मूर्ति बहुत विकसित लोगों ने पैदा की थी, मूर्तिपूजा की किमिया “ओशो”
ओशो– जीवन के सत्य बहुआयामी हैं। एक ही काम बहुत तरह से किया जा सकता है। और एक ही काम तक पहुंचने की बहुत सी टेक्नीक और बहुत सी विधियां हो सकती हैं। और फिर जीवन इतना बड़ा है कि जब हम एक दिशा में लग जाते हैं तो हम दूसरी दिशाओं को भूल जाते हैं।मूर्ति बहुत विकसित लोगों ने पैदा की थी। सोचने जैसा है। क्योंकि मूर्ति का संबंध है, वह जो कास्मिक फोर्स है, हमारे चारों तरफ जो ब्रह्म शक्ति है, उससे संबंधित होने का सेतु है वह। जिन लोगों ने भी मूर्ति विकसित की होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था।
हम कहते हैं कि हमने बिजली खोज ली है। निश्चित ही हम उन कौमों से ज्यादा सभ्य हैं जो बिजली नहीं खोज सकीं। निश्चित ही हमने रेडियो वेव्स खोज ली हैं और हम क्षणों में एक खबर को दूसरे मुल्क तक पहुंचा पाते हैं। निश्चित ही जो लोग सिर्फ अपनी आवाज पर निर्भर करते हैं और चिल्ला कर फर्लांग दो फर्लांग तक आवाज पहुंचा पाते हैं, उनसे हम ज्यादा विकसित हैं।
लेकिन जिन लोगों ने जीवन की परम सत्ता के साथ संबंध जोड़ने का सेतु खोज लिया था, उनके सामने हम बहुत बच्चे हैं। हमारी बिजली, और हमारा रेडियो, और हमारा सब खिलौने हैं। जीवन के परम रहस्य से जुड़ने की जो कला है, उसकी खोज, किसी एक दिशा में जिन लोगों ने बहुत मेहनत की थी, उसका परिणाम थी।
मूर्ति का प्रयोजन हैः हमारी तरफ, मनुष्य की तरफ आकार हो उसमें, और उस आकार में से कहीं एक द्वार खुलता हो जो निराकार में ले जाता हो। जैसे मेरे घर की खिड़की है। घर की खिड़की तो आकार वाली ही होगी। जब घर ही आकार वाला है, तो खिड़की निराकार नहीं हो सकती। लेकिन खिड़की खोल कर जब आकाश में झांकने कोई जाए तो निराकार में प्रवेश हो जाता है। और अगर मैं किसी को कहूं कि मैं अपने घर की खिड़की को खोल कर निराकार के दर्शन कर लेता हूं, और अगर उस आदमी ने कभी खिड़की से झांक कर आकाश को न देखा हो, तो वह कहेगा, कैसे पागलपन की बात है! इतनी छोटी सी खिड़की से निराकार का दर्शन कैसे होता होगा? इतनी छोटी सी खिड़की से जिसका दर्शन होता होगा वह ज्यादा से ज्यादा इतनी खिड़की के बराबर ही हो सकता है, इससे बड़ा कैसे होगा? और उसकी बात तर्कयुक्त है। और अगर उसने खिड़की पर जाकर कभी आकाश नहीं देखा है तो उसको राजी करना कठिन होगा। हम उसे समझा न पाएंगे कि छोटी सी खिड़की भी निराकार आकाश में खुल सकती है। खिड़की का कोई बंधन उस पर नहीं लगता जिस पर वह खुलती है।
मूर्ति का कोई बंधन अमूर्त(निराकार) के ऊपर नहीं है, मूर्ति तो सिर्फ द्वार बन जाती है अमूर्त के लिए। इसलिए जिन लोगों ने भी समझा कि मूर्ति अमूर्त के लिए बाधा है, उन्होंने दुनिया में बड़ी नासमझी पैदा करवाई है। और जिन्होंने यह सोचा कि हम खिड़की को तोड़ कर आकाश को तोड़ देंगे, वे तो फिर निपट ही पागल हैं। मूर्ति को तोड़ कर हम अमूर्त को तोड़ देंगे, वह तो फिर उनके पागलपन का कोई हिसाब ही नहीं है! लेकिन मूर्ति को तोड़ने का ख्याल उठेगा, अगर पूजा की कला और कीमिया का पता न हो।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
गहरे पानी पैठ प्रवचन – ०४
मूर्ति-पूजाः मूर्त से अमूर्त की ओर