बाप बेटे के लिए मर जाता है। बेटा अपने बेटे के लिए मर जाता है। ऐसा एक-दूसरे पर मरते चले जाते हैं। क्या है तुम्हारे झूठ का राज? “ओशो”
ओशो-“क्या है तुम्हारे झूठ का राज? अहंकार। अहंकार सरासर झूठ है। ऐसी कोई चीज कहीं है ही नहीं।” कितने झूठ तुमने बना रखे हैं! लड़का बड़ा होगा, शादी होगी, बच्चे होंगे, धन कमाएगा, यश पाएगा, और तुम मर रहे हो! और तुम्हारे बाप भी ऐसे ही मरे, किं तुम बड़े होओगे, कि शादी होगी, कि धन कमाओगे। और तुम्हारा लड़का थी ऐसे ही मरेगा। जिंदगी बड़ी भरी-पूरी जा रही है! बाप बेटे के लिए मर जाता है। बेटा अपने बेटे के लिए मर जाता है। ऐसा एक-दूसरे पर मरते चले जाते हैं। कोई जीता नहीं। मरना इतना आसान, जीना इतना कठिन! लोग सोचते हैं, मौत बड़ी दुस्तर है। गलत सोचते हैं। मौत में क्या दुस्तरता है? क्षण में मर जाते हो। जिंदगी दुस्तर है। सत्तर साल जीना होता है। और बिना झूठ के तुम जीना नहीं जानते हो, तो तुम हजार तरह के झूठ खड़े कर लेते हो-यश, पद, प्रतिष्ठा, सफलता, धन।
जब इनसे चुक जाते हो तो धर्म, मोक्ष, स्वर्ग, परमात्मा, आत्मा, ध्यान, समाधि। पर तुम कुछ न कुछ ताकि अपने को भरे रखो। और ध्यान रखना, बुद्ध का सारा जोर झूठ से खाली हो जाने पर है। सत्य से भरना थोड़े ही पड़ता है। झूठ से खाली हुए तो जो शेष रह जाता है, वही सत्य है। गयी बीमारी, जो बचा वही स्वास्थ्य है।
लेकिन कितने ही लोगों ने जगाने की कोशिश की है, तुम जागते नहीं। आदमी का झूठ को पैदा करने का अभ्यास इतना गहरा है कि वह बुद्ध के आसपास भी-बुद्ध भी मौजूद हों जगाने को तो उनके आसपास भी-अपनी नींद की सुविधा जुटा लेता है। बुद्ध जगाते हैं; तुम उनके जगाने की चेष्टा को भी नशा बना लेते हो। तुम हर चीज में से शराब निकाल लेते हो। ऐसी कोई चीज नहीं है जिसमें से तुम शराब न निकाल लो।
इसलिए तो बुद्ध आते हैं, चले जाते हैं; बुद्धपुरुष पैदा होते हैं, विदा हो जाते हैं; तुम अपनी जगह अडिग खड़े रहते हो, तुम अपने झूठ से हटते नहीं। शायद, बुद्धपुरुषों ने जो कहा उसको भी तुम अपने झूठ में सम्मिलित कर लेते हो।
क्या है तुम्हारे झूठ का राज? अहंकार। अहंकार सरासर झूठ है। ऐसी कोई चीज कहीं है नहीं। तुम हो नहीं, सिर्फ एक भ्रांति हो; है तो पूर्ण। सारा अस्तित्व इकट्ठा है। यह भ्रांति है कि तुम अलग हो।
कल ही एक मित्र से मैंने कहा कि अब जागो। तो उन्होंने कहा कि कोशिश बहुत करता हूं मन निंदा से भी भर जाता है अपने प्रति, अपराधी भी मालूम होता हूं; बेईमान भी मालूम पड़ता हूं-क्योंकि जो करना चाहिए मालूम है, समझ में आता है, और नहीं कर रहा हूं।
तो मैंने उनसे कहा, तुम एक ही कृपा करो, यह करने का खयाल छोड़ दो। क्योंकि उसने पैदा किया, वही श्वास ले रहा है, तुम करना भी उसी पर छोड़ दो। उन्होंने कहा कि जन्म उसने दिया, इतना तक तो मैं मान सकता हूं; लेकिन बाकी और काम वही कर रहा है, यह नहीं मान सकता।
यह तो मैं मान ही नहीं सकता कि बेईमानी भी वही कर रहा है। अब यह थोड़ा सोचने जैसा है। हमें भी लगेगा कि बेचारा, धार्मिक बात तो कह रहा है यह व्यक्ति, कि बेईमानी कैसे परमात्मा पर छोड़ दूं? लेकिन नहीं, सवाल यह नहीं है।
अहंकार…! यह कोई परमात्मा को बचाने की चेष्टा नहीं है कि परमात्मा पर बेईमानी कैसे सौंप दूं; यह भी अहंकार को बचाने की चेष्टा है। ध्यान रखना कि जब बेईमानी तुम करोगे, तो ईमानदारी भी तुम ही करोगे।
लेकिन जब जन्म भी तुम्हारा अपना नहीं है और मौत भी तुम्हारी अपनी नहीं है, तो दोनों के बीच में तुम्हारा अपना कुछ कैसे हो सकता है?
जब दोनों छोर पराए हैं, जब जन्म के पहले कोई और के हाथ में तुम हो, मौत के बाद किसी और के हाथ में, तो यह बीच की थोड़ी सी जो घड़ियां हैं, इनमें तुम अपने को सोच लेते हो अपने हाथ में, वहीं भ्रांति हो जाती है।
वही अहंकार तुम्हें जगने नहीं देता। वही अहंकार सोने की नयी तरकीबें, व्यवस्थाएं खोज लेता है। इसलिए बुद्धपुरुष आते हैं। उनके तीर ठीक तरकस से तुम्हारे हृदय की तरफ निकलते हैं। पर तुम बचा जाते हो।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
“एस धम्मो सनंतनो”
-(प्रवचन-01)
(आत्मक्रांति का प्रथम सूत्र: अवैर-)