इस जगत में कुरूप अकारण ही कुरूप पैदा नहीं होते, और न सुंदर अकारण सुंदर पैदा होते हैं “ओशो”
ओशो- एक ही मां-बाप बच्चों को जन्म देते हैं और सभी बच्चे भिन्न होते हैं।हमारे भीतर भी तीन पर्तें हैं। एक व्यक्त, जो हमारा शरीर है। एक अव्यक्त, जो हमारा मन है। और एक अव्यक्त के भी पार अव्यक्त, जो हमारी आत्मा है।
मन में कुछ भी हो, तो आज नहीं कल व्यक्त हो जाता है। शरीर तो व्यक्त है ही। उसमें कुछ अव्यक्त नहीं है, वह व्यक्त है ही। लेकिन मन में जो कुछ हो, वह आज नहीं कल व्यक्त हो जाता है, बीज की तरह। और मन के ही अव्यक्त से शरीर का व्यक्त पैदा होता है। इसलिए जब हम मरते हैं, तो शरीर तो छूट जाता है, लेकिन मन नहीं छूटता। मन को हम साथ ले जाते हैं, वह बीज है, कैप्सूल है, बंद है, हमारे साथ चला जाता है। फिर नए शरीर को बना लेता है।यह आप जानकर हैरान होंगे कि आप अगर मरते हुए आदमी के मन को पहचानने की क्षमता रखते हों, तो मरते क्षण में उसके मन के अध्ययन से यह तय किया जा सकता है कि वह किस भांति अगला जन्म लेगा, कैसा उसका व्यक्तित्व होगा, क्या उसके व्यक्तित्व का ढंग होगा। यह भी जाना जा सकता है कि वह सुंदर होगा, कुरूप होगा, बहुत अति वासना से ग्रस्त होगा, कि कम वासना से ग्रस्त होगा–यह सब जाना जा सकता है। मरते क्षण में मन सिकुड़कर बीज बन जाता है। उस बीज में बिल्ट-इन, भीतर छिप जाती है पूरी प्रक्रिया नए शरीर को ग्रहण करने की।
इसलिए इस जगत में कुरूप अकारण ही कुरूप पैदा नहीं होते, और न सुंदर अकारण सुंदर पैदा होते हैं। इस जगत में हम जो कुछ भी लेकर पैदा होते हैं, वह हमारे मन के साथ लाया हुआ बीज है। उस बीज के अनुसार ही हम निर्मित होते हैं। उस बीज के अनुसार ही ब्लूप्रिंट, नक्शा हमारे मन में छिपा है। वह हमारे शरीर को निर्मित करता है, बनाता है।
यह जो शरीर आज बनकर खड़ा होता है, योग की गहनता को जानने वाले निरंतर जानते रहे हैं कि मरते क्षण में आदमी के बीज को देखा जा सकता है, कि अब यह कहां यात्रा करेगा, कैसे यात्रा करेगा, क्या इसका फल होगा
जब मां के पेट में पहला अणु जन्मता है, वह सिर्फ मां और पिता के देह-कणों से मिलकर नहीं बन गया है, उसमें एक नया तत्व भी प्रविष्ट हुआ है, वह अव्यक्त मन है। मां का अणु भी व्यक्त है, पिता का अणु भी व्यक्त है। वे तो व्यक्त हैं, उनसे तो देह बनेगी; लेकिन उन दोनों के बीच एक तीसरा तत्व भी प्रवेश कर गया है।
इसीलिए एक ही मां-बाप बच्चों को जन्म देते हैं और सभी बच्चे भिन्न होते हैं। उसका और कोई कारण नहीं है। क्योंकि उनका व्यक्त तो सबका एक है, लेकिन अव्यक्त जो मन प्रवेश करता है, वह सबका अलग-अलग है। वे सब अपनी-अपनी यात्राएं लेकर साथ आ रहे हैं। वे सब भिन्न हो जाते हैं।
इस जगत की भिन्नता हमारे अव्यक्त मन की भिन्नता है। फिर वह रोज-रोज प्रकट होनी शुरू होगी। फिर जैसे बच्चा बड़ा होता है, मन शरीर में फैलने लगता है और प्रकट होने लगता है। फिर जो फूल लगते हैं या कांटे लगते हैं, जो कुछ भी लगता है, वह मन से आता है और फैलता चला जाता है। लेकिन इन दोनों के पार–व्यक्त शरीर और अव्यक्त मन के पार–अव्यक्त से भी परे, अति परे आत्मा है।
ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
गीता-दर्शन – भाग 4
सृष्टि और प्रलय का वर्तुल— अध्याय—8 (प्रवचन—सातवां)