तुम्हारा होना ही परमात्मा का होना है, पृथ्वी पर जो इतने मंदिर—मस्जिद दिखाई पड़ते हैं, वे तुम्हारे धोखे का विस्तार हैं “ओशो”
ओशो- तुम्हारा धर्म आत्मवंचना है। पृथ्वी पर जो इतने मंदिर—मस्जिद दिखाई पड़ते हैं, वे तुम्हारे धोखे का विस्तार हैं। जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ेगा, उस दिन तुम्हारी आंख भीतर लौटनी शुरू होगी। उस दिन तुम असली मंदिर खोजोगे। वह मंदिर तुम हो। इसलिए कबीर कहते हैं:“मो को कहां ढूंढो रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं बकरी ना मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंड़ास में।।
नहिं खाल में नहिं पोंछ में, ना हड्डी ना मांस में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में।।’
न तो मैं देवल हूं, न मस्जिद में हूं, न काबे में हूं, न कैलाश में हूं। परमात्मा तुम्हारे भीतर है। तुम परमात्मा हो। तुम्हारा होना ही परमात्मा का होना है। तुम परमात्मा का एक रूप हो। तुम परमात्मा की एक लहर, एक तरंग हो। तुम परमात्मा की एक भावदशा हो। तुम परमात्मा का एक संगठन हो। तुम एक इकाई हो। वह होगा सूरज, तो तुम एक छोटे दीए हो, लेकिन आग वही है। वह होगा विराट, वह होगा महासागर, तुम एक बूंद हो; लेकिन एक बूंद में पूरा सागर छिपा है। और एक बूंद को कोई पूरा जान ले, तो पूरे सागर को जान लिया; कुछ और जानने को बचता नहीं है। क्योंकि एक बूंद में जब सूक्ष्म रूप से पूरा सागर मौजूद है। पिंड में ब्रह्मांड मौजूद है। आत्मा में परमात्मा मौजूद है। व्यक्ति में समष्टि मौजूद है।
ना तो कौनो क्रिया कर्म में, नहिं जोग बैराग में। खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।।
ना तो कौनो क्रिया कर्म में। होना है परमात्मा का स्वाभाव; क्रिया—कर्म तो ऊपर—ऊपर है। तुम मंदिर में बैठकर पूजा कर रहे हो, घंटी बजा रहे हो, घंटी बजती रहेगी; तुम दीया लेकर आरती उतार रहे हो, आरती उतर जाएगी—लेकिन इससे तुम्हारे होने में क्या फर्क पड़नेवाला है? तुम तो तुम ही रहोगे। और क्रिया से परमात्मा का क्या संबंध है? तुम सारी क्रियाएं छोड़ दो, तो भी तो तुम्हारे भीतर जीवन रहेगा। तुम बिलकुल आंख बंद करके पड़ जाओ, कुछ भी न करो, तो भी तो तुम हो!
तो क्रिया तो गौण है, बाहर है; होना भीतर है, मूल है। होकर ही कोई परमात्मा को पाता है। कर—करके कुछ भी नहीं कोई पा सकता। क्रिया से होना बड़ा है। क्योंकि सब क्रियाएं होने से निकलती हैं। और सब क्रियाओं को भी जोड़ दो तो भी सब क्रियाओं के जोड़ से होना नहीं पूरा होता; होना फिर भी बड़ा हैं। तुमने जो भी किया है अब तक, सब भी जोड़ दिया जाए तो भी तुम उससे बड़े हो, क्योंकि तुम कुछ और कर सकते हो। तुम प्रतिफल कुछ और करते रहोगे। करना तो पत्तों की तरह है—निकलते चले जाते हैं। होना जड़ की तरह है। जड़ को ही खोजो। पत्ते—पत्ते बहुत खोजा, बहुत भटके। पत्ते अनंत हैं—और भटकते रहोगे। जड़ को पकड़ लो। व्यक्तित्व की जड़ कहां है?—कर्म में नहीं, क्रिया में नहीं, सिर्फ होने मात्र में।
विचार भी क्रिया है। हाथ से कुछ करो, वह भी क्रिया है; मन से कुछ करो, वह भी क्रिया है। जब सब क्रिया शांत हो जाती है—न हाथ कुछ करते हैं, न मन कुछ करता है; जब तुम बस हो; सब ठहर गया, कोई गति नहीं है, कोई तरंग नहीं—अचानक, अचानक सब मौजूद हो जाता है जिसकी तुम तलाश कर रहे थे; आनंद और प्रेम और परमात्मा सब बरस जाता है।
ना तो कौनो क्रिया कर्म में, नहिं जोग बैराग में। कबीर ठीक झेन फकीरों जैसे हैं। कबीर कहते हैं, कुछ भी करने की जरूरत नहीं है कि तुम योग करो, कि तुम आसन लगाओ, कि तुम शीर्षासन करो, कि तुम हजार तरह के क्रियाकांड में उलझो—कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, वह सब करने से पहले तुम्हारे भीतर मौजूद है। यह फर्क ठीक से समझ लेना, जैसा है, क्योंकि बहुत नाजुक है। होना—बीइंग, और करना—डुइंग: यह फर्क बहुत नाजुक है।