ओशो- मनुष्य की आत्मा आकाश जैसी है। न कहीं गई; न कहीं जाने को कोई जगह है। न कहीं से आई; न कहीं से आ सकती है। आकाश की तरह है; सदा है, सदा से थी, सदा होगी। कोई समय का, कोई स्थान का सवाल नहीं। तुमने कभी पूछा, आकाश कहां से आया? कहां जा रहा है? आकाश अपनी जगह है। आत्मा भी अपनी जगह है। आत्मा यानी भीतर का आकाश।पर आकाश में भी बदलियां घिरती हैं, वर्षा के दिन आते हैं, आकाश आच्छादित हो जाता है। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; उसकी नीलिमा बिलकुल खो जाती है। उसकी शून्यता का कोई दर्शन नहीं होता। सब तरफ घने बादल घिर जाते हैं। ऐसे ही चेतना के आकाश पर भी स्मृति के बादल घिरते हैं, विचार के, ज्ञान के–जो बाहर अर्जित किया हो। और जब बादल घिर जाते हैं तो भीतर की नीलिमा का भी कोई पता नहीं चलता; भीतर की शून्यता बिलकुल खो जाती है। भीतर का विराट क्षुद्र बदलियों से ढंक जाता है।
एक तो ज्ञान है बदलियों की भांति जिसे तुम दूसरों से प्राप्त करोगे, जिसे तुम किसी से सीखोगे। शास्त्र से, समाज से, संस्कार से तुम उसे संगृहीत करोगे। जितना संग्रह बढ़ता जाएगा, जितना पांडित्य घना होगा, उतना ही भीतर का आकाश ढंक जाएगा। उतने ही तुम भटक जाओगे। जितना जानोगे उतना भटकोगे।
एक ही पाप है, और वह पाप है अपने को भूल जाना। और अपने को भूलने का एक ही ढंग है: और दूसरी चीजों को याद करने में लग जाना। फिर जगह ही नहीं बचती अपने को याद करने की। हजार चीजें याद हो जाती हैं; एक चीज भूल जाती है। और हजारों की भीड़ में कहां तुम्हारा पता चलता है! बाजार की भीड़ है; आंकड़ों का फैलाव है। चारों तरफ बादल ही बादल हो जाते हैं। जानते तुम बहुत हो, लेकिन भीतर तुम अंधेरे बने रहते हो।
जिस जानने से स्वयं न जाना जा सके उसे लाओत्से ज्ञान नहीं कहता। वह ज्ञान का भ्रम है, आभास है। जिस जानने से स्वयं को जाना जा सके उसे ही लाओत्से ज्ञान कहता है। वही ताओ है, वही ऋत है, वही धर्म है।
और इस जगत में या तो तुम स्वयं को जान सकते हो, और या फिर शेष सबको जान सकते हो। क्योंकि दोनों के आयाम अलग-अलग हैं। जो स्वयं को जानता है उसे भीतर की तरफ मुड़ना पड़ता है। जो और कुछ जानना चाहता है स्वयं को छोड़ कर, उसे भीतर की तरफ पीठ कर लेनी पड़ती है। स्वभावतः, अगर तुम्हें मुझे देखना है तो मैं स्वयं को कैसे देख सकूंगा? तुम्हें देखना है तो मेरी आंखों में तुम भर जाओगे, तुम्हारा बादल मेरी आंखों में तैरेगा। और अगर मुझे स्वयं को देखना है तो मुझे तुम्हारी तरफ से आंख बंद कर लेनी पड़ेगी।ध्यान कोई ज्ञान नहीं है; ध्यान ज्ञान को छोड़ने की प्रक्रिया है। कैसे तुम्हारी स्मृति रिक्त और खाली हो जाए, शून्य हो जाए, कैसे तुम भीतर फिर से उस आकाश को पा लो जिसे लेकर तुम पैदा हुए थे, जो कि तुम्हारा स्वभाव है; उसी को लाओत्से ताओ कहता है। ताओ यानी स्वभाव, जिसे तुम लेकर ही पैदा हुए थे। और जिसे तुम दबा सकते हो, खो नहीं सकते; जिसे तुम भूल सकते हो, मिटा नहीं सकते; क्योंकि तुम ही हो, तुमसे भिन्न नहीं है वह। जिसे तुम्हें खोजना ही होगा। और जितना तुम इसे दबाओगे, उतनी ही तुम पीड़ा से भर जाओगे। क्योंकि जो अपने से ही दूर निकल गया, जो अपने से ही अजनबी हो गया, उसकी पीड़ा का तुम हिसाब नहीं लगा सकते। वही सबसे बड़ा संताप है इस जगत में: अपने से अजनबी हो जाना।
तुमने कभी खयाल किया, तुम्हारी पत्नी तुमसे थोड़ी दूर हो जाती है–किसी आवेग में, किसी क्रोध में, किसी रोष में–ऐसा लगने लगता है कि पत्नी भी अजनबी है। तब तुम कैसा खाली अनुभव करते हो! एक दिन तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाएंगे, पढ़ेंगे-लिखेंगे; तुम्हारे घोंसले को छोड़ कर उड़ जाएंगे। उनकी अपनी यात्रा है। उस दिन तुम्हें कैसी पीड़ा होगी–बच्चे भी अजनबी हो गए!
लेकिन यह तो अजनबीपन कुछ भी नहीं है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आएगा कि पत्नी तो पराई थी, अगर दूर भी हो गई तो भी क्या; बच्चे हमसे पैदा हुए थे, लेकिन फिर भी हमारे तो नहीं थे, आए तो प्रकृति के किसी दूर स्रोत से थे, चले गए; लेकिन जब तुम्हें खयाल आएगा कि तुम खुद से ही अजनबी हो, तुम्हारी अपने से ही अपनी पहचान नहीं है, अपना चेहरा ही तुमने अब तक नहीं देखा, तुम अपने से ही दूर पड़ गए हो, तब जो घाव लगता है, वही घाव व्यक्ति को धार्मिक बनाता है। जिस दिन तुम जानते हो कि मैं अपने से ही दूर हो गया हूं, अपने से ही भटक गया हूं, अपना ही पता-ठिकाना नहीं मिलता है कि मैं कौन हूं, क्या हूं, कहां से हूं, कहां जा रहा हूं, जिस दिन तुम इस असहाय और संताप के क्षण में भर जाते हो, जिस दिन तुम्हारा जीवन सिर्फ एक घाव मालूम पड़ता है, उसी दिन तुम्हारे जीवन में धर्म की शुरुआत होती है। उस दिन तुम क्या करोगे? उस दिन कैसे तुम अपने को पाओगे? तो मैं तुम्हें एक बुद्ध की छोटी सी कहानी कहूं।
बुद्ध एक सुबह-सुबह, जैसे तुम आज मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे ऐसे बुद्ध के भिक्षु उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बुद्ध आए, वे बैठ गए अपने वृक्ष के नीचे। लोग थोड़े चकित थे, क्योंकि हाथ में वे एक रेशम का रूमाल लिए थे। ऐसा कभी न हुआ था। वे उस रूमाल को देखते रहे और फिर उन्होंने रूमाल में पांच गांठें लगाईं। भिक्षु अवाक होकर देखते रहे कि वे क्या कर रहे हैं। गांठें लग जाने पर उन्होंने कहा कि मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं। वह सवाल यह है कि जब इस रूमाल में गांठ न लगी थी तब और अब जब कि गांठें लग गईं कोई फर्क है या नहीं? यह रूमाल वही है कि दूसरा?
एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि आप हमें व्यर्थ की उलझन में डाल रहे हैं। समझ गए हम आपकी चाल। अगर कहेंगे कि वही, तो आप कहेंगे कि पांच गांठें नई हैं ये। अगर हम कहें कि नया, तो आप कहेंगे, इसमें नया क्या है, वही का वही रूमाल है। गांठ लगने से क्या होता है? रूमाल के स्वभाव में तो कोई फर्क नहीं हुआ। रूमाल तो वही है, धागा-धागा वही है, ताना-बाना वही है, रंग-ढंग वही है, कीमत वही है। गांठ लगने से क्या होता है? और हम अगर कहें कि बदल गया तो आप ऐसा कहेंगे। और हम अगर कहें कि रूमाल वही है तो आप कहेंगे, वही कैसे हो सकता है? इसमें पांच गांठें नई लग गई हैं! और पहले रूमाल में तुम कुछ चीज-बसद बांध लेते, अब तो न बांध सकोगे। पहले तो इस रूमाल से सिर को ढांक लेते, अब तो न ढांक सकोगे। इस रूमाल का गुणधर्म बदल गया, इसका उपयोग बदल गया। तो उस भिक्षु ने कहा कि आप हमें व्यर्थ की तर्क की उलझन में मत डालें। आपका प्रयोजन क्या है?
बुद्ध ने कहा कि यही मनुष्य का स्वभाव है। ज्ञान की कितनी ही गांठें लग जाएं, एक अर्थ में तो तुम वही रहते हो जो तुम सदा से थे, लेकिन एक अर्थ में तुम बिलकुल बदल जाते हो, क्योंकि ज्ञान की हर गांठ तुम्हारे सारे उपयोग को नष्ट कर देती है। चेतना का एक ही उपयोग है, और वह उपयोग आनंद है। जैसे-जैसे गांठें लग जाती हैं, बंधन पड़ जाता है, पैर में जंजीरें अटक जाती हैं, आनंद खो जाता है; तुम कारागृह में पड़ जाते हो।
कारागृह में पड़े कैदी में और कारागृह के बाहर मुक्त व्यक्ति में क्या फर्क है? व्यक्ति तो वही का वही है। तुम बाहर हो, कल कोई हथकड़ियां डाल कर तुम्हें जेल में डाल दे। क्या फर्क है? तुममें कोई भी तो फर्क नहीं हुआ। सिर्फ गांठ लग गई रूमाल में। अब तुम्हारी उपयोगिता बदल गई। खुला आकाश खो गया। अब तुम मुक्त नहीं हो; पंख जब चाहो तब न खोल सकोगे। गांठें पड़ गईं।
तो बुद्ध ने कहा, मैं तुम्हें यह बताना चाह रहा हूं कि तुम एक अर्थ में तो वही हो, जो तुम सदा से थे। क्योंकि ज्ञान की गांठें क्या मिटा पाएंगी? और ज्ञान की गांठ पानी पर खींची लकीर जैसी है। लेकिन फिर भी सब बदल गया। तुम दूसरे हो गए हो; बिना दूसरे हुए दूसरे हो गए हो। यही पहेली है।