इस जगत में कुछ भी भोग, त्याग है अपना। और व्यर्थ के लिए हम सार्थक को छोड़ते चले जाते हैं “ओशो”

 इस जगत में कुछ भी भोग, त्याग है अपना। और व्यर्थ के लिए हम सार्थक को छोड़ते चले जाते हैं “ओशो”

ओशो- स्वयं से चूक जाना ही त्याग है। इस जगत में हमारे मन में, जब भी हम कुछ पाने की इच्छा से चलते हैं, जब भी हम भोगना चाहते हैं, तब हमें कुछ त्यागना पड़ता है। और ध्यान रहे, जब भी हम जगत में कुछ भोगना चाहते हैं, तो हमें स्वयं को त्यागना पड़ता है, दि वेरी मोमेंट। अगर मैं चाहता हूं कि मैं धनी हो जाऊं, तो हर धन की तिजोड़ी भरने के साथ-साथ मुझे अपनी आत्मा को क्षीण करते जाना पड़ेगा। अगर मैं चाहता हूं कि बड़े यश के सिंहासनों पर प्रतिष्ठित हो जाऊं, तो जैसे-जैसे मैं यश के सिंहासन की सीढ़ियां चढूंगा, वैसे-वैसे मेरा अस्तित्व, मेरा बीइंग, मेरी आत्मा नर्क की सीढ़ियां उतरने लगेगी।

इस जगत में कुछ भी भोग, त्याग है अपना। और व्यर्थ के लिए हम सार्थक को छोड़ते चले जाते हैं!

तो भोगादि की इच्छा से, वासना से, कुछ पाने की आकांक्षा से, जो भी त्याग किया जाता है, जो विसर्ग है…।

यह विसर्ग शब्द बहुत अदभुत है। अपने से बिछुड़ जाने का नाम विसर्ग है। डिसज्वाइंट फ्राम वनसेल्फ–स्वयं से टूट जाना विसर्ग है। स्वयं से चूक जाना, हट जाना विसर्ग है। स्वयं से चूक जाना ही त्याग है।

यह बड़े मजे की बात है, जिन्हें हम त्यागी कहते हैं, शायद वे त्यागी नहीं। हम सब, जिन्हें हम भोगी समझते हैं, बड़े त्यागी हैं, महात्यागी हैं। क्योंकि हम क्षुद्र के लिए विराट को छोड़कर बैठे हैं! हम जैसा त्यागी खोजना बहुत कठिन है। एक कौड़ी हमें मिलती हो, तो हम आत्मा को बेचने को तैयार हैं, कि सम्हालो यह आत्मा, कौड़ी हमें दो। हम न हुए तो चल जाएगा, कौड़ी न हुई तो कैसे चलेगा!

☘️☘️ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३☘️☘️
गीता-दर्शन – भाग 4
स्वभाव अध्यात्म है—अध्याय—8 (प्रवचन—पहला)