शिक्षक का सम्मान अच्छा शिक्षक होने में है, अगर एक अच्छा शिक्षक राष्ट्रपति होने में जाता है तो यह शिक्षक का असम्मान है, सम्मान नहीं

 शिक्षक का सम्मान अच्छा शिक्षक होने में है, अगर एक अच्छा शिक्षक राष्ट्रपति होने में जाता है तो यह शिक्षक का असम्मान है, सम्मान नहीं

ओशो- अगर शिक्षा ठीक-ठीक हो, सम्यक हो तो चीजों के साथ, कामों के साथ जो पद और प्रतिष्ठा जुड़ी है, वह विलीन हो जानी चाहिए। एक आदमी जूते सीता है, एक आदमी रोटी बनाता है, एक आदमी मकान…राजगीर है, ईंटें बनाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये सारे लोग जिंदगी को मिल-जुल कर बना रहे हैं। जिंदगी में सब जरूरी है। इसमें ईंटें बनाने वाले लोग जरूरी हैं, इसमें सड़क साफ करने वाले लोग जरूरी हैं, इसमें एक मुल्क के हुकूमत करने वाले लोग जरूरी हैं। और कोई किसी से कम नहीं है और कोई का ओहदा किसी से नीचा नहीं है। किसी का कोई स्टेटस नहीं है। सारे लोग मिल कर एक सहयोगी जिंदगी को पैदा कर रहे हैं। जिंदगी एक सहयोग है, एक को-आपरेशन है। इसमें कोई ऊपर नहीं है, कोई नीचे नहीं है। एक चपरासी उससे नीचे नहीं है। प्रेसिडेंट से एक चपरासी नीचे नहीं है, और न होना चाहिए। और जब तक चपरासी और प्रेसिडेंट, ऊंचे-नीचे का खयाल रहेगा तब तक मनुष्य के मन को शांति मिलनी बहुत कठिन है। क्योंकि चपरासी तब प्रेसिडेंट होना चाहेगा–स्वाभाविक है, होना चाहेगा! अगर वह खुद न होना चाहेगा, वह अपने बच्चों को बनाना चाहेगा–स्वाभाविक है, वह बनाना चाहेगा।लेकिन जिस दिन हम कामों की महत्ता को, समग्र जीवन के प्रति उनके सहयोग और दान के भाव को देख कर स्वीकार कर लेंगे, जिस दिन हमारी शिक्षा कामों से पदों को, प्रतिष्ठाओं को नहीं जोड़ेगी–एक संगीतज्ञ का जो मूल्य है, जूते सीने वाले का भी उतना ही मूल्य है, कपड़े सीने वाले का भी उतना ही मूल्य है। सवाल यह नहीं है कि कौन क्या करता है, सवाल यह है कि कौन, कैसे, क्या करता है।कबीर था, जुलाहा था, कपड़े सीता था, कपड़े बनाता था। लोगों ने उससे कहाः कपड़े बनाना बंद कर दो, संन्यासी को शोभा नहीं देता। उसने कहा कि नहीं, जब संन्यासी को कपड़े पहनना शोभा देता है तो बनाना शोभा क्यों नहीं देता? सिर्फ फर्क इतना ही हो सकता है कि पहले मैं कपड़े बनाता था तो सोचता था कितना मनुष्य से छीन लूं, कपड़ा बना कर कितना पैसा छीन लूं, ऐसा सोचता था। वह संन्यासी के लिए शोभा की बात नहीं थी। अब जब मैं कपड़े बनाता हूं तो मेरे मन में यही भाव चलता रहता है कि कितना कम लूं और कितना ज्यादा दे दूं। मैं मजबूत कपड़ा बनाता हूं और मेरे मन में वैसे ही आनंद भरा होता है, जैसे कि राम खुद कपड़ा खरीदने आने वाले हैं। वे नाचते हुए अपने कपड़े को लेकर बाजार में जाते थे और नाचते हुए बुलाते थे कि कौन राम आज मेरी इस मेहनत को स्वीकार करेगा, मेरी प्रार्थना को स्वीकार करेगा। जो आदमी उनसे कपड़ा पहनता था उसके पैर छू लेते थे और उसको कपड़ा पहना देते थे कि भगवान, थोड़ा सम्हल कर पहनना। बनाया मैंने बहुत मेहनत से, बहुत प्रेम से, बहुत प्रार्थनाओं से इसको बुना है।लेकिन कपड़ा बुनना क्या कोई बुरी बात है? जुलाहा होना क्या कोई बुरी बात है? जिंदगी के लिए कोई बात बुरी नहीं हैं, जिंदगी के लिए ये बातें जरूरी हैं, काम जरूरी हैं। कामों के साथ स्टेटस नहीं होना चाहिए, कामों के साथ पद नहीं होना चाहिए। लेकिन शिक्षा बिलकुल ही गलत है। एकदम ही गलत है! स्कूल में जो चपरासी है उसकी कोई इज्जत नहीं है। फिर बच्चे चपरासी क्यों होना चाहिए? यह युवकों के ऊपर है कि क्रांति लाएं, सारी दृष्टि बदलें। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, हम चीजों को इन-इन भाषाओं में, इन-इन शब्दों में सोचते रहेंगे, ऊंचे-नीचे की तरह सोचते रहेंगे।

अभी मैं गया, शिक्षक दिवस हुआ। वहां किसी ने मुझे भूल से बोलने बुला लिया। वहां मैं गया, तो उन्होंने कहा कि यह शिक्षक का बहुत सम्मान है कि एक शिक्षक राष्ट्रपति हो गया। मैंने कहा, यह बिलकुल गलत बात है। शिक्षक का सम्मान शिक्षक के अच्छे होने में है। शिक्षक का सम्मान राष्ट्रपति हो जाने में नहीं है। लेकिन सब शिक्षक राष्ट्रपति होने की दौड़ में पड़ जाएंगे तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। वह दौड़ चल रही है। नहीं राष्ट्रपति हो सकेंगे तो किसी स्टेट के एजुकेशन मिनिस्टर हो जाएंगे, नहीं तो वाइस चांसलर हो जाएंगे, नहीं तो कुछ और हो जाएंगे! यह बात गलत है।
शिक्षक का सम्मान अच्छा शिक्षक होने में है। और अगर एक अच्छा शिक्षक राष्ट्रपति होने में जाता है तो यह शिक्षक का असम्मान है, सम्मान नहीं है। यह तो समझ में आ सकता है कि एक राष्ट्रपति राष्ट्रपति का पद छोड़ दे और शिक्षक हो जाए। यह समझ में बिलकुल नहीं आता कि शिक्षक शिक्षक का पद छोड़ दे और राष्ट्रपति हो जाए। यह समझ में आने वाली बात नहीं है। क्योंकि शिक्षक और राजनीतिज्ञ में क्या मुकाबला? एक शिक्षक का पतन है यह, कि वह राजनीतिज्ञ हो जाए। एक राजनीतिज्ञ का विकास होगा यह, कि वह शिक्षक हो जाए। शिक्षक एक सरलतम व्यवसाय है, सरलतम वृत्ति है। जीवन की बहुत आधारभूत बात है। शिक्षक कोई व्यवसाय ही नहीं है, बल्कि एक आनंद है, एक सेवा है, एक सृजन है, एक साधना है। उसे छोड़ कर जब भी कोई कहीं भागता है तो सम्मानित नहीं होगा, न सम्मानित होना चाहिए। लेकिन हमारे मन में तो हर तरफ राजनीति और पद महत्वपूर्ण है। हम तो बहुत अजीब लोग हैं। एक छोटे स्टूल पर बैठा हुआ आदमी छोटा हो जाता है।हमारे एक परिचित थे, उन्होंने एक घटना मुझे बताई। बहुत दिन पहले मद्रास में एक मजिस्ट्रेट थे। कुछ थोड़ा सा सनकी रहा होगा। ऐसे तो सभी लोग सनकी हैं। तय करना मुश्किल है, कौन सनकी, कौन नहीं है। फिर वह कुछ थोड़ा ज्यादा रहा होगा। वह जिस अदालत में बैठता था, बाकी अदालत खाली थी। जब भी कोई आदमी आता तो उसकी स्टेटस देख कर, उसकी स्थिति देख कर, उसका ओहदा और पद देख कर, उसके पास धन, उसकी जेब की गर्मी देख कर वह कुर्सियां बुलवाता। उसने सात नंबर की कुर्सियां बगल के कमरे में रख कर छोड़ी थीं–एक से लेकर सात नंबर तक। एक नंबर का एक छोटा स्टूल था, मोढ़ा था। दरिद्र कोई आदमी आ जाए, आमतौर से तो ऐसे आदमी को बैठने के लिए कहने की जरूरत नहीं होती थी। ऐसे ही टाल देता था। लेकिन फिर भी अगर कोई ऐसा आ जाए कि बैठालना ही पड़े तो वह नंबर एक का मोढ़ा बुलाता था, फिर नंबर दो का था, नंबर तीन का था, फिर कुर्सी थी, फिर और अच्छी कुर्सी थी, फिर और उससे अच्छी कुर्सी थी। ऐसे सात नंबर की कुर्सियां थीं।

एक दफा एक आदमी आया, वह देखने-दाखने में गरीब मालूम पड़ता था तो उसने, पहले तो टाल देना चाहा कि खड़े-खड़े बात कर ले, लेकिन उसने आते ही कहा कि फलां गांव का मालगुजार हूं। उसने जल्दी से अपने चपरासी को कहा कि नंबर दो ले आओ। वह चपरासी भीतर गया, नंबर दो को लेकर आता ही था कि तभी उस आदमी ने कहा कि मुझे रायबहादुर की पदवी दी है गवर्नमेंट ने। फिर बीच में चपरासी को कहा कि रुक-रुक, नंबर छह की ले आ। उस मालगुजार ने कहाः आप क्यों परेशान करते हैं? मुझे पता है, आप नंबर सात की ही बुला लें, क्योंकि अभी और भी कई बातें हैं जो मुझे आपको बतानी हैं। अभी आगे भी मेरा वार फंड में और रुपया देने का विचार है। आप नंबर सात की ही बुला लें।इस आदमी पर हमें हंसी आती है, लेकिन हम सब भी इसी तरह के आदमी हैं। हमारे मन में मनुष्य का कोई आदर नहीं है। है मनुष्य का आदर हमारे मन में? नहीं, हमारे मन में राष्ट्रपति का आदर है, प्रधानमंत्री का आदर है, गर्वनर का आदर है। मनुष्य का कोई आदर है हमारे मन में? निपट मनुष्य का हमारे मन में कोई प्रेम है? खाली मनुष्य, जिसके पास कोई पद, कोई नाम, कोई पदवी, कोई सर्टिफिकेट, कुछ भी नहीं, जिसके खीसे खाली हैं–निपट मनुष्य का हमारे मन में कोई आदर है? और अगर निपट मनुष्य का हमारे मन में कोई भी आदर नहीं है तो स्मरण रखें, हमारे मन में कोई भी आदर नहीं है, किसी का कोई आदर नहीं है। यह सब ऊंची-नीची कुर्सियों का आदर है।

लेकिन यही शिक्षा हमें सिखाती है! यह शिक्षा हमें सिखाती है इन सारी बातों को। यह सारी शिक्षा जला देने योग्य है। सारा शिक्षा का सर-अंजाम गलत है। तो फिर से पूरे के पूरे नये आधार रखने की जरूरत है। और वे आधार होंगे कि हमें प्रेम सिखाया जाए, प्रतियोगिता नहीं। मनुष्य के प्रति, निपट मनुष्य के प्रति सम्मान सिखाया जाए–पदों, ओहदों के प्रति आदर नहीं। जरूरी है कि कामों के साथ प्रतिष्ठा न जोड़ी जाए। समग्र जीवन सभी लोगों का सामूहिक योगदान है, यह भाव पैदा किया जाए।

और तब इस सारी भाव-भूमि के साथ हमारे व्यक्तित्व में क्या संभावनाएं हैं–बिना किसी कंपेरिजन के, बिना किसी दूसरे से तुलना किए? जैसा मैंने सुबह कहा कि किसी दूसरे से तुलना करने की जरूरत नहीं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में अनूठा है। कोई कहने की जरूरत नहीं है कि तुम फलां आदमी से कमजोर हो या फलां आदमी से बुद्धिमान हो या फलां आदमी से कम सुंदर हो। ये सब तुलनाएं खतरनाक हैं, वायलेंट हैं। इनकी वजह से गड़बड़ पैदा होती है। प्रत्येक व्यक्ति जैसा वह है, हमें स्वीकृत है। उसमें जो संभावनाएं हैं वे विकसित हों। क्रमशः……………

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३