धर्म को झूठे आस्तिक मार डालते हैं “ओशो”
ओशो– धर्म को कौन मारता है? नास्तिक तो नहीं मार सकते.नास्तिक की क्या बिसात! लेकिन झूठे आस्तिक मार डालते हैं। और झूठे आस्तिकों से पृथ्वी भरी है। झूठे धार्मिक मार डालते हैं। और झूठे धार्मिकों का बड़ा बोल—बाला है। मंदिर उनके, मस्जिद उनके,गिरजे उनके,गुरुद्वारे उनके. झूठे धार्मिक की बडी सत्ता है! राजनीति पर बल उसका-पद उसका, प्रतिष्ठा उसकी सम्मान और सत्कार उसका!
किसी जैन मुनि के कानों में तुमने खीले ठोंके जाते देखे! महावीर के कानों में खीले ठोंके गये! और जैन मुनि आते हैं, तो उनके पावों में तुम आंखें बिछा देते हो! कि आओ महाराज ! पधारो ! धन्यभाग कि पधारे!और महावीर को तुमने ठीक उलटा व्यवहार किया था। तुमने पागल कुत्ते महावीर के पीछे छोड़े, कि नोंच डालो, चीथ डालो इस आदमी को! तुमने बुद्ध को मारने की हर तरह कोशिश की। पहाड से पत्थर की शिलाएं सरकाई कि दबकर मर जाये। पागल हाथी छोड़ा। जहर पिलाया। तुमने मीरा को जहर पिलाया! और अब भजन गाते फिरते हो! कि ऐ री मैं तो प्रेम दिवानी, मेरा दरद न जाने कोय! और दरद तुमने दिया मीरा ‘को; तुम क्या खाक दर्द जानोगे! दरद जाने मीरा। और मीरा जाने कि प्रेम का दीवानापन क्या है! क्या तुमने व्यवहार किया मीरा के साथ! तुमने सब तरह से दुर्व्यवहार किया। आज तो तुम मीरा के गुणगान गाते हो, लेकिन वृन्दावन में कृष्ण के बड़े मंदिर में मीरा को घुसने नहीं दिया गया।रुकावट डाली गयी। क्योंकि उस कृष्ण मंदिर का जो बड़ा पुजारी था….. रहा होगा
उन्हीं विक्षिप्तों की जमात में से एक जो स्त्रियों को नहीं देखते, जो स्त्रियों को देखने में डरते हैं। जिनके प्राण स्त्रियों को देखने से निकल जाते हैं! जिनका धर्म ही मर जाता है—
स्त्री देखी कि धर्म गया उनका! कि एकदम अधर्म हो जाता है उनके जीवन में; पाप ही पाप हो जाता है! उसने कसम ले रखी थी कि स्त्री को नहीं देखेगा। तो मीरा को कैसे घुसने दे! जैसे ही खबर आयी वृन्दावन में कि मीरा आ रही है, वह घबडाया। उसने पहरेदार लगा दिये कि मीरा को अंदर मत आने देना, क्योंकि उसके मंदिर में स्त्रियां आ ही नहीं सकती थीं।
मगर मीरा तो मस्त थी। वह इतनी मस्त थी कि जब वह नाचने
लगी मंदिर के द्वार पर जाकर, तो मंदिर के पहरेदार भी उसकी मस्ती में डोलने लगे। और यूं नाचते—नाचते वह भीतर प्रवेश हो गयी! जब वह भीतर प्रवेश हो गयी, तब द्वारपालों को पता चला कि यह क्या हो गया! अब तो बड़ी मुश्किल हुई!
ब्रह्मचारी महाराज भीतर अपना पूजा का थाल लिए आरती उतार रहे थे। उनके हाथ से थाली गिर पडी। स्त्री सामने आ जाये! कैसे—कैसे लोग इस दुनिया में हुए! और ऐसे लोग अभी भी हैं! अभी इंग्लैण्ड में श्री प्रमुख स्वामी स्त्रियों को नहीं देखते! तो बहुत तहलका मचा हुआ है। वे कैन्टरबरी के प्रमुख बिशप से मिलने गये, तो उसको बेचारे को पता नहीं था। जब मिलने की घड़ी आयी, तब खबर पहुंची कि कोई स्त्री मौजूद नहीं होना चाहिए।’ अब बिशप की सेक्रेटरी ही स्त्री! टाइपिस्ट स्त्री! और कई स्त्रियां पत्रकार—फोटोग्राफर—वे सब आयी हुई थीं। उन सब को हटाना पड़ा। इंग्लैण्ड में बहुत चर्चा हुई इस बात की, कि यह स्त्रियों का अपमान है। वे स्त्रियों को नहीं देख सकते! ऐसा ही वह आदमी रहा होगा—ऐसा ही विक्षिप्त। उसके हाथ से थाली गिर पड़ी। और वह एकदम नाराज हो गया, आगबबूला हो गया। ऐसे लोगों के भीतर आग तो सुलगती ही रहती है। ये तो ज्वालामुखी पर बैठे हुए लोग हैं। कब भभक उठे इनकी अति—जरा—सा अवसर, बस काफी है। चिल्लाया—चीखा कि स्त्री! तुझे तमीज नहीं! जब तुझे मालूम है—और बार—बार दरवाजे पर लिखा हुआ है कि स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है—तू कैसे प्रवेश की? मेरा पूजा का थाल गिर गया; मेरे तीस वर्ष की साधना भ्रष्ट हो गयी! स्त्री को देखने से इनकी साधना भ्रष्ट हो गयी! इनकी पूजा का थाल गिर गया; कृष्ण ने भी अपना माथा ठोंक लिया होगा—यह मेरा भक्त है! और कृष्ण की साधना भ्रष्ट न हुई! और सोलह हजार सखियां नाचती रहीं चारों तरफ। और ये उनके भक्त हैं!ये कृष्ण—जीवंत धर्म। जिसके पास सोलह हजार स्त्रियां नाचे, तो कुछ नहीं बिगड़ता। और यह मुरदों का धर्म—कि एक स्त्री आ जाये—वह भी मीरा जैसी स्त्री, जिसको देखकर भी इस अंधे को आंखें खुल सकती थीं, इस मुरदे में प्राण पड़ सकते थे—उसके हाथ की थाली गिर गयी! लेकिन मीरा ने जो वचन कहे, बड़े प्यारे हैं। मीरा ने कहा कि ‘क्षमा करें। मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के भक्त मानते हैं—कृष्ण के अलावा और कोई पुरुष नहीं। तो दो पुरुष हैं : एक कृष्ण और एक आप? मैं तो सोचती थी कि कृष्ण के भक्तों की यह धारणा है कि हम सब स्त्रियां ही हैं; पुरुष तो एक परमात्मा है; हम सब उसकी प्रेमिकाएं हैं। उसकी सखियां हैं, उसकी गोपियां हैं। आज पता चला कि वह धारणा गलत थी। दो पुरुष हैं। एक कृष्ण और एक ब्रह्मचारी महाराज आप! मगर आप क्यों पूजा का थाल उठाकर प्रार्थना कर रहे हैं! आप तो स्वयं परमात्मा हैं! आप तो स्वयं पुरुष हैं! और परमात्मा होकर आपके हाथ से थाली गिर गयी—स्त्री को देखकर आप ऐसे विचलित, ऐसे उद्विग्न हो उठे!’
इस दुनिया में सबसे बड़ी दुश्मनी बुद्धों और पण्डितों के बीच है। मगर मजा यह है कि जब तक बुद्ध जिंदा होते हैं, पण्डित उनका विरोध करते हैं। और जैसे ही बुद्ध विदा होते हैं, पण्डित
बुद्धों की जो छाप छूट जाती है, उसका शोषण करने लगते हैं। तत्क्षण चींटों की तरह इकट्ठे हो जाते हैं! क्योंकि बुद्धों का जीवन ऐसी मिठास छोड़ जाता है कि सब तरफ से चींटे भागे चले आते हैं! जैसे शक्कर के ढेर पर चींटे इकट्ठे हो जायें।
बुद्धों की मौजूदगी में तो उन्हें विरोध करना पड़ता है। क्योंकि बुद्ध का एक—एक वचन, जाग्रत व्यक्ति का एक—एक वचन उनके लिए प्राणघाती तीर जैसा लगता है। लेकिन जैसे ही बुद्ध विदा हुए, वैसे ही वे कब्जा कर लेते हैं। बुद्ध जो अपने आसपास हजारों लोगों को प्रभावित छोड जाते हैं, अपनी आभा से मण्डित छोड़ जाते है—ये पण्डित जल्दी से उनकी उस विराट प्रतिभा का शोषण करने में तल्लीन हो जाते हैं। ऐसे धर्म निर्मित होते हैं—
तथाकथित धर्म। ईसा के पीछे ईसाइयत; इसका ईसा से कुछ लेना—देना नहीं है। और बुद्ध के पीछे बौद्ध धर्म—इसका बुद्ध से कुछ लेना—देना नहीं है। और महावीर के पीछे जैन धर्म—इसका महावीर से कुछ लेना—देना नहीं है। मगर इनकी घबडाहटें बडी अजीब हैं! एक से एक हैरानी की घबडाहटें! इनकी बेचैनी! पण्डितों की हमेशा एक बेचैनी रहती है : कहीं फिर कोई बुद्ध न पैदा हो जाये! नहीं तो इनका जमाया हुआ अखाड़ा फिर उखड़ जाये! मगर सौभाग्य से बुद्ध आते रहते हैं।
कभी कहीं न कहीं कोई दीया जल जाता है। और बुझे
दीयों की छाती कंप जाती है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३