ओशो- रुक्मणी कृष्ण की पत्नी है, लेकिन रुक्मणी का नाम कृष्ण के साथ अकसर लिया नहीं जाता–लिया ही नहीं जाता। सीता का नाम राम के साथ लिया जाता है। पार्वती का नाम शिव के साथ लिया जाता है। कृष्ण का नाम रुक्मणी के साथ और रुक्मणी का नाम कृष्ण के साथ नहीं लिया जाता। और राधा उनकी पत्नी नहीं है, याद रखना। राधा का नाम लेना बिलकुल गैरकानूनी है, कृष्ण-राधा कहना, राधा-कृष्ण कहना बिलकुल गैरकानूनी है, नाजायज है, नियम के बाहर है। वह उनकी पत्नी नहीं है। पर क्या बात है, रुक्मणी कैसे विस्मृत हो गई? रुक्मणी कैसे अलग-थलग पड़ गई?
रुक्मणी पत्नी थी और कृष्ण में भगवान को न देख पायी, पुरुष को ही देखती रही–बस ही चूक हो गई। वहीं राधा करीब आ गई जहां रुक्मणी चूक गई।
सौराष्ट्र में एक जगह है–तुलसीश्याम। वहां ध्यान का एक शिविर हुआ। तो जब मैं वहां गया तो जिस तलहटी में शिविर हुआ था वहां कृष्ण का मंदिर है। और ऊपर पहाड़ी की चोटी पर एक छोटा सा मंदिर है, तो मैंने पूछा कि वह मंदिर किसका है। कहा, “वह रुक्मणी का है’।
“उतने दूर! कृष्ण का मंदिर इधर मील दो मील के फासले पर!’
पुजारी उत्तर ना दे सके। उन्होंने कहा कि यह तो पता नहीं।
रुक्मणी दूर पड़ती गई। वह कृष्ण को पुरुष ही मानती रही, पुरुषोत्तम न देख पाई, पुरुष ही दिखाई पड़ता रहा, पति ही दिखाई पड़ता रहा। गहनर् ईष्या में जली रुक्मणी, जैसा पत्नियां अकसर जलती है। वह मंदिर भी इस ढंग से बनाया गया है कि वहां से वह नजर रख सकती है कृष्ण पर। बिलकुल ठीक ढंग से बनाया है, जिसने भी बनाया है बड़ी होशियारी से बनाया है। पत्नी वहां दूर बैठी है और देख रही है। राधा और गोपियां और कृष्ण के पास प्रेमियों का और प्रेयसियों का इतना बड़ा जाल: रुक्मणी जली! बड़े दुख में पड़ी। कृष्ण की भगवत्ता न देख पाई। तो प्रेम साधारण हो गया–प्रेम रह गया, भक्ति न बन पाई।
प्रेम कब भक्ति बनता है?
जैसे ही प्रेमी में भगवान दिखाई पड़ता है, वैसे ही प्रेम भक्ति बन जाता है। कृष्ण का होना जरूरी थोड़े ही है! क्योंकि कृष्ण के होने में अगर यह बात होती तो रुक्मणी को भी भक्ति उपलब्ध हो गई होती।
तो, मैं तुमसे कहता हूं, इससे उलटा भी हो सकता है। तुम अपने प्रेमी में, अपने पति में, अपनी पत्नी में, अपने बेटे में, अपने मित्र में, कहीं वही भूल तो नहीं कर रहे हो तो रुक्मणी ने की? सोचना। कहीं वही भूल तो नहीं हो रही है?मैं तुमसे कहता हूं, वही भूल हो रही है, क्योंकि उसके सिवाय कोई भी नहीं है। “वही’ सब में छिपा है। जरा खोदो, जरा गहरे उतरो। जरा दूसरे में डुबकी लो। जरा अनन्यता के भाव को जगने दो। और तुम अचानक पाओगे: वही भूल, रुक्मणी की भूल, सारे संसार से हो रही है। सभी के पास कृष्ण खड़ा है–सभी के पास भगवान खड़ा है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। लेकिन बाहर तुम्हारी आंखें देखने की आदी हैं, कम से कम बाहर तो उसे देखो। एक दफा पुरुष खो जाए और परमात्मा दिखाई पड़े; पुरुष खो जाए, पुरुषोत्तम दिखाई पड़े…!