इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है वह खुद-ब-खुद आता है, जो व्यर्थ है वही सीखना पड़ता है “ओशो”

 इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है वह खुद-ब-खुद आता है, जो व्यर्थ है वही सीखना पड़ता है “ओशो”

ओश– प्रश्न है भी, प्रश्न नहीं भी है। कुछ पूछा भी है, कुछ कहा भी है। राधा मोहम्मद का प्रश्न है।‘न सोचा न समझा न सीखा न जाना

मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना’
इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है वह खुद-ब-खुद आता है। इस जगत में जो व्यर्थ है वही सीखना पड़ता है। विश्वविद्यालय व्यर्थ को ही सिखाते हैं। सार्थक को सिखाने की कोई जरूरत ही नहीं है।
गणित सिखाए बिना नहीं आता। प्रेम बिना सिखाए आता है। तर्क बिना सिखाए नहीं आता, श्रद्धा बिना सिखाए उतरती है। ज्ञान बिना सिखाए नहीं आता। भक्ति कब अनायास, किस दिशा से आ जाती है कोई भी नहीं जानता। कब बाढ़ की तरह आती है और तुम्हें बहा ले जाती है, कोई भी नहीं जानता। इस जीवन में जो महत्वपूर्ण है वह अनसीखा है। महत्वपूर्ण की तलाश हो तो इस अनसीखेपन के तत्व को समझ लेना।
बच्चा पैदा होता है, श्वास लेना कौन सिखाता है? इसके पहले कभी ली न थी। मां के पेट में बच्चा स्वयं श्वास नहीं लेता। मां की श्वास से ही काम चलाता है। पैदा होने के बाद, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घड़ी होती है वे दो-तीन क्षण, जब बच्चे की श्वास नहीं होती। मां के गर्भ से बाहर आ गया है और अभी अपनी श्वास ली नहीं। कौन सिखाता है श्वास लेना? और उस श्वास के बिना कोई जीवन नहीं होगा। कभी कोई जीवन नहीं होगा। कहां से आती है श्वास? कैसे भर जाते हैं नासापुट जीवन से? कौन फूंक जाता है? सोचते हो इन जीवन के रहस्यों पर? सिखाया किसी ने भी नहीं। बच्चे ने इसके पहले कभी श्वास ली भी नहीं थी। पुराना कोई अनुभव भी नहीं है। मगर फिर भी घटना घटती है। मां-बाप, चिकित्सक, नर्सें अवाक रह जाते हैं क्षण भर को। यह बच्चा चीखेगा, रोएगा, चिल्लाएगा या नहीं? वह चिल्लाना, रोना-चीखना, सिर्फ श्वास लेने का सबूत है। वह श्वास लेने का पहला उपाय है। वह बच्चे का रो उठना श्वास लेने का पहला उपाय है।
ऐसे ही जिस दिन तुम परमात्मा के लिए रो उठोगे, वह परमात्मा को पाने का पहला उपाय है। मगर तुम्हारे किए करने की कोई बात नहीं है। तुम क्या करोगे?

बच्चा श्वास ले लेता है, जीवन की यात्रा शुरू हो गई। सबसे महत्वपूर्ण कदम उठा लिया। इससे महत्वपूर्ण कदम अब जिंदगी में दूसरा नहीं होगा। और यह बिना सीखे उठाया। न कहीं स्कूल जाना पड़ा, न किसी से प्रशिक्षण लेना पड़ा। यह अपने से हुआ। यह स्वयंभू है। या कहो परमात्मा से हुआ। परमात्मा का और कुछ अर्थ नहीं होता, जो अपने से हो रहा है उसका नाम परमात्मा है। जो तुम करते हो उसका नाम आदमी है। जो अपने से होता है वही परमात्मा।
फिर एक दिन तुम किसी के प्रेम में पड़ गए। जैसे एक दिन जीवन शुरू हुआ था वैसे एक दिन प्रेम भी शुरू हुआ। वह भी नहीं सीखा। उसके भी कोई विद्यालय नहीं हैं, पाठशालाएं नहीं हैं। वह भी हुआ। और जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, इसी तरह होता रहता है।
तुम जानते हो न! किसी-किसी कवि को हम कहते हैं, वह जन्मजात कवि है। क्या अर्थ? जन्मजात कवि की क्या महिमा? इतना ही कि कविता उसे अपने से हुई है। बाकी तुकबंद हैं, जिन्होंने सीखी है। भाषा सीख सकते हो, व्याकरण सीख सकते हो, छंद के नियम सीख सकते हो। कितनी मात्राएं होनी चाहिए, कितनी नहीं होनी चाहिए, सब सीख सकते हो, मगर तुकबंद रहोगे। काव्य का जन्म नहीं होगा। काव्य का जन्म जन्मजात है। होता है तो होता है, नहीं होता है तो नहीं होता है। उपाय से तुम धोखा दे सकते हो दुनिया को, मगर परमात्मा को धोखा न दे पाओगे।
तुम जरा अपने भीतर तलाश करना, कितनी चीजें अनसीखी हो रही हैं। जो अनसीखा हो रहा है उसमें परमात्मा का हाथ है। जो सीख-सीख कर होता है वह आदमी की बनावट है। आदमी की बनावट से यंत्र बन सकते हैं, जीवन नहीं। आदमी की बनावट से मृत वस्तुएं हो सकती हैं। लेकिन जीवन का प्रवाह आदमी के हाथ में नहीं है। जीवन के प्रवाह का ही नाम तो धर्म है, जो सारे जीवन को सम्हाले हुए है।
रमण महर्षि के पास एक जर्मन विचारक ने कहा कि मैं दूर से आया हूं सत्य को सीखने। आप मुझे सिखाएं। रमण ने उसकी तरफ आंख उठा कर देखा। ऐसे वे ज्यादा नहीं बोलते थे। कम से कम बोलने वाले आदमी थे। इतना ही कहा कि अगर सीखना है तो कहीं और जाओ। यहां तो अनसीखना हो तो रुको। बड़ी अजीब बात। सीखना हो तो कहीं और जाओ। यहां तो अनसीखना हो, यहां तो सीखे को भी भूलना हो तो रुको।
मैं भी यही तुमसे कहता हूं, गुरु वही है जिसके पास तुम्हारा ज्ञान गल जाए। और जहां तुम्हारा ज्ञान बढ़ता हो वह अध्यापक होगा, शिक्षक होगा, गुरु नहीं है। जहां तुम्हारी जानकारी में और थोड़ा जोड़ हो जाए, तुम कुछ और सीख कर लौटो, समझना वहां शिक्षक था। शिक्षक सिखाता है, शिक्षा देता है। गुरु छीनता है। जो तुमने सीख लिया उसे हटाता है ताकि तुम्हारे भीतर अनसीखे तत्व फिर सक्रिय हो जाएं। दब गए हैं बुरी तरह। तुम्हारी सिखावन में इस तरह दब गई है तुम्हारी जीवन-ऊर्जा, उसे मुक्त करना है। पत्थरों की तरह तुम्हारा ज्ञान तुम्हारी छाती पर बैठ गया है। उसे हटाना है। तुम्हारी जीवन-चेतना पर शास्त्र लद गए हैं, उन्हें उतारना है। उनके उतरते ही तुम्हारे भीतर वास्तविक प्रज्ञान का जन्म होगा।
ज्ञान बाहर से आता है, प्रज्ञान भीतर से आता है। ज्ञान उधार होता है, प्रज्ञान अपना होता है, निजी होता है। जो निजी है वही सत्य है।

सोचते सिर्फ अंधे हैं। आंख जिनके पास है वे सोचते नहीं, चल पड़ते हैं। सोच-विचार अंधे की लकड़ी है। वह उससे टटोलता है। जिसको दिखाई पड़ता है, जो आंख खोल कर देखता है वह लकड़ी लेकर नहीं चलता, वह टटोलता भी नहीं। उसे दिखाई पड़ता है दरवाजा कहां है, निकल जाता है।
सोचना कोई बहुत बड़ी गुणवत्ता नहीं है। असली राज तो बिना सोचे जीवन में गति करने में है।
मेरे पास दो तरह के लोग आते हैं। एक जो कहते हैं, संन्यास लेना है, सोचेंगे-विचारेंगे। उन्हें मैं नहीं दिखाई पड़ रहा हूं। जो कहते हैं सोचेंगे-विचारेंगे, वे आंख बंद किए मेरे सामने बैठे हैं। फिर दूसरा कोई आता है, जो मुझे देखता है और जिसकी आंख से आंसू बहने लगते हैं। और वह कहता है, अगर मैं पात्र हूं तो मुझे संन्यास दे दें। वह यह नहीं कहता कि मैं संन्यास लूंगा या नहीं। वह कहता है, दे दें। अगर मैं पात्र हूं, अगर मुझे योग्य मानें, अगर मेरी कोई संभावना हो, मेरा कोई भविष्य हो, तो मुझे दे दें।
सोचने-विचारने का सवाल कहां है? सोचना-विचारना कायर का लक्षण है। कायर झिझकता है, सोचता-विचारता है। इसलिए सोचने-विचारने वाले लोग जगत में कुछ कर नहीं पाते। करने का समय कहां है? सोचने-विचारने से फुरसत मिले तब न! निर्णय आए पहले सोच-विचार के तब न! और सोचने-विचारने से निर्णय कभी नहीं आता। तुम यह जान कर हैरान होओगे, निर्णय सब हृदय में होते हैं। सोचना-विचारना सिर में होता है। और सिर कोई निर्णय नहीं ले सकता और हृदय कुछ सोच-विचार नहीं कर सकता। हृदय के पास आंखें हैं और सिर के पास अंधापन है। अंधेपन के कारण सिर खूब सोचता-विचारता है। ये दो तरह के लोग।
और एक तीसरे तरह का व्यक्ति भी कभी-कभी आता है। वह मुझे भी उलझन में डाल देता है। क्योंकि उसका हृदय कहता है, तैयार हूं। और उसका सिर कहता है, अभी सोचूंगा-विचारूंगा। अब मैं किसकी मानूं, किसकी सुनूं? उसके हृदय की सुनूं या उसके मस्तिष्क की सुनूं? उसका हृदय हाथ फैलाए है, उसका मस्तिष्क झिझक रहा है। मैं भी मुश्किल में पड़ जाता हूं, अब किसकी सुनूं? इसके हृदय की सुनूं? इसके हृदय की सुनूं तो इसका मस्तिष्क इनकार कर रहा है। कह रहा है, ना। इसके मस्तिष्क की सुनूं तो इसके हृदय के साथ अनाचार हो रहा है। क्योंकि इसका हृदय मांग रहा है, और हृदय ही मूल्यवान है। हृदय सदा हां कहना जानता है, हृदय आस्तिक है। और सिर सदा नास्तिक है। जो आदमी सिर से आस्तिक होना चाहता है वह कभी आस्तिक हो ही न पाएगा।
तर्क हां कहता ही नहीं और अगर कभी कहता है तो सिर्फ मजबूरी में कहता है। भेद समझ लेना। मजबूरी में! तर्क नहीं सूझता कुछ तो कहता है, ठीक। लेकिन प्रतीक्षा करता है कि कल अगर कोई तर्क मिल जाएगा तो फिर नहीं पर उतर आऊंगा।
हृदय हां कहता है, मजबूरी में नहीं, अहोभाव में। हृदय को अगर कभी ना कहना पड़ता है तो मजबूरी में। मगर इसी आशा में न कहता है कि ठीक है, आज मजबूरी है, न कह रहा हूं, लेकिन कल जैसे ही सुविधा होगी फिर मेरे हां का फूल खिल जाएगा। हृदय श्रद्धा है। और हृदय को कोई सीखने की जरूरत नहीं है, न सोचने की जरूरत है, न जानने की जरूरत है। हृदय जानता है, इसलिए जानने की जरूरत नहीं है।
हृदय के तल पर तुम परमात्मा को जानते ही हो। बस इतना ही करना है कि तुम्हें मस्तिष्क से उतर कर हृदय पर आ जाना है। वहां जानना घटा ही हुआ है; सदा से घटा हुआ है, प्रथम से घटा हुआ है। वहां अज्ञान कभी आया ही नहीं। तुम्हारे हृदय पर रोशनी अभी भी है। वहां दीया अभी भी जला है। अंधकार सिर में है। और तुम सिर में बस गए हो। तुम्हें अपने हृदय की गैल ही भूल गई है। भक्ति का कुछ और अर्थ नहीं है, हृदय की गैल को वापस खोज लो। सिर से उतरो, हृदय में आ जाओ।

ध्यान रहे, जब तुम्हारे जीवन में प्रेम घटेगा, तुम्हारी जबान लड़खड़ा जाएगी। जब तुम्हारे जीवन में जितना गहरा प्रेम घटेगा उतनी ही जबान चुप हो जाएगी। जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब पहुंचोगे वैसे-वैसे सन्नाटे के करीब पहुंचोगे। वैसे ही वाणी दूर और दूर होती जाएगी। वैसे ही तुम अनुभव करने लगोगे, कुछ है जो न कभी कहा गया है और न कहा जा सकता है। इसीलिए वह जूठा नहीं हुआ है।
परमात्मा न कभी कहा गया है और न कहा जा सकता है, इसलिए परमात्मा जूठा नहीं हुआ है। और जब भी किसी को मिलता है तो जूठन नहीं होता। कबीर को मिले तो जूठन नहीं। धनी धरमदास को मिले तो जूठन नहीं। मुझे मिले तो जूठन नहीं, तुम्हें मिल तो जूठन नहीं। परमात्मा कभी भी जूठा नहीं होता। जब मिलता है, तभी ताजा और नया होता है। उस पर किसी के ओंठ कभी लगे ही नहीं। वाणी में वह कभी आया नहीं।
‘खामोशी मेरी कह रही है फसाना’
जो मेरे पास हैं, जो सच में मेरे पास हैं उनकी आंखें धीरे-धीरे खामोश होने ही लगती हैं। धीरे-धीरे वे अपनी चुप्पी से गुफ्तगू करने ही लगते हैं। चुपचाप कहने लगते हैं। जब कुछ कहने योग्य है तब चुपचाप ही कहा जा सकता है। लेकिन फिर भी छिपता कुछ भी नहीं। जब कोई प्रेम से भरता है तो कैसे छिपाओगे? जब घर में दीया जला हो तो रोशनी कहां छिपाओगे? जब फूल खिलेगा तो सुगंध को कहां छिपाओगे? सुगंध कुछ कहती तो नहीं, फिर भी पता तो पड़ जाती है। रोशनी कुछ कहती तो नहीं, कोई डुंडी तो नहीं पीटती, फिर भी पता तो पड़ जाती है। जब सुबह हो गई, सूरज कुछ कहे या न कहे, हजार-हजार पक्षी गीत गाने लगते हैं। हजार-हजार फूल खिल जाते हैं। हजार-हजार आरती के थाल सज जाते हैं।
छिपता नहीं छिपाए से चेहरा अताब का
होता चला गया है रंग गुलाबी नकाब का
वह प्रेम अगर घटे तो घूंघट तक गुलाबी हो जाता है। घूंघट के भीतर का चेहरा तो गुलाबी होता ही है, घूंघट तक पर आभा पड़ जाती है। आत्मा तो लाल हो ही जाती है।
लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
उस प्रेम के रंग में रंगकर तुम्हारी आत्मा तो सुर्ख हो ही उठती है, तुम्हारी देह तक गुलाबी हो जाती है।
छिपता नहीं छिपाए से चेहरा अताब का
होता चला गया है रंग गुलाबी नकाब का
तो राधा कहे कि न कहे, चुप रहे, सदा चुप रहे तो भी मुझे सुनाई पड़ रहा है। तो भी उसका घूंघट लाल हो गया है।
नजर बन कर वह दिल पर छा रहा है
तजल्ली का मजा अब आ रहा है
जैसे-जैसे परमात्मा तुम्हारे ऊपर छाएगा, जिंदगी में एक नई बहार, एक नया बसंत! कहने की कोई जरूरत नहीं। वसंत आ गया तो कहने की क्या जरूरत? वसंत कोई विज्ञापन तो देता नहीं। जब आ जाता है तो धड़ल्ले से आ जाता है। चारों तरफ से आ जाता है। हर वृक्ष पर आ जाता है। हर पक्षी के कंठ में आ जाता है। कहां छिपाओगे? वसंत पर कैसे घूंघट डालोगे? जल गई है प्यार की ज्योति।

इस दुनिया में सबसे बड़ा नादान वही है जो प्रेम में नहीं उतरता। उसके जीवन में सभी कुछ रेत ही रेत रह जाता है। मरुस्थल ही मरुस्थल! उसके जीवन में मरूद्यान कभी नहीं उपलब्ध होते।
साधारण जीवन का प्रेम भी उस परम प्रेम की तरफ पहल है, शुरुआत है। प्रेम का फरेब खाना! प्रेम के भ्रम में पड़ना क्योंकि प्रेम ही सत्य है। प्रेम इतना सत्य है कि उसका भ्रम भी सार्थक है। और जगत इतना असत्य है कि उसका भ्रम न भी हो तो भी सार्थक नहीं है। गणित कितना ही तथ्यपूर्ण मालूम पड़े तो भी कहीं न ले जाएगा और प्रेम कितना ही भ्रामक मालूम पड़े तो भी ले जाता है।
जरा अपनी तिरछी निगाहों को रोको
जिगर चोट खाने के काबिल नहीं है
डरता है। भक्त पहले पुकारता है, बुलाता है, तड़फता है, रोता है और जब परमात्मा के पद्चाप सुनाई पड़ते हैं, जब उसके स्वर करीब आने लगते हैं तब घबड़ाता भी है। जब उसकी आंख पड़ती है तब घबड़ाता भी है।
जरा अपनी तिरछी निगाहों को रोको
जिगर चोट खाने के काबिल नहीं है
मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। परमात्मा का आना शुरू हो जाए तो फिर रुकने का कोई उपाय नहीं है। एक बार उसकी पगचाप सुनाई पड़ जाए फिर तुम कहीं भी भागो, वह तुम्हें खोज ही लेगा। तुम कितने ही छिपो, वह तुम्हें पुकार ही लेगा।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३
जस पनिहार धरे सिर गागर