भारत की सारी संत—परंपरा गोरख की ऋणी है
ओशो– जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना न रह जायेगी; जैसे बुद्ध के बिना ध्यान की आधारशिला उखड़ जायेगी; जैसे कृष्ण के बिना प्रेम की अभिव्यक्ति को मार्ग न मिलेगा—ऐसे गोरख के बिना उस परम सत्य को पाने के लिये विधियों की जो तलाश शुरू हुई, साधना की जो व्यवस्था बनी,वह न बन सकेगी। गोरख ने जितना आविष्कार किया मनुष्य के भीतर अंतर—खोज के लिये, उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है। उन्होंने इतनी विधियां दीं कि अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाये तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक हैं। इतने द्वार तोड़े मनुष्य के अंतरतम में जाने के लिये, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गये।
इसलिए हमारे पास एक शब्द चल पड़ा है—गोरख को तो लोग भूल गये—गोरखधंधा शब्द चल पड़ा है। उन्होंने इतनी विधियां दीं कि लोग उलझ गये कि कौन—सी ठीक,कौन—सी गलत, कौन—सी करें, कौन—सी छोड़े..? उन्होंने इतने मार्ग दिये कि लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये, इसलिए गोरखधंधा शब्द बन गया। अब कोई किसी चीज में उलझा हो तो हम कहते हैं, क्या गोरखधंधे में उलझे हो!
गोरख के पास अपूर्व व्यक्तित्व था, जैसे आइंस्टीन के पास व्यक्तित्व था। जगत के सत्य को खोजने के लिये जो पैने से पैने उपाय अलबर्ट आइंस्टीन दे गया, उसके पहले किसी ने भी नहीं दिये थे। ही, अब उनका विकास हो सकेगा, अब उन पर और धार रखी जा सकेगी। मगर जो प्रथम काम था वह आइंस्टीन ने किया है। जो पीछे आयेंगे वे नंबर दो होंगे। वे अब प्रथम नहीं हो सकते। राह पहली तो आइंस्टीन ने तोड़ी, अब इस राह को पक्का करनेवाले, मजबूत करनेवाले, मील के पत्थर लगाने वाले, सुंदर बनानेवाले, सुगम बनानेवाले बहुत लोग आयेंगे। मगर आइंस्टीन की जगह अब कोई भी नहीं ले सकता। ऐसी ही घटना अंतरजगत में गोरख के साथ घटी।
लेकिन गोरख को लोग भूल क्यों गये? मील के पत्थर याद रह जाते हैं, राह तोड़ने वाले भूल जाते हैं। राह को सजाने वाले याद रह जाते हैं, राह को पहली बार तोड़ने वाले भूल जाते हैं। भूल जाते हैं इसलिए कि जो पीछे आते हैं उनको सुविधा होती है संवारने की। जो पहले आता है, वह तो अनगढ़ होता है, कच्चा होता है। गोरख जैसे खदान से निकले हीरे हैं। अगर गोरख और कबीर बैठे हों तो तुम कबीर से प्रभावित होओगे, गोरख से नहीं। क्योंकि गोरख तो खदान से निकले हीरे हैं; और कबीर—जिन पर जौहरियों ने खूब मेहनत की,जिन पर खूब छेनी चली है, जिनको खूब निखार दिया गया है!
यह तो तुम्हें पता है न कि कोहिनूर हीरा जब पहली दफा मिला तो जिस आदमी को मिला था उसे पता भी नहीं था कि कोहिनूर है। उसने बच्चों को खेलने के लिये दे दिया था,समझकर कि कोई रंगीन पत्थर है। गरीब आदमी था। उसके खेत से बहती हुई एक छोटी—सी नदी की धार में कोहिनूर मिला था। महीनों उसके घर पडा रहा, कोहिनूर बच्चे खेलते रहे, फेंकते रहे इस कोने से उस कोने, आंगन में पड़ा रहा..।
तुम पहचान न पाते कोहिनूर को। कोहिनूर का मूल वजन तीन गुना था आज के कोहिनूर से। फिर उस पर धार रखी गई, निखार किये गये, काटे गये, उसके पहलू उभारे गये। आज सिर्फ एक तिहाई वजन बचा है, लेकिन दाम करोड़ों गुना ज्यादा हो गये। वजन कम होता गया, दाम बढ़ते गये, क्योंकि निखार आता गया—और, और निखार…।
कबीर और गोरख साथ बैठे हों, तुम गोरख को शायद पहचानो ही न; क्योंकि गोरख तो अभी गोलकोंडा की खदान से निकले कोहिनूर हीरे हैं। कबीर पर बड़ी धार रखी जा चुकी,जौहरी मेहनत कर चुके।… कबीर तुम्हें पहचान में आ जायेंगे।
इसलिये गोरख का नाम भूल गया है। बुनियाद के पत्थर भूल जाते हैं!
गोरख के वचन सुनकर तुम चौंकोगे। थोड़ी धार रखनी पड़ेगी; अनगढ़ हैं। वही धार रखने का काम मैं यहां कर रहा हूं। जरा तुम्हें पहचान आने लगेगी, तुम चमत्कृत होओगे। जो भी सार्थक है, गोरख ने कह दिया है। जो भी मूल्यवान है,कह दिया है।
तो मैंने सुमित्रानंदन पंत को कहा कि गोरख को न छोड़ सकूंगा। और इसलिए चार से और अब संख्या कम नहीं की जा सकती। उन्होंने सोचा होगा स्वभावत: कि मैं गोरख को छोडूंगा, महावीर को बचाऊंगा। महावीर कोहिनूर हैं, अभी कच्चे हीरे नहीं हैं खदान से निकले। एक पूरी परंपरा है तेईस तीर्थंकरों की, हजारों साल की, जिसमें धार रखी गई है, पैने किये गये हैं—खूब समुज्ज्वल हो गये हैं! तुम देखते हो,चौबीसवें तीर्थंकर हैं महावीर; बाकी तेईस के नाम लोगों को भूल गये! जो जैन नहीं हैं वे तो तेईस के नाम गिना ही न सकेंगे। और जो जैन हैं वे भी तेईस का नाम क्रमबद्ध रूप से न गिना सकेंगे, उनसे भी भूल—चूक हो जायेगी। महावीर तो अंतिम हैं—मंदिर का कलश! मंदिर के कलश याद रह जाते हैं। फिर उनकी चर्चा होती रहती है। बुनियाद के पत्थरों की कौन चर्चा करता है!
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३