शब्द पर मत रुक जाना, शब्द पर रुकने वाला भटक जाता है “ओशो”

 शब्द पर मत रुक जाना, शब्द पर रुकने वाला भटक जाता है “ओशो”

ओशो– सारी दुनिया शब्द पर रुकी है। कोई कुरान के शब्द पर रुका है, वह अपने को मुसलमान कहता है। कोई गीता के शब्द पर रुका है, वह अपने को हिंदू कहता है। कोई बाइबिल के शब्द पर रुका है, वह अपने को ईसाई कहता है। लेकिन ये शब्दों पर रुके हुए लोग हैं।

दुनिया में सब संप्रदाय, शब्दों के संप्रदाय हैं। धर्म का तो कोई संप्रदाय हो नहीं सकता। क्योंकि धर्म शब्द नहीं, अनुभव है। और अनुभव हिंदू मुसलमान, ईसाई नहीं होता। अनुभव तो ऐसा ही निखालिस एक होता है, जैसे एक आकाश है।

कृष्ण से बड़ी तरकीब से अर्जुन ने यह बात पूछी है। कहा कि आस्था पूरी है, आप जो कहते हैं; भरोसा आता है। आप कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। अब यह कहने की कोई भी गुंजाइश नहीं कि आप गलत कहते हैं। आपने मुझे ठीक—ठीक समझा दिया। जैसा आपने कहा है, वैसा ही है। लेकिन अब मैं अपनी आंख से देखना चाहता हूं।

और जो शिष्य अपने गुरु से यह न पूछे कि मैं अपनी आंख से देखना चाहता हूं वह शिष्य ही नहीं है। जो गुरु के शब्द मानकर बैठ जाए और उन्हें घोंटता रहे और मर जाए, वह शिष्य नहीं है। और जो गुरु अपने शिष्य को शब्द घुटाने में लगा दे, वह गुरु भी नहीं है। कृष्ण प्रतीक्षा ही कर रहे होंगे कि कब अर्जुन यह पूछे। अब तक की जो बातचीत थी, वह बौद्धिक थी। अब तक अर्जुन ने जो सवाल उठाए थे, वे बुद्धिगत थे, विचारपूर्ण थे। उनका निरसन कृष्‍ण करते चले गए। जो भी अर्जुन ने कहा, वह गलत है, यह बुद्धि और तर्क से कृष्‍ण समझाते चले गए। निश्चित ही, वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे कि अर्जुन पूछे; वह क्षण आए, जब अर्जुन कहे कि अब मैं आंख से देखना चाहता हूं।

आमतौर से गुरु डरेंगे, जब आप कहेंगे कि अब मैं आंख से देखना चाहता हूं। तब गुरु कहेंगे कि श्रद्धा रखो, भरोसा रखो, संदेह मत करो। लेकिन ठीक गुरु इसीलिए सारी बात कर रहा है कि किसी दिन आप हिम्मत जुटाएं और कहें कि अब मैं देखना चाहता हूं। अब शब्दों से नहीं चलेगा। अब विचार काफी नहीं हैं। अब तो प्राण ही उसमें एक न हो जाएं, मेरा ही साक्षात्कार न हो, तब तक अब कोई चैन, अब कोई शांति नहीं है।

तो अर्जुन ने कहा, हे कमलनेत्र, हे परमेश्वर, अब मैं आपके विराट को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं।

यह प्रश्न अति दुस्साहस का है। शायद इससे बड़ा कोई दुस्साहस जीवन में नहीं है। क्योंकि विराट को अगर आंख से देखना हो, तो बड़े उपद्रव हैं। क्योंकि हमारी आंख तो सीमा को ही देखने में सक्षम है। हम तो जो भी देखते हैं, वह रूप है, आकार है। हमारी आंख ने निराकार तो कभी देखा नहीं। हमारी आंख की क्षमता भी नहीं है निराकार को देखने की। हमारी आंख बनी ही आकृति को देखने के लिए है। तो विराट को देखने के लिए यह आंख काम नहीं करेगी।

सच तो यह है कि इस आंख की तरफ से बिलकुल अंधा हो जाना पड़ेगा। यह आंख छोड़ देनी पड़ेगी। यह आंख तो बंद ही कर लेनी पड़ेगी। और इस आंख, इन दो आंखों से जो शक्ति बाहर प्रवाहित हो रही है, उस शक्ति को किसी और आयाम में प्रवाहित करना होगा, जहां कि नई आंख उपलब्ध हो सके।

🍁🍁ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३🍁🍁
गीता दर्शन—भाग—5
विराट से साक्षात की तैयारी—(प्रवचन—पहला)
अध्‍याय—11