जिसे हम पा नहीं पाते, उसे मत समझना कि हमने छोड़ा है, जिसे हम पाकर छोड़ते हैं, उसे ही समझना कि छोड़ा है! “ओशो”
दो दिन की जिंदगी में न इतना मचल के चल , दुनिया है चलचलाव का रस्ता संभल के चल
ओशो- सम्राट बहादुरशाह जफर के शब्द हैं: सम्राट के हैं, इसलिए सोचने जैसे भी बहुत; ऐसे तो कभी ऐसी बातें भिखारी भी कह देते हैं, लेकिन संभावना है कि भिखारी के मन में अपने को सांत्वना देने की आकांक्षा हो। जब ऐसी बात कोई सम्राट कहता है तो सांत्वना का सवाल नहीं है, किसी सत्य का साक्षात हुआ हो तभी ऐसा वक्तव्य संभव है।
जिनके पास है, उन्हें ही पता चलता है कि संपदा व्यर्थ है। जिनके पास शक्ति है, उन्हें पता चलता है कि शक्ति सार्थक नहीं। जिनके पास नहीं है, वे तो वासना के महल बनाते ही रहते हैं। जिनके पास नहीं है, वे तो कल्पना के जाल बुनते ही कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिनके पास नहीं हैं वे भी ऐसी बातें करने लगते हैं, जो ज्ञान की मालूम पड़ती हैं, लेकिन सौ में निन्यानबे मौकों पर वे बातें धोखे से भरी हैं। अपने को समझाने के लिए भिखमंगा भी महल की तरफ देखकर कह सकता है, कुछ सार नहीं वहां—समझाने को, कि अगर सार होता तो मैं महल को पा ही लेता न! सार नहीं है, इसलिए छोड़ा हुआ है।
जिसे हम पा नहीं पाते, उसे मत समझना कि हमने छोड़ा है। जिसे हम पाकर छोड़ते हैं, उसे ही समझना कि छोड़ा है!
जीवन में जीवन के जो परम गुह्य सत्य हैं, वे केवल उन्हें ही पता चलते हैं, जिन्होंने यह दौड़ पूरी कर ली; जो पके; जिन्होंने जिंदगी में जल्दबाजी न की, अधैर्य न बरता; जो समय के पहले भाग न खड़े हुए। पलायन से कोई कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचा है। और न पराजय से कभी त्याग फलित हुआ है।
इसलिए उपनिषद कहते हैं : तेन त्यक्तेन भुजीथा:। जिन्होंने भोगा, उन्होंने ही त्याग किया है। जिसने भोगा ही नहीं, वह त्याग न कर सकेगा। उसके त्याग में भोग की वासना दबी ही रहेगी, छिपी ही रहेगी, बनी ही रहेगी। वह त्याग भी करेगा तो भोग के लिए ही करेगा; इसी आशा में करेगा कि किसी परलोक में भोग मिलने को है।
जिसका त्याग भोग से आया, उसके मन से परलोक की भाषा ही समाप्त हो जाती है। क्योंकि जहा वासना नहीं है, वहां परलोक कैसा? जहां वासना नहीं है, वहां स्वर्ग कैसा? जहां वासना नहीं है, वहां अप्सराएं कैसी? जहा वासना नहीं है, वहां कल्पवृक्ष नहीं लगते। कल्पवृक्ष वासनाओं का ही विस्तार है—और ध्यान रखना, पराजित वासनाओं का; हारे हुए मन का, थके हुए मन का। जो इस जिंदगी में जीत न पाया, वह परलोक की जिंदगी में जीतने के सपने देखता है।
कार्ल मार्क्स के वक्तव्य में सचाई है कि धर्म अफीम का नशा है। सौ में निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में मार्क्स का वक्तव्य बिलकुल सही है; धर्म अफीम का नशा है। वक्तव्य गलत है, क्योंकि वह जो एक प्रतिशत बच रहा, उसके संबंध में वक्तव्य सही नहीं है। किसी बुद्ध के संबंध में, किसी महावीर के संबंध में, किसी कृष्ण के संबंध में वक्तव्य सही नहीं है; लेकिन निन्यानबे प्रतिशत लोगों के संबंध में सही है।
आदमी दुख में रहा है, इसलिए स्वर्ग की कल्पनाएं पैदा करता है। उन कल्पनाओं की अफीम घेर लेती है मन को। यहां के दुख सहने योग्य हो जाते हैं वहां के सुख की आशा में। आज की तकलीफ को आदमी झेल लेता है कल के भरोसे में। रात का अंधेरापन भी अंधेरा नहीं मालूम पड़ता, सुबह कल होगी। आदमी चाह के सहारे चलता जाता है।
ध्यान रखना, धर्म तुम्हारे लिए अफीम न बन जाए। धर्म अफीम बन सकता है खतरा है। धर्म जागरण भी बन सकता है और गहन मूर्च्छा भी। सब कुछ तुम पर निर्भर है। होशियार, जहर को भी पीता है और औषधि हो जाती है। नासमझ, अमृत भी पीए तो भी मृत्यु घट सकती है। सारी बात तुम पर निर्भर है। अंततः तुम्हीं निर्णायक हो।
एस धम्मो सनंतनो “ओशो”