गया..उन्होंने जीवन की धारा का नियोजन कर लिया; जीवन की उर्जा का सृजनात्मक उपयोग कर लिया।

जीवन दो ढंग के हो सकते हैं। एक तो ऐसा ही बहता चला जाए, परिणाम कुछ भी न हो, निष्पत्ति कोई न मिले, पहुंचना कहीं न हो, कोई मंजिल पास न आए। और एक जीवन, कि प्रतिपल माला के बिखरे हुए फूलों की भांति न हो, बल्कि किसी लक्ष्य, किसी गहरे प्रयोजन, किसी गहरी प्रार्थना के धागे में पिरोया हुआ हो। ऐसे फूलों का ढेर भी लगता है; उन्हीं फूलों की माला भी बन जाती है।

अधिक लोगों का समय जीवन समय का एक ढेर है। उसमें कोई संगति नहीं है। उसमें कोई रेखाबद्ध विकास नहीं है। उसमें कोई सोपान नहीं है।

कुछ लोगों का जीवन धागे में पिरोए हुए फूलों की भांति है; प्रत्येक फूल एक सीढ़ी है, और हर फूल एक नया द्वार है, और जीवन एकशृंखला हैः कहीं पहंुचता हुआ मालूम होता है; कहीं पहुंच जाता है।

और समय रहते जाग जाओ तो ठीक। क्योंकि जो समय हाथ से चला गया उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता। जो क्षण बीत गए, वे बीत ही गए; उन्हें फिर से जीने की कोई सुविधा नहीं है। समय कोई ऐसी संपत्ति नहीं है जिसे तुम खोकर फिर पा सकोगे। इस संसार में सभी चीजें खो कर पाई जा सकती हैं, समय नहीं पाया जा सकता। इसलिए समय इस संसार में सबसे ज्यादा बहुमूल्य हैः गया, तो गया। और उसी के संबंध में हम सबसे ज्यादा लापरवाह हैं। लापरवाह ही नहीं हैं; लोग बैठ कर ताश खेल रहे हैं, शराब पी रहे हैं। पूछो, क्या कर रहे हो; वे कहते हैं, समय काट रहे हैं, समय काटे नहीं कटता।

समय तुम्हें काट रहा है, पागलो! तुम समय को न काट सकोगे। समय को तुम क्या काटोगे? तुम समय को कैसे काटोगे? समय पर तो तुम्हारी कोई पकड़ ही नहीं है। समय तुम्हें काट रहा है; तुम सोचते हो तुम समय को काट रहे हो। अखीर में पाओगे, समय तो नहीं कटा, तुम ही कट गए। अखीर में पाओगे, समय तो नहीं मरा, तुम्हीं मर गए।

ध्यान रखना, समय नहीं बीत रहा है, तुम ही बीत रहे हो। समय नहीं जा रहा है, तुम ही बहे जा रहे हो। समय तो एक अर्थ में वहीं का वहीं हैः लेकिन तुम आते हो, चले जाते हो; तुम्हारी सुबह होती है, तुम्हारी सांझ होती है; तुम्हारा जन्म होता है, तुम्हारी मृत्यु होती है।

इसे ठीक से समझ लेना। समय को काटना अपने को ही काटना है। और समय का सम्यक उपयोग कर लेना, अपने को जन्म देने का आयोजन कर लेना है। स्वयं को जन्माना होगा, तो ही तुम्हारा नया रूप, तुम्हारा परमात्म-रूप, तुम्हारा भगवत-रूप प्रकट होगा। वह समय के पार है। तुम्हारा वास्तविक स्वरूप समय के पार है। समय तो सिर्फ एक स्थिति है जिसमें समयातीत को जानना है। समय तो एक परिस्थिति है जिसमें अपने भीतर कालातीत को पहचानना है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३