मन की चंचलता से ऊब कर, दुनिया के बहुत से साधु और संन्यासियों के संप्रदाय नशा करने लगे “ओशो”

 मन की चंचलता से ऊब कर, दुनिया के बहुत से साधु और संन्यासियों के संप्रदाय नशा करने लगे “ओशो”

प्रश्न- मन चंचल है। और बिना अभ्यास और वैराग्य के वह कैसे स्थिर होगा?

ओशो– यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है और जिस ध्यान की साधना के लिए हम यहां इकट्ठे हुए हैं, उस साधना को समझने में भी सहयोगी होगा। इसलिए मैं थोड़ी सूक्ष्मता से इस संबंध में बात करना चाहूंगा।

पहली बात तो यह कि हजारों वर्ष से मनुष्य को समझाया गया है कि मन चंचल है और मन की चंचलता बहुत बुरी बात है। मैं आपको निवेदन करना चाहता हूं, मन निश्चित ही चंचल है, लेकिन मन की चंचलता बुरी बात नहीं है। मन की चंचलता उसके जीवंत होने का प्रमाण है। जहां जीवन है वहां गति है, जहां जीवन नहीं है जड़ता है, वहां कोई गति नहीं है। मन की चंचलता आपके जीवित होने का लक्षण है जड़ होने का नहीं। मन की इस चंचलता से बचा जा सकता अगर हम किसी भांति जड़ हो जाएं।

और बहुत रास्ते हैं मन को जड़ कर लेने के। जिन बातों को हम समझते हैं- साधनाएं, उनमे से अधिकांश मन को जड़ करने के उपाय है। जैसे किसी भी एक शब्द की, नाम की, निरंतर पुनरुक्ति, रिपीटीशन, मन को जड़ता की तरफ ले जाता है। निश्चित ही उसकी चंचलता क्षीण हो जाती है, लेकिन चंचलता क्षीण हो जाना ही, न तो कुछ पाने जैसी बात है, न कुछ पहुंचने जैसी स्थिति है। गहरी नींद में भी मन की चंचलता शांत हो जाती है, गहरी मूर्च्छा में भी शांत हो जाती है, बहुत गहरे नशे में भी शांत हो जाती है। और इसीलिए दुनिया के बहुत से साधु और संन्यासियों के संप्रदाय नशा करने लगे हों, तो उसमें कुछ संबंध हैं।

मन की चंचलता से ऊब कर नशे का प्रयोग शुरू हुआ। हिंदुस्तान में भी साधुओं के बहुत से पंथ; गांजे, अफीम और दूसरे नशों का उपयोग करते हैं। क्योंकि गहरे नशे में मन की चंचलता रुक जाती है, गहरी मूर्च्छा में रुक जाती है, निद्रा में रुक जाती है, चंचलता रोक लेना ही कोई अर्थ की बात नहीं है, चंचलता रुक जाना ही कोई बड़ी गहरी खोज नहीं है और चंचलता को रोकने के जितने अभ्यास है, वे सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता को, उसकी विजडम को, उसकी इंटैलिजेंस को, उसकी समझ, उसकी अंडरटैंडिंग को, सबको क्षीण करते हैं, कम करते हैं। जड़ मस्तिष्क मेधावी नहीं रह जाता। तो क्या मैं यह कहूं कि चंचलता बहुत शुभ है, निश्चित ही चंचलता शुभ है, बहुत शुभ है। लेकिन चंचल तो विक्षिप्त का मन भी होता है, पागल का मन भी होता है। विक्षिप्त चंचलता शुभ नहीं है, पागल चंचलता शुभ नहीं है। चंचलता तो जीवन का लक्षण है, जहां गति है, वहां-वहां चंचलता होगी, लेकिन विक्षिप्त चंचलता।

जैसे एक नदी समुद्र की तरफ जाती है, जीवित नदी समुद्र की तरफ बहेगी, गतिमान होगी। लेकिन कोई नदी अगर पागल हो जाए, अभी तक कोई नदी पागल हुई नहीं। आदमियों को छोड़कर और कोई पागल होता ही नहीं। कोई नदी अगर पागल हो जाए, तो भी गति करेगी, कभी पूरब जाएगी, कभी दक्षिण जाएगी, कभी पश्चिम जाएगी, कभी उत्तर जाएगी और भटकेगी, अपने ही विरोधी रातों पर भटकेगी। सब तरह दौड़ेगी, धूपेगी लेकिन सागर तक नहीं पहुंच पाएगी। तब उस गति को हम पागल गति कहेंगे, गति बुरी नहीं है, पागल गति बुरी है। आप यहां तक आए, बिना गति के आप यहां तक नहीं आते, लेकिन गति अगर आपकी पागल होती, तो आप पहले कहीं जाते थोड़ी दूर, फिर कहीं दूर जाते थोड़ी दूर, फिर लौट आते, फिर इस कोने से उस कोने तक जाते, फिर वापिस हो जाते और भटकते एक पागल की तरह। तब आप कहीं पहुंच नहीं सकते थे, वह मन जो पागल की भांति भटकता है, घातक है, लेकिन स्वयं गति घातक नहीं है, जिस मन में गति ही नहीं है, वह मन तो जड़ हो गया। इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। मैं गति और चंचलता के विरोध में नहीं हूं।

मैं जड़ता के पक्ष में नहीं हूं, और हम दो ही तरह की बातें जानते हैं अभी, या तो विक्षिप्त मन की गति जानते हैं और या फिर राम-राम जपने वाले या माला फेरने वाले आदमी की जड़ता जानते हैं, इन दो के अतिरिक्त हम कोई तीसरी चीज नहीं जानते। चाहिए ऐसा चित्त जो गतिमान हो, लेकिन विक्षिप्त न हो, पागल न हो, ऐसा चित्त कैसे पैदा हो, उसकी मैं बात करूं। उसके पहले यह भी निवेदन करूं, कि मन की चंचलता के प्रति अत्यधिक विरोध का जो भाव है, वह योग्य नहीं है और न अनुग्रहपूर्ण है और न कृतज्ञतापूर्ण है। अगर मन गतिवान न हो और चंचल न हो, तो हम मन को न मालूम किस कूड़े-करकट पर उलझा दें और वही जीवन समाप्त हो जाए। लेकिन मन बड़ा साथी है, वह हर जगह से ऊबा देता है और आगे के लिए गतिवान कर देता है।

ओशो