इस जगत में धर्म के नाम पर बहुत से लोग देखादेखी ही कर रहे हैं “ओशो”

 इस जगत में धर्म के नाम पर बहुत से लोग देखादेखी ही कर रहे हैं “ओशो”

ओशो- इस जगत में धर्म के नाम पर बहुत से लोग देखादेखी ही कर रहे हैं। तुम्हारे मां-बाप मंदिर जाते थे तो तुम भी मंदिर जाने लगे। वे तुम्हें मंदिर ले गए बचपन से, आदत बन गई। आदत से कहीं धर्म हुआ? आदत और धर्म? लोग सोचते हैं कि कुछ आदतें अच्छी होती हैं, कुछ आदतें बुरी होती हैं, मैं तुमसे कहता हूंः आदत मात्र बुरी होती है। अच्छी आदत जैसी चीज होती ही नहीं। आदत का मतलब होता है, यांत्रिक। अच्छाई यांत्रिक नहीं होती, सहजस्फूर्त होती है।जैसे इंजिन में तेल डालते हैं न, तो तेल के कारण इंजिन के कल-पुर्जे जल्दी नहीं घिसते, ऐसे ही अच्छी आदतें व्यक्तियों के बीच में तेल का काम करती हैं, जल्दी घिसने नहीं देतीं, जल्दी झगड़ा खड़ा नहीं होता। आदत बना ली कि जब भी कोई रास्ते पर मिला, जयरामजी! यह तेल है। इससे रास्ता बना रहता है। इससे झगड़ा-झांसा ज्यादा खड़ा नहीं होता। हालांकि न तुम्हें मतलब है जयराम जी से, न उन्हें मतलब है जयरामजी से! राह पर कोई मिला, पूछ लिया–कहिए कैसे हैं? न तुम्हें मतलब है! और इसीलिए कभी-कभी कोई ऐसा नासमझ भी हो जाता है, कि तुमने पूछा, कहिए कैसे हैं, वह रोक कर सारी कथा बताने लगता है कि कैसा है! तब तुम घबड़ाते हो, कि भई, हमारा यह मतलब नहीं था! मगर अब अच्छे फंसे! यह तो पूछ कर फंस गए। वह बताने लगा अपनी सारी कहानी कि पत्नी बीमार है और बेटे की नौकरी नहीं लग रही है–अब तुमने पूछा! नहीं, कोई इसलिए तो पूछता भी नहीं कि कहिए कैसे हैं। यह तो सिर्फ बीच का तेल है। इससे जिंदगी घिसटती-पिसटती चलती रहती है। अच्छी आदतें लुब्रीकेंट हैं! उससे ज्यादा नहीं।

आदतें कोई अच्छी नहीं होतीं। अच्छा आदमी आदतों से मुक्त होता है। वह प्रतिपल जीता है। अच्छा आदमी स्वभाव से जीता है, बुरा आदमी आदत से जीता है। अच्छा आदमी जयराम जी करता है स्वभाव से। तुम्हें देख कर राम की याद आती है। आनी चाहिए। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उसी की प्रतिमा है। तुम्हें देख कर राम की सुध आ जाती है। एक जीवंत व्यक्ति पास से निकले, जीवन का एक झोंका निकल जाए पास से और तुम्हें राम की याद न आए–तुम मुर्दा हो। सहजस्फूर्त जयराम जी उठे, आदत से नहीं। तब शुभ का जन्म होता है।

तुम भी जब कोई गीता सुनाने लगता है, एकदम सिर हिलाने लगते हो। वह सिर तुम आदत के वश हिला रहे हो। शायद तुम्हें ठीक-ठीक पता भी न हो कि क्यों हिला रहे हो? और लोग हिला रहे हैं शायद इसलिए हिला रहे हो। ‘बहुतक देखा-देखी करहीं’। या यह सोच कर कि जब सब हिला रहे हैं, अपन न हिलाओ, जरा ठीक नहीं मालूम होता!

मार्क ट्वेन फ्रांस गया। मार्क ट्वेन अमरीका का बड़ा लेखक था। फ्रांस में उसके बेटे का बेटा पढ़ता था। उसके स्वागत का समारोह हुआ। मार्क ट्वेन आया था तो पेरिस में बड़ा समारोह हुआ। उसे फ्रांसीसी भाषा नहीं आती थी। मगर उसका जो बारह-तेरह साल का नाती था, उसको आती थी। मार्क ट्वेन ने होशियारी की। उसने कहा कि मैं इसको देखता रहूंगा, इसके अनुसार चलता रहूंगा–किसी को पता भी नहीं चलेगा। तो जब उसका बेटा ताली बजाए तो वह भी ताली बजाए। जब उसका बेटा हंसे तो वह भी हंसे। आखिर में वह बड़ा प्रसन्न था कि किसी को पता भी नहीं चल पाया कि मुझे फ्रांसीसी भाषा नहीं आती। जब लौटने लगे तो बेटे ने कहा–दादा जी, आपने मेरी तक बड़ी फजीहत करवाई। फजीहत! उसने कहा–हां। क्योंकि जब वे आपकी तारीफ करते थे तब मैं ताली बजाता था–और आप भी ताली बजाने लगते थे! लोग बड़े चौंकते थे। मेरा ताली बजाना ठीक, लोगों का ताली बजाना ठीक, आप तो कम से कम संयम रखते! आप क्यों ताली बजाते थे? उन्होंने कहा–हद हो गई, मैं तो तुझे ही देख कर चल रहा था। मैंने तो यही सोच लिया था कि तू जो करेगा, वही करूंगा, क्योंकि मुझे भाषा आती नहीं।

अक्सर लोग वही कर रहे हैं जो दूसरे कर रहे हैं, क्योंकि जीवन की भाषा उन्हें नहीं आती। और जीवन की भाषा ही परमात्मा की भाषा है। और उसकी पाठशाला तुम्हारे भीतर है।

अरी मैं तो नाम के रंग छकी-(प्रवचन-01)