पिता की आत्महत्या के तीन दिन बाद ही मोरारजी देसाई ने शादी की “ओशो”

 पिता की आत्महत्या के तीन दिन बाद ही मोरारजी देसाई ने शादी की “ओशो”

ओशो- मोरारजी देसाई जब जवान थे तो एक लड़की से शादी करना चाहते थे। पिता पक्ष में नहीं थे। बात इतनी बिगड़ गई कि पिता ने कुएं में कूद कर आत्महत्या कर ली!मोरारजी को बहुत लोगों ने समझाया कि शादी तो अब तुम कर ही लेना जिससे करनी है, लेकिन कम से कम अभी कुछ दिन तो रुक जाओ! मगर वे नहीं रुके। पिता मर गए, लेकिन तारीख जो उन्होंने तय कर ली थी, ठीक तीन दिन बाद, पिता की आत्महत्या के तीन दिन बाद शादी हुई। शादी वे करके ही रहे। अब तो कोई विरोध करने वाला भी नहीं था। अब तो अगर महीने-पंद्रह दिन रुक जाते तो कुछ हर्ज न था। लेकिन एक तरह की अमानवीयता…।

मोरारजी देसाई की लड़की ने भी आत्महत्या की; उन्हीं के कारण। पिता ने भी उन्हीं के कारण की। और डर यह है कि पूरा मुल्क कहीं उनके कारण न करे।

उनकी लड़की देखने-दाखने में सुंदर नहीं थी; वैसी ही रही होगी जैसे वे हैं! तो देर तक लड़का नहीं मिल सका। सत्ताईस वर्ष की उम्र में बामुश्किल उसने एक लड़का खोजा। वह लड़का भी उसमें उत्सुक नहीं था; वह मोरारजी तब चीफ मिनिस्टर थे बंबई के, उनमें उत्सुक था कि उनके सहारे सीढ़ियां चढ़ लगा। मोरारजी को यह पसंद नहीं था।

जानते हुए भलीभांति कि उनकी लड़की को लड़का मिलना मुश्किल है…। उनका ढंग-ढर्रा लड़की में था। अब यह बामुश्किल मिल गया है, किसी बहाने उसे भविष्य में कोई आशा ही नहीं थी कि कोई दूसरा लड़का मिल सकेगा।
जब अस्पताल में जली हुई लड़की को देखने वे गए मरी हुई लड़की को देखने गए तो एक शब्द नहीं बोले। डाक्टर चकित, अस्पताल की नर्से चकित! न उनके चेहरे पर कोई भाव आया; न एक शब्द बोले। एक मिनिट वहां खड़े रहे, लौट पड़े। कमरे के बाहर आ कर डाक्टर से कहा कि जैसे ही औपचारिकता पूरी हो जाए, लाश को मेरे घर के लोगों को दे दिया जाए ताकि अंत्येष्टि क्रिया की जा सके; और चले गए।

ऐसी कठोरता, ऐसी अमानवीयता…नहीं, शराबियों में नहीं मिलेगी। शराबी में थोड़ी सी भलमनसाहत होती है।

वह जो चार मित्रों को बुलाकर भोजन करता है, उसमें थोड़ी भलमनसाहत होती है, थोड़ी मिलन सारिता होती है। उसमें मैत्री का भाव होता है।
ऐसे तो पशु पक्षी भी भोजन करते हैं; मनुष्य में और उनमें इतना ही भेद है कि मनुष्य भोजन को भी एक सुसंस्कार देता है। टेबल है, कुर्सी है, चम्मच है; बैठने का ढंग है; धूप बाली गई है; फूल सजाए गए हैं; रोशनी की गई है, दिए जलाए गए हैं। इस सबके बिना भी भोजन हो सकता है। यह सब भोजन का अंग नहीं है; लेकिन यह सब भोजन को एक संस्कार देता है, एक सभ्यता देता है।

अकेले में एक कोने में बैठकर शराब पी जा सकती है। लेकिन जब तुम पांच मित्रों को बुलाकर, गपशप करके, गीत गा कर पीते हो, तो पीने का मजा और है।
चार्वाक को इनकार करने के लिए मैं राजी नहीं हूं। चार्वाक मुझे पूरा स्वीकार है। लेकिन चार्वाक पर रुकने को भी मैं राजी नहीं हूं। इतना ही काफी नहीं है।
मिलनसार होना अच्छा; खाने पीने को संस्कार देना अच्छा; मैत्री अच्छी, अगर इतना ही पर्याप्त नहीं है; परमात्मा की तलाश भी करनी है।

और चार्वाक में और परमात्मा की तलाश करने में मुझे कोई विरोध नहीं दिखाई पड़ता। सच तो यह है, मुझे दोनों में एक संगति दिखाई पड़ती है, एक सेतु दिखाई पड़ता है।

मैं तुमसे नहीं कहता पाखंडी बनो। मैं तुमसे कहता हूं: सच्चे रहो। जैसे हो वैसे अपने को स्वीकार करो। और इस सरलता और सहजता से ही धीरे-धीरे परमात्मा की तरफ बढ़ो।
परमात्मा की तरफ जाने को अकारण असहज मत बनाओ। परमात्मा तक जाने की यात्रा जितनी सहजता से हो सके उतनी सुंदर है।

ओशो
अमि झरत बिसगत कमल प्रवचन 4