मूर्तियों का सबसे पहले प्रयोग पूजा के लिए नहीं किया गया, उसकी तो पूरी साइंस है, जाने मूर्तियों का प्राचीनतम वैज्ञानिक उपयोग “ओशो”

 मूर्तियों का सबसे पहले प्रयोग पूजा के लिए नहीं किया गया, उसकी तो पूरी साइंस है, जाने मूर्तियों का प्राचीनतम वैज्ञानिक उपयोग “ओशो”

ओशो- मूर्ति का सबसे पहले प्रयोग अशरीरी आत्माओं से संपर्क स्थापित करने के लिए किया गया है। जैसे महावीर की मूर्ति है। इस मूर्ति पर अगर कोई बहुत देर तक चित्त एकाग्र करे और फिर आंख बंद कर ले तो मूर्ति का निगेटिव आंख में रह जाएगा। जैसे कि हम दरवाजे पर बहुत देर तक देखते रहें, फिर आंख बंद कर लें, तो दरवाजे का एक निगेटिव, जैसा कि कैमरे की फिल्म पर रह जाता है, वैसा दरवाजे का निगेटिव आंख पर रह जाएगा। और उस निगेटिव पर भी ध्यान अगर केंद्रित किया जाए तो उसके बड़े गहरे परिणाम हैं।तो महावीर की मूर्ति या बुद्ध की मूर्ति का जो पहला प्रयोग है, वह उन लोगों ने किया है, जो अशरीरी आत्माओं से संबंध स्थापित करना चाहते हैं। तो महावीर की मूर्ति पर अगर ध्यान एकाग्र किया और फिर आंख बंद कर ली और निरंतर के अभ्यास से निगेटिव स्पष्ट बनने लगा तो वह जो निगेटिव है, महावीर की अशरीरी आत्मा से संबंधित होने का मार्ग बन जाता है। और उस द्वार से अशरीरी आत्माएं भी संपर्क स्थापित कर सकती हैं। यह अनंत काल तक हो सकता है। इसमें कोई बाधा नहीं है।

तो मूर्ति पूजा के लिए नहीं है, एक डिवाइस है। और बड़ी गहरी डिवाइस है, जिसके माध्यम से जिनके शरीर खो गए हैं और जो शरीर ग्रहण नहीं कर सकते हैं, उनमें एक खिड़की खोली जा सकती है, उनसे संबंध स्थापित किया जा सकता है। तो फिर रास्ता यह है कि अशरीरी आत्माओं से कोई संबंध खोजा जा सके। अशरीरी आत्माएं भी संबंध खोजने की कोशिश करती हैं।

तो करुणा फिर यह मार्ग ले सकती है। और आज भी जगत में ऐसी चेतनाएं हैं, जो इन मार्गों का उपयोग कर रही हैं। थियोसाफी का सारा का सारा जो विकास हुआ, वह अशरीरी आत्माओं के द्वारा भेजे गए संदेशों पर निर्भर है। थियोसाफी का पूरा केंद्र इस जगत में पहली दफा बहुत व्यवस्थित रूप से–ब्लावट्स्की, अल्काट, एनीबीसेंट, लीडबीटर–इन चार लोगों ने पहली दफे अशरीरी आत्माओं से संदेश उपलब्ध करने की अदभुत चेष्टा की है। और जो संदेश उपलब्ध हुए हैं, वे बहुत हैरानी के हैं।

संदेश तो कभी भी उपलब्ध हो सकते हैं, क्योंकि अशरीरी चेतना कभी भी नहीं खोती। लेकिन तब तक आसानी है उस अशरीरी चेतना से संबंध स्थापित करने की, जब तक करुणावश वह भी संबंध स्थापित करने को उत्सुक है। धीरे-धीरे करुणा भी क्षीण हो जाती है। करुणा अंतिम वासना है। है वासना ही। सब वासनाएं जब क्षीण हो जाती हैं तो करुणा ही शेष रह जाती है। लेकिन अंततः करुणा भी क्षीण हो जाती है।

इसलिए पुराने शिक्षक, पुराने मास्टर्स, धीरे-धीरे खो जाते हैं। करुणा भी जब क्षीण हो जाती है, तब उनसे संबंध स्थापित करना अति कठिन हो जाता है। उनकी करुणा शेष रहे तब तक संबंध स्थापित करना सरल है, क्योंकि वे भी आतुर हैं। लेकिन जब उनकी करुणा क्षीण हो गई, अंतिम वासना गिर गई, तब फिर संबंध स्थापित करना निरंतर मुश्किल होता चला जाता है। जैसे कुछ शिक्षकों से अब संबंध स्थापित करना करीब-करीब मुश्किल हो गया है।

महावीर से संबंध स्थापित करना अब भी संभव है। लेकिन उसके पहले के तेईस तीर्थंकरों से किसी से भी संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। और इसीलिए महावीर कीमती हो गए और तेईस एकदम से गैर-कीमती हो गए। उसका बहुत बुनियादी जो कारण है, वह यह है कि अब उन तेईस से कोई संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता है–किसी तरह का भी !!

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

महावीर : मेरी दृष्टि में