परमात्मा किसी को मिटाना चाहता तो उसकी मति भ्रष्ट कर देता। मति क्या है? “ओशो”

 परमात्मा किसी को मिटाना चाहता तो उसकी मति भ्रष्ट कर देता। मति क्या है? “ओशो”

ओशो- मति एक बड़ी पारिभाषिक धारणा है। तुमने सुनी कहावत कि जब परमात्मा किसी को मिटाना चाहता तो उसकी मति भ्रष्ट कर देता। मति क्या है? तुम्हारे सोचने पर निर्भर नहीं है मति। तुम तो सोच—सोच कर जो भी करोगे वह मन का ही खेल होगा। मति है मन के पार जो समझ है, उसका नाम मति है। मन के पार जो समझ है, सोच—विचार से ऊपर जो समझ है, शुद्ध समझ, जिसको अंग्रेजी में अंडरस्टेंडिंग कहें, थिंकिंग नहीं, विचारणा नहीं, अंडरस्टेंडिंग, प्रज्ञा जिसको बुद्ध ने कहा है—मति।
मत्वेति हेलया किंचित् मा गृहाण विमुडच मा।
जो ऐसी मति में थिर हो गया है—मैं अगर अनुवाद करूं तो ऐसा करूंगा—जो ऐसी मति को उपलब्ध हो गया है, मत्वेति, कि अब न तो इच्छा उठती, न ग्रहण उठता, न त्याग का भाव उठता। जो ऐसी मति को उपलब्ध हो गया है, जहां मन नहीं उठता। जिसको झेन फकीर नो —माइंड कहते हैं, वही मति। यह तुम्हारे सोच—विचार का सवाल नहीं है। जब तुम्हारा सब सोच—विचार खो जाएगा, तब तुम उस घड़ी में आओगे, जिसको मति कहें।मति तुम्हारी और मेरी नहीं होती। मति तो एक ही है। मेरे विचार मेरे, तुम्हारे विचार तुम्हारे हैं। जब तुम्हारे विचार खो गए, मेरे विचार खो गए, मैं निर्विचार हुआ, तुम निर्विचार हुए—तो मुझमें तुममें कोई भेद न रहा। और जो उस घड़ी में घटेगा—वह मति। वह मति न तो तुम्हारी न मेरी। विचार तो सदा मेरे—तेरे होते हैं। और अष्टावक्र तो कहते हैं, जब मैऐ हूं तब बंध है। और विचार के साथ तो मैं जुड़ा ही रहता है। इसलिए तो लोग बड़े लड़ते हैं। कहते हैं, मेरा विचार। इसकी भी फिक्र नहीं करते कि सत्य क्या है? मेरा विचार सत्य होना ही चाहिए, क्योंकि मेरा है। दुनिया में जो विवाद चलते हैं, वह कोई सत्य के अनुसंधान के लिए थोड़े ही हैं। सत्य के अनुसंधान के लिए विवाद की जरूरत ही नहीं है। विवाद चलते हैं कि जो मैं कहता हूं वही सत्य; जो तुम कहते हो वही गलत। तुम कहते हो, इसलिए वह गलत। और मैं कहता हूं इसलिए यह सही। और कोई आधार नहीं है। मैंने कहा है, तो गलत हो कैसे सकता है!

तो विचार में तो मैं —तू है। मति में मैं —तू नहीं है। या ऐसा होगा कहना ज्यादा ठीक कि विचार हमारे—तुम्हारे होते, विचार मनुष्यों के होते, मति परमात्मा की। मति वहां है जहां हम खो गए होते हैं।
इति मति मत्वा हेलया मा गृहाण मा विमुज्‍च।
—ऐसी मति में हों हम, कि न तो इच्छा करके ग्रहण करें, न इच्छा करके त्याग करें।
इसको भी समझ लेना। जरा भी इच्छा न हो। जो हो, उसे होने दें। अगर किसी क्षण दुख हो, तो उसे होने दें, इच्छा करके हम दुख को न हटाए। और किसी क्षण सुख हो, तो उसे होने दें; इच्छा करके हम सुख को न हटाए। हम इच्छा करके हटाने का काम ही बंद कर दें। हम तो यही कह दें जो हो तेरी मर्जी। जैसी तेरी मर्जी वैसे रहेंगे। जो अनंत की मर्जी, वही मेरी मर्जी। मैं अपने को अलग— थलग न रखूंगा। मेरा अपना कोई निजी लक्ष्य नहीं अब। जो सर्व का लक्ष्य है, वही मेरा लक्ष्य है।
ऐसी घड़ी में, ऐसी मति में, ऐसी प्रज्ञा में, ऐसे बोधोदय में, कहां दुख? कहां सुख? कहां बंधन? कहां मुक्ति? सब द्वंद्व खो जाते हैं। सब द्वैत सो जाते हैं। एक ही बचता है अहर्निश। एक ही गूंजता है, एक ही गाता, एक ही जीता, एक ही नाचता है। ऐसी घड़ी में तुम सर्व के अंग हो जाते, सर्व के साथ प्रफुल्लित, सर्व के साथ खिले हुए। तुम्हारा सब संघर्ष समाप्त हो जाता है। तुम सर्व के साथ लयबद्ध हो जाते; छंदोबद्ध हो जाते।
सर्व के साथ जो छंदबद्ध हो गया है, उसी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो हो—अच्छा हो, बुरा हो—अब कोई चिंता न रही। जैसा हो, हो; अब मेरी कोई अपेक्षा न रही। अब जो होगा वह मुझे
स्वीकार है। नर्क तो नर्क और स्वर्ग तो स्वर्ग। ऐसी परम स्वीकृति का नाम संन्यास है।
ये संन्यास के महत सूत्र हैं। इन्हें तुम समझना, सोच—विचार कर नहीं, ध्यान कर—कर के, ताकि इनसे मति का जन्म हो जाए।
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बंधन तदा।
मत्वेति हेलया किंचित् मा गृहाण विमुज्‍च मा।।

और इस जीवन के लिए, इस जीवन की परम क्रांति के लिए तुम्हीं प्रयोग—स्थल हो, तुम ही परीक्षा हो। तुम्हीं को अपनी परीक्षा लेनी है। तुम्हीं को जनक बनना है और तुम्हीं को अष्टावक्र भी। यह संवाद तुम्हारे भीतर ही घटित होना है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपनी लान में आरामकुर्सी पर अधलेटा अखबार पढ़ रहा था। और एक अल्सेशियन कुत्ता उसके पांव के पास बैठा पूंछ हिला रहा था। एक पड़ोसी मित्र मिलने आए थे, कुत्ते के डर से दरवाजे पर ही खड़े हो गए। मुल्ला का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्होंने जोर से चिल्ला कर कहा कि भाई, यह कुत्ता काटता— आटता तो नहीं?
मुल्ला ने कहा, अरे आ जाइए, बिलकुल आ जाइए, कोई फिक्र मत कीजिए! फिर भी मित्र डरे थे, क्योंकि कुत्ता कुछ खड़ा हो गया था और गुर्रा कर देख रहा था। तो मित्र ने कहा कि ठीक, आप ठीक कहते हैं कि काटता इत्यादि तो नहीं? क्योंकि मुझे पहले कुत्तों के बड़े बुरे अनुभव हो चुके।
मुल्ला ने कहा, भाई, यही तो देखना चाहता हूं कि काटता है कि नहीं, अभी ही खरीद कर लाया हूं।
जीवन में परीक्षाएं दूसरों की मत लेना। और दूसरों की परीक्षाओं से जो तुम्हें मिल भी जाएगा, वह कभी तुम्हारा नहीं होगा। दूसरे के अनुभव कभी तुम्हारे अनुभव नहीं हो सकते। जीवन की आत्यंतिक रहस्यमयता तो उसी के सामने प्रगट होती है, जो अपने को ही अपना परीक्षा—स्थल बना लेता, जो अपने को ही अपनी प्रयोग— भूमि बना लेता।
इसलिए कहता हूं. सोच—विचार से नहीं, प्रयोग से, ध्यान से मति उपलब्ध होगी। और तुमने सदा सुन रखा है. स्वर्ग कहीं ऊपर, नर्क कहीं नीचे। उस भ्रांत धारणा को छोड़ दो। स्वर्ग तुम्हारे भीतर, नर्क तुम्हारे भीतर। स्वर्ग तुम्हारे होने का एक ढंग और नर्क तुम्हारे होने का एक ढंग। मैं से भरे हुए तो नर्क, मैं से मुक्त तो स्वर्ग।

संसार बंधन, और मोक्ष कहीं दूर सिद्ध—शिलाएं हैं जहां मुक्त पुरुष बैठे हैं—ऐसी भ्रांतियां छोड़ दो। अगर मन में चाह है, चाहत है, तो संसार। अगर मन में कोई चाहत नहीं, छोड़ने तक की चाह नहीं, त्याग तक की चाह नहीं, कोई चाह नहीं—ऐसी अचाह की अवस्था मोक्ष।
बाहर मत खोजना स्वर्ग—नरक, संसार—मोक्ष को। ये तुम्हारे होने के ढंग हैं। स्वस्थ होना मोक्ष है, अस्वस्थ होना संसार है। इसलिए? बाहर छोड़ने को भी कुछ नहीं है, भागने को भी कुछ नहीं है। हिमालय पर भी बैठो तो तुम तुम ही रहोगे और बाजार में भी बैठो तो तुम तुम ही रहोगे। इसलिए मैंने तुमसे नहीं कहा है, मेरे संन्यासियों को मैंने नहीं कहा है, तुम कुछ भी छोड़ कर कहीं जाओ। मैंने उनको सिर्फ इतना ही कहा, तुम जाग कर देखते रहो, जो घटता है घटने दो। गृहस्थी है तो गृहस्थी सही।
और किसी दिन अगर तुम अचानक अपने को हिमालय पर बैठा हुआ पाओ तो वह भी ठीक, जाते हुए पाओ तो वह भी ठीक है।
जो घटे, उसे घटने देना; इच्छापूर्वक अन्यथा मत चाहना। अन्यथा की चाह से मैं संगठित होता है। तुम अपनी कोई चाह न रखो, सर्व की चाह के साथ बहे चले जाओ। यह गंगा जहां जाती है, वहीं चल पड़ो। तुम पतवारें मत उठाना। तुम तो पाल खोल दो, चलने दो हवाओं को, ले चलने दो इस नदी की धार को।
इस समर्पण को मैंने संन्यास कहा है। इस समर्पण में तुम बचते ही नहीं, सिर्फ परमात्मा बचता है। किसी न किसी दिन वह घड़ी आएगी, वह मति आएगी कि हटेंगे बादल, खुला आकाश प्रगट होगा। तब तुम हंसोगे, तब तुम जानोगे कि अष्टावक्र क्या कह रहे है—न कुछ छोड़ने को, न कुछ पकड़ने को। जो भी दिखाई पड़ रहा है, स्वप्‍नवत है; जो देख रहा है, वही सत्य है।

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३

हरि ओंम तत्सत्!

अष्‍टावक्र महागीता–प्रवचन–25