आंख तो खिड़की है, जिससे खड़े होकर तुम देखते हो, तुम्हारी आंख और आंख के पीछे तुम्हारी देखने की क्षमता अलग चीजें हैं “ओशो”

 आंख तो खिड़की है, जिससे खड़े होकर तुम देखते हो, तुम्हारी आंख और आंख के पीछे तुम्हारी देखने की क्षमता अलग चीजें हैं “ओशो”

ओशो- आंख नहीं देखती है; आंख के भीतर से तुम्हारी दृष्टि देखती है। इसलिए कभी कभी ऐसा हो जाता है कि तुम खुली आंख बैठे हो, कोई रास्ते से गुजरता है और दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि तुम्हारी दृष्टि कहीं और थी; तुम किसी और सपने में खोए थे भीतर; तुम कुछ और सोच रहे थे। आंख बराबर खुली थी, जो निकला उसकी तस्वीर भी बनी; लेकिन आंख और दृष्टि का तालमेल नहीं था; दृष्टि कहीं और थी वह कोई सपना देख रही थी, या किसी विचार में लीन थी।

तुम्हारे घर में आग लग गई है। तुम भागे बाजार से चले आ रहे हो। रास्ते पर कोई जयरामजी करता है सुनाई तो पड़ता है, पता नहीं चलता; कान तो सुन लेते हैं, लेकिन कान के भीतर से जो असली सुनने वाला है, वह उलझा है। मकान में आग लगी है दृष्टि वहां है। तुम भागे जा रहे हो, किसी से टकराहट हो जाती है पता नहीं चलता। पैर में कांटा गड़ जाता है दर्द तो होता है, शरीर तो खबर भेजता है; पता नहीं चलता। जिसके घर में आग लगी हो, उसको पैर में गड़े कांटे का पता चलता है?इसलिए छोटे दुख को मिटाने की एक ही तरकीब है: बड़ा दुख। फिर छोटे दुख का पता नहीं चलता। इसीलिए तो लोग दुख खोजते हैं। बड़े दुख के कारण छोटे दुख का पता नहीं चलता। फिर दुखों का अंबार लगाते जाते हैं। ऐसे ही तो तुमने अनंत जन्मों में अंनत दुख इकट्ठे किए हैं। क्योंकि तुम एक ही तरकीब जानते हो; अगर कांटे का दर्द भुलाना हो तो और बड़ा कांटा लगा लो; घर में परेशानी हो, दुकान की परेशानी खड़ी कर लो घर की परेशानी भूल जाती है; दुकान में परेशानी हो, चुनाव में खड़े हो जाओ दुकान की परेशानी भूल जाती है। बड़ी परेशानी खड़ी करते जाओ। ऐसे ही आदमी नरक को निर्मित करते हैं। क्योंकि एक ही उपाय दिखाई पड़ता है यहां कि छोटा दुख भूल जाता है, अगर बड़ा दुख हो जाए।

मकान में आग लगी हो, पैर में लगा कांटा पता नहीं चलता। क्यों? कांटा गड़े तो पता चलना चाहिए। हॉकी के मैदान पर युवक खेल रहा है; पैर में चोट लग जाती है, खून की धारा बहती है पता नहीं चलता। खेल बंद हुआ, रेफरी की सीटी बजी एकदम पता चलता है। अब मन वापस लौट आया दृष्टि आ गई।

तो ध्यान रखना, तुम्हारी आंख और आंख के पीछे तुम्हारी देखने की क्षमता अलग चीजें हैं। आंख तो खिड़की है, जिससे खड़े होकर तुम देखते हो। आंख नहीं देखती; देखनेवाला आंख पर खड़े होकर देखता है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि देखनेवाला और आंख अलग हैं; सुननेवाला और कान अलग हैं: उस दिन कान को छोड़कर सुननेवाला भीतर जा सकता है; आंख को छोड़कर देखनेवाला भीतर जा सकता है इंद्रिय बाहर पड़ी रह जाती है। इंद्रिय की जरूरत भी नहीं है। अतीन्द्रिय, तुम अपने परम बोध को अनुभव करने लगते हो; अपनी परम सत्ता की प्रतीति होने लगती है।

सुनो भाई साधो

ओशो