महत्वाकांक्षा पर आधारित शिक्षा मूलतः हिंसा पर आधारित शिक्षा है, कोई स्वस्थ व्यक्ति राजनीतिज्ञ नहीं होना चाहेगा, हमारे भीतर जो रुग्ण, बीमार, हीन आदमी बैठा हुआ है, यह उसकी दौड़ है

 महत्वाकांक्षा पर आधारित शिक्षा मूलतः हिंसा पर आधारित शिक्षा है, कोई स्वस्थ व्यक्ति राजनीतिज्ञ नहीं होना चाहेगा, हमारे भीतर जो रुग्ण, बीमार, हीन आदमी बैठा हुआ है, यह उसकी दौड़ है

ओशो- अगर विश्वविद्यालय सच्चे हैं, अगर शिक्षा वास्तविक है तो दुनिया से लड़ाई विलीन हो जानी चाहिए। युद्ध दुनिया में नहीं होना चाहिए, क्योंकि शिक्षित व्यक्ति लड़ेगा? सुसंस्कृत व्यक्ति लड़ेगा? सभ्य व्यक्ति लड़ेगा? हत्या करेगा? एक दो लोगों की नहीं, करोड़ों लोगों की हत्या करेगा? लेकिन हम यह कर रहे हैं और यह हमारा सुशिक्षित व्यक्ति लड़ेगा, युद्ध में जाएगा! और इसे युद्ध की कोई भी तरकीब का कोई पता नहीं चलता, नहीं चल सकता है। क्योंकि इसके भीतर भी लड़ाई के ही बीज डाले गए हैं। हर दूसरे से लड़ने के बीज डाले गए हैं। बल्कि इसे लड़ाई में रस आएगा, सुख आएगा।आप देखते हैं, जब भी लड़ाई होती है, आप प्रफुल्लित हो जाते हैं। यह जरूर बीमार स्थिति है। जब लड़ाई होती है तब लोगों के चेहरों पर रौनक दिखाई पड़ती है। लोग कुछ आनंद में, उत्साह में मालूम पड़ते हैं। हिंदुस्तान से पाकिस्तान लड़ता हो, हिंदुस्तान से चीन लड़ता हो या कहीं और कुछ बेवकूफी होती हो, कहीं कोई और नासमझी होती हो तो लोग कितने खुश मालूम होते हैं। रातें और दिन उनके ताजगी से भर जाते हैं। सुबह से अखबार पढ़ते हैं, रेडियो सुनते हैं, चर्चा करते हैं। उनके चेहरे की रौनक देखिए, जैसे बहुत खुशी का कोई मौका आ गया है। उनको लड़ाई के लिए तैयार किया गया है। चैबीस घंटे लड़ाई के सिवाय उन्हें और किसी बात में रस नहीं है।रास्ते पर जाते हों, दो आदमी लड़ रहे हों, हजार जरूरी काम छोड़ कर सैकड़ों लोग देखने लगेंगे। क्या पागलपन है! दो आदमियों को लड़ते देखना किसी कुरूप चित्त का लक्षण है, किसी सुसंस्कृत चित्त का लक्षण नहीं है। एक अग्ली माइंड का लक्षण है दो आदमियों को लड़ते देख कर रस अनुभव करना। लेकिन लोग सारी दुनिया में यही कर रहे हैं, किसी एक मुल्क में नहीं। हमारे मन की तैयारी ऐसी है। जब एक आदमी हार जाता है और जो आदमी जीत जाता है, हम जीते हुए आदमी के गले में मालाएं पहनाते हैं और हारे आदमी को उपेक्षित कर देते हैं। यह कुरूप चित्त का लक्षण है। यह दुष्ट और हिंसक चित्त का लक्षण है। आखिर इसमें क्या बात हो गई कि जो आदमी जीत गया है उसके गले में आप मालाएं पहनाएं, और जो आदमी हार गया है उसकी उपेक्षा कर दें? क्या इसको…आपके भीतर बीमार आदमी का आपको दर्शन नहीं होता? क्या हारे हुए के प्रति दया और प्रेम आना चाहिए या नहीं, या कि जीते हुए के प्रति सम्मान उमड़ना चाहिए!

अगर शिक्षा उचित होगी तो जो पराजित है उसके प्रति दया और सम्मान उमड़ेगा। जो जीत गया है, उसके प्रति हैरानी होगी कि कैसा दुष्ट आदमी है कि उसने जीतना चाहा, उसने किसी को पराजित करना चाहा। कैसा हिंसक वृत्ति का व्यक्ति है!किसी को हराने में हिंसा है। किसी को हराने में घृणा है। किसी को हराने की चेष्टा ही विकृत मन का सबूत है, बीमार मन का सबूत है।

लेकिन हम जो जीत जाता है उसका आदर करते हैं। जो हार जाता है उसे उपेक्षित करते हैं। क्यों? इसलिए कि हम भी भीतर जीतने को उत्सुक हैं और हम भी उसके समर्थक हैं जो जीत गए हैं, क्योंकि हम भी जीतना चाहते हैं। हमारे मन में भी वही रस काम कर रहा है कि हम भी जीतें। हम भी दूसरों की छाती पर बैठ जाएं, यह रस हमारे मन में काम कर रहा है। इसलिए जो किसी की छाती पर बैठ जाता है उसे हम फूल पहनाते हैं, जो नीचे जमीन पर गिर पड़ता है उसे हम भूल जाते हैं। उसकी कीमत नहीं है। यह जरूर गलत है, वह बुनियादी रूप से गलत है।

और स्मरण रखें महत्वाकांक्षा क्यों है हमारे भीतर? कौन सा कारण है कि हम इतने पागल होकर दौड़ रहे हैं? कारण है! जितनी जिस मनुष्य के भीतर हीनता होती है, उसके भीतर उतनी ही महत्वाकांक्षा पैदा हो जाती है। जितनी हीनता होती है, जितनी इनफिरिआरिटी अनुभव होती है, जितना भीतर लगेगा कि मैं कुछ भी नहीं हूं उतनी ही कठिनाई, उतनी महत्वाकांक्षा पैदा हो जाएगी। क्यों? महत्वाकांक्षा के द्वारा, वह अपनी आंखों में और दुनिया की आंखों में वह सिद्ध करना चाहता है कि भूल में मत रहना कि मैं हीन आदमी हूं।
एक छोटी सी घटना आपको कहूं, उससे समझ में आपको आए। तैमूरलंग का नाम आपने सुना होगा। एक राज्य को उसने जीत लिया। उस राज्य का जो बादशाह था बैजल, उसने उसको बंदी बना लिया। फिर तैमूर के खेमे में बैजल को हथकड़ियां पहना कर लाया गया। जब बैजल आकर खड़ा हुआ, हारा हुआ बादशाह, तैमूर अपने तख्त पर बैठा था, उसके दरबारी बैठे थे, उसके सैनिक-सिपाही खड़े थे। तैमूर बैजल को देख कर हंसने लगा। स्वाभाविक है कि बैजल को गुस्सा आ जाए। हार गया तो भी क्या, आखिर तो बादशाह था! उसने भी गरूर से सिर उठा कर कहा कि तैमूर, नासमझी मत करो। जो दूसरों की पराजय पर हंसता है, एक दिन उसे फिर अपनी पराजय पर भी आंसू गिराने पड़ते हैं। लेकिन तैमूर ने कहाः नहीं, इसलिए नहीं हंसता हूं। इतना नासमझ नहीं कि इस छोटी सी जीत पर मैं हंसूं। हंसता मैं किसी और बात पर हूं। हंसता मैं इसलिए हूं कि मैं हूं लंगड़ा–तैमूर लंगड़ा था और बैजल काना था–उसने कहा, हंसता मैं इसलिए हूं कि मैं हूं लंगड़ा और तुम हो काने। और यह भगवान भी कैसा है, लंगड़े काने को बादशाहतें देता है।

अगर मैं उसकी जगह मौजूद होता तो मैं तैमूर को कहता कि लंगड़ों और कानों के सिवाय भगवान से बादशाहत कोई मांगता ही नहीं। कोई स्वस्थ व्यक्ति बादशाह नहीं होना चाहेगा। कोई स्वस्थ व्यक्ति राजनीतिज्ञ नहीं होना चाहेगा। कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी के ऊपर बैठने की आकांक्षा नहीं करता है। कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी को पैरों में नहीं डालना चाहता। कोई स्वस्थ व्यक्ति किसी का मालिक नहीं होना चाहता। यह हमारे भीतर जो रुग्ण, बीमार, हीन आदमी बैठा हुआ है, उसकी दौड़ है।लंगड़े और काने–हीन चित्त की जो हमारी स्थितियां है, हमारे भीतर जो कमजोरियां हैं, उनको छिपाने के लिए हम दौड़ते हैं, उनको छिपाने के लिए हम दौड़ करते हैं और हम सिद्ध कर देना चाहते हैं कि गलत है दुनिया। हम ठीक हैं, हम उचित हैं। हमने यह करके दिखला दिया। हम दूसरों को अपने सामने यह स्थापित कर लेना चाहते हैं कि हम हीन नहीं हैं। यह हीन मन की दौड़ है।

महत्वाकांक्षा पर आधारित शिक्षा मूलतः हिंसा पर आधारित शिक्षा है। वह व्यक्तित्व की गरिमा नहीं है उसमें, व्यक्तित्व की हीनता है। दुनिया में हरेक व्यक्ति को यह भय होता है कि कहीं मैं ‘नो-बडी’ न हो जाऊं, कहीं ‘ना-कुछ’ न हो जाऊं! मुझे कुछ न कुछ होना चाहिए–मेरा नाम होना चाहिए। मेरा पद होना चाहिए, मेरी प्रतिष्ठा होनी चाहिए, मेरा मकान होना चाहिए। मुझे कुछ होना चाहिए।

यह पागलपन कौन पैदा करता है? यह हमारी शिक्षा पैदा करती है। उचित है वह शिक्षा, जो प्रत्येक व्यक्ति को यह कह सके कि तुम जो हो वह काफी हो, पर्याप्त हो। तुम जो हो वह काफी हो और पर्याप्त हो। तुम्हें कुछ और होने की आवश्यकता नहीं है। तुम जो हो वह पर्याप्त है। और अपनी पूरी संभावनाओं को खोलो और आनंद को अनुभव करो। तुम किसी के साथ दौड़ में मत पड़ो। किसी के साथ दौड़ने का कोई कारण नहीं है। कोई भी कारण नहीं है! अगर शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को इस बोध को करा सके कि वह जो है, पर्याप्त है और उस पर्याप्त होने के आनंद को अनुभव करा सके–जो उसके पास है, उसके पूरे विकास की सुविधाएं जुटा सके–महत्वाकांक्षा की नहीं, विकास की; प्रतियोगिता की नहीं, प्रेम की; दूसरों के साथ संघर्ष की नहीं, वरन स्वयं के आत्म-जागरण की; और चैतन्य की अगर आयोजना कर सके तो शिक्षा सारे जगत में एक मूलभूत क्रांति को लाने में समर्थ हो सकती है। और जब तक शिक्षा ऐसी नहीं होगी तब तक शिक्षा मनुष्य के हित में नहीं है, वरन मूलतः वह मनुष्य के अहित में है, मनुष्य को विषाक्त करती है।जो हमारे पास है और आपके पास, कौन सी कमी है? प्रत्येक व्यक्ति के पास कौन सी कमी है? अगर वह महत्वाकांक्षा से न भर जाए तो दुनिया में कोई भी कमी नहीं है। अगर वह महत्वाकांक्षा के पागलपन से रुग्ण न हो जाए तो उसके पास बहुत है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ सकता। वह दिखाई कैसे पड़ेगा? हमें तो वह दिखाई पड़ता है जो दूसरों के पास है। जो आदमी महत्वाकांक्षी है उसे सदा दूसरों के पास है, वही दिखाई पड़ता है। जो उसके पास है, वह नहीं दिखाई पड़ता है। और मजा यह है, जो दूसरों के पास है वह उसे दिखाई पड़ता है, अगर कल उसे मिल जाए तो उसे दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा। उसे फिर वह दिखाई पड़ने लगेगा जो दूसरों के पास है। आप विचार करें, खुद देखें–क्या यह सच नहीं है? आपके पास दो आंखें हैं, हाथ हैं, पैर हैं, श्वास चलती है, शरीर है, बड़ी संपदा है–इस बड़ी संपदा से बहुत कुछ पैदा हो सकता है। क्रमशः…….

ओशो आश्रम उम्दा रोड भिलाई-३